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19वीं सदी में भारत में अंग्रेजों की औद्योगिक नीति

भारत में अंग्रेजों की औद्योगिक नीति का प्रमुख लक्ष्य भारत का आर्थिक शोषण करना था। इंग्लैण्ड में हुई औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप वहाँ मिलों में कम कीमत पर अधिक कपङा उत्पादित होने लगा था। सस्ती लागत का कपङा भारतीय बाजारों में बिखेर दिया गया।

फलतः अंग्रेजी कपङों की प्रतियोगिता में भारतीय कपङे नहीं टिक सके, जिससे भारत का वस्त्र उद्योग लङखङाने लगा।विदेशी बाजार तो पहले ही हाथ से निकल चुका था और अब देशी बाजार भी समाप्त होने लगा। इसलिए अंग्रेजों ने भारत के औद्योगिक विकास के प्रति पूर्ण उपेक्षा की नीति का अवलंबन किया। ज्यों-ज्यों भारत की औद्योगिक इमारत गिरती गई, इंग्लैण्ड में निर्मित माल की माँग बढने लगी।

लार्ड डलहौजी के समय बंदरगाहों की सुविधाओं को बढाकर इंग्लैण्ड के माल के प्रवेश का मार्ग और भी अधिक सुलभ कर दिया गया, जिससे भारत का व्यवसाय लगभग नष्ट हो गया।

यद्यपि 19 वी. शता. के मध्य बंबई प्रांत में पहली कपङा मिल स्थापित की गई, लेकिन इस उद्योग का विकास भी 1870 के बाद ही हुआ।

1850 – 1870 के मध्य भारत के विभिन्न भागों में रूई से बिनौले निकालने तथा गाँठों में रूई भरने के लिए जिनिंग और प्रेसिंग मिलें स्थापित की गई, लेकिन इसे औद्योगीकरण की संज्ञा नहीं दी जा सकती, क्योंकि ये मिलें केवल कच्चे माल को इंग्लैण्ड भेजने का कार्य करती थी।अतःइस उद्योग का विकास भी भारत के आर्थिक शोषण में सहायक हुआ।

19 वी. शता. के मध्य यूरोप में मुक्त व्यापार,समुद्री जहाजों के आवागमन की सुविधा तथा भाङा शुल्क में गिरावट के कारण विभिन्न देशों के बीच आयात-निर्यात में अत्यधिक वृद्धि हुई। अतः माल को बाहर भेजने के लिए बंडल बाँधने की सहायक सामग्री के रूप में बंगाल में उपलब्ध पटसन अत्यंत ही उपयोगी था।

अतः स्काटलैण्ड के व्यापारियों ने इस उद्योग पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया। 1855 ई. में पहली पटसन मिल स्थापित हुई और इस मिल के बढते हुए लाभ को देखते हुए पटसन मिलों की संख्या में तीव्र गति से वृद्धि हुई। विश्व में पटसन उद्योग का एकाधिकार स्थापित हो गया।

मिल मालिकों ने इस एकाधिकार का लाभ उठाया। उन्होंने उत्पादन को माँग से कम रखकर अपने लाभांश को बनाये रखा।14 वें इंडियन जूट मिल्स एसोसियेशन(Indian Jute Mills Association) का गठन करके मिलों में होने वाली प्रतियोगिता को भी समाप्त कर दिया।

इसका परिणाम यह हुआ कि मिल मालिकों को अधिक लाभ होते हुए भी पटसन की खेती करने वाले किसानों को कोई लाभ नहीं हुआ, क्योंकि मिल मालिक कम कीमत देकर कच्चा पटसन खरीद लेते थे। प्रथम विश्वयुद्ध (First world war)के बाद 1929-30 की विश्वव्यापी आर्थिक मंदी का भी इस उद्योग पर कोई प्रभाव नहीं पङा, क्योंकि मजदूरों के वेतन में कटौती करके, किसानों को कच्चे पटसन की कम कीमत देकर तथा उत्पादन घटाकर लाभांश को बनाये रखा गया।

भारत में अंग्रेजों की औद्योगिक नीति के फलस्वरूप कपङा कुटीर उद्योग का नाश

भारत में कपङा कुटीर उद्योग काफी विकसित था तथा 18 वी. शता.में भारत का निर्मित कपङा इंग्लैण्ड को निर्यात किया जाता था। किन्तु 19वी. शता.में इंग्लैण्ड से कपङा आयात किया जाने लगा तथा भारत से रूई का निर्यात किया जाने लगा। फिर भी भारत में कुछ कपङा मिलें स्थापित हुई।

इस उद्योग के प्रमुख केन्द्र बंबई, अहमदाबाद और कानपुर थे। पटसन उद्योग में पूँजी विनियोग तथा नेतृत्व विदेशी था, जबकि कपङा उद्योग में पूँजी विनियोग और नेतृत्व भारतीय था। किन्तु पूंजी पर निश्चित लाभ का आश्वासन प्राप्त किये बिना व्यापारी पूँजी विनियोग के लिए उत्सुक नहीं थे।

अतः मैनेजिंग एजेन्सी प्रणाली का विकास हुआ, जसके अंतर्गत मैनेजिंग एजेण्ट दीर्घावधि के लिए मिल के प्रबंध का उत्तरदायित्व स्वीकार कर लेते थे। मैनेजिंग एजेन्ट को उचित पारिश्रमिक और उत्पादन अथवा बिक्री पर कमीशन दे दिया जाता था। इस प्रणाली से कपङा मिलों की स्थापना को पर्याप्त प्रोत्साहन मिला।किन्तु इन मिलों में तकनीकी कुशलता की अपेक्षा व्यावसायिक कुशलता पर अधिक ध्यान दिया जाता था।परिणाम यह हुआ कि मिलों का नवीनीकरण न हो सका तथा उत्पादन परंपरावादी रहा।

भारत में कपङा मिलों की स्थापना से इंग्लैण्ड के मिल मालिकों को इस बात का भय हुआ कि भारत में उनके माल की खपत कम हो जायेगी। अतः उन्होंने भारत में लगे आयात करों के विरुद्ध संगठित आवाज उठायी।

फलस्वरूप 1876-84 के मध्य भारत में आने वाले कपङे पर आयात कर समाप्त कर दिया गया। फिर भी भारत में कपङा मिलों की संख्या में तथा उत्पादन में वृद्धि होती गई।1894 तक भारत में जापान से कपङा आयात होने लगा तथा मुक्त व्यापार नीति के कारण अन्य देशों से भी प्रतियोगिता होने लगी।जिसके परिणामस्वरूप 1894 में भारत में कपङे तथा सूत पर 5 प्रतिशत आयात कर और भारत में निर्मित कपङे पर 5 प्रतिशत उत्पादन शुल्क लगा दिया गया। किन्तु 1896 में यह उत्पादन शुल्क 3.50 प्रतिशत कर दिया गया।

प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजों को धन की आवश्यकता हुई, अतः आयात कर की दर बढाकर 7.50 प्रतिशत कर दी गई और 1921 में इसे 11 प्रतिशत कर दिया गया, लेकिन उत्पादन शुल्क 3.50 प्रतिशत ही रहा।

1921 में भारत सचिव के सुझाव पर इंडियन फिसकल कमीशन नियुक्त किया गया, जिसने उद्योगों को संरक्षण देने की सिफारिश की। अतः 1923 में एक टेरिफ बोर्ड का गठन किया गया। लेकिन इस टेरिफ बोर्ड ने कपङा उद्योग को कोई सहायता अथवा संरक्षण प्रदान नहीं किया।

1925-26 के बाद जापान का कपङा भारत में अत्यधिक मात्रा में आने लगा, जो इंग्लैण्ड के लिए सुरक्षित भारतीय बाजारों में जापानी वस्तुओं की बिक्री भी बढने लगी। अतः इस स्थिति का सामना करने के लिए 1930 में इंग्लैण्ड से आयात होने वाले कपङे पर 15 प्रतिशत तथा अन्य देशों के बने कपङे पर 20 प्रतिशत आयात कर लगा दिया गया।

1931 में इस आयात कर को इंग्लैण्ड के लिए 25 प्रतिशत तथा अन्य देशों के लिए 31 प्रतिशत कर दिया गया।

जापान में मुद्रा का अवमूल्यन होने के बाद 1932 में अन्य देशों के कपङे पर आयात कर 50 प्रतिशत कर दिया और 1933 में इसे बढाकर 75 प्रतिशत कर दिया गया, किन्तु 1934 में इसे पुनः 50 प्रतिशत कर दिया गया।1935 में इंग्लैण्ड के लिए यह कर घटाकर 20 प्रतिशत कर दिया गया और 1939 में इसे घटाकर 15 प्रतिशत कर दिया गया, जबकि अन्य देशों के लिये वह 50 प्रतिशत ही निर्धारित रहा।

भारत के राष्ट्रीय आंदोलन(National Movement) से भारतीय कपङा मिलों को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ।गाँधीजी के असहयोग आंदोलन ( asahayog aandolan )में स्वदेशी वस्तुओं का प्रचार किया गया, जिससे देश में बना कपङा अधिक लोकप्रिय होने लगा। 1941 के बाद इंग्लैण्ड से कपङे के आयात की संभावना कम हो गयी, जापान से आयात लगभग समाप्त हो गया और युद्ध के कारण सैनिक माँग में वृद्धि हो गयी।

अतः उस समय भारत में कपङा निर्यात होना आरंभ हुआ।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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