इतिहासधार्मिक आंदोलनप्राचीन भारत

प्राचीन भारत के धार्मिक आंदोलन

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600 ई. पू. में भारत में एक धार्मिक आंदोलन उठ खङा हुआ जिसने भारतीय जनमानस को बौद्धिक रुप से आंदोलित कर दिया। 6 शता. ई. पू. का काल बौद्धिक चिंतन का युग माना जाता है। इस समय भारत में बुद्ध तथा महावीर जैसे चिंतक हुए। इसी समय संसार में भी धार्मिक आंदोलन का माहौल बना हुआ था। यूनान में पाइथागोरस, ईरान में जटथ्रुष्ट, चीन में कन्फूसियस एवं लाओत्से जैसे चिंतक हुए।

इस काल में परंपरागत लौकिक धर्म अपनी गति से चल रहा था। इसमें इन्द्र देवता को प्रधान माना जाता था। उसे शक्र तथा मधवा कहा जाता था। बौद्ध ग्रंथों में ब्रह्मा (बम्मा) का भी उल्लेख है।

रुद्र को शिव के रूप में माना जाता था।

पाणिनी ने वासुदेव सम्प्रदाय की चर्चा की है, जो भागवत धर्म से जुङा हुआ था। महाभारत में भी कृष्ण पूजा का उल्लेख है।

जैन ग्रंथों में स्कंद की चर्चा है जो, शिव के पुत्र थे। इस युग में भी नाग पूजा होती थी। बौद्ध एवं जैन धर्म ग्रंथों में यक्ष की पूजा का भी उल्लेख मिलता है।

6 शता. ई. पू. में पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार (उत्तर भारत के गंगेय प्रदेश ) के जनजीवन में सामाजिक, आर्थिक दृष्टि से नगरीकरण, शिल्प समुदाय के विस्तार तथा व्यापार व वाणिज्य में तीव्र विकास, तत्कालीन धर्म एवं दार्शनिक चिंतन में होने वाले परिवर्तनों में घनिष्ठ रूप से संबंध थे । परंपरागत रुढिवादि व नगरों में उभरते नये वर्गों की आकांक्षाओं में होने वाले संघर्ष ने इस प्रक्रिया को प्रगतिशील बनाया तथा इसके चिंतन के क्षेत्र में ऐसी एक नवीन शक्ति तथा अदभुद सम्पन्नता का आविर्भाव हुआ। जिसने न केवल भारत में बल्कि एक बङे जनसमुदाय को प्रभावित किया।

इस बौद्धिक गतिविधि का केन्द्र मगध था। मगध में इस काल में एक विशाल साम्राज्य की नींव भी पङ रही थी।

इस आंदोलन के कई प्रत्यक्ष और परोक्ष कारण थे जो तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक परिवर्तनों में देखे जा सकते हैं। सामाजिक स्तर पर आर्य- अनार्य, ब्राह्मण- क्षत्रिय, परंपरागत वर्ण व्यवस्था एवं विभिन्न जातियों में परस्पर संघर्ष की कल्पना की जा सकती है।

वैदिक धर्म नितांत प्रवृत्ति मार्गी था, वैदिक आर्य  सदैव श्रेष्ठ धन तथा ऐश्वर्य की कामना करते थे। इस विचारधारा के प्रति विरोध का आभास समाज के एक प्रबुद्ध वर्ग में ऋग्वैदिक काल से ही देखने को मिलता है।

जैन बौद्ध धर्म के उत्थान से पूर्व अनेक मतमतांतरों का उदय हो रहा था। लेकिन यह युग मुख्य रूप से निवृत्ति मार्गी विचारधारा से भरा दिखाई देता है। इस युग में सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक परिवर्तन हुए।जहाँ कुछ लोगों ने सहज आध्यात्मिक प्रेरणा से निवृत्ति मार्गी धर्म को स्वीकार किया , वहीं अन्य लोगों ने सामाजिक हीनता, आर्थिक कठिनाईयों से मुक्ति पाने का मार्ग अपनाया।

कठिन सामाजिक तथा आर्थिक कठिनाईयों से त्रस्त लोगों का ऐसे धार्मिक आंदोलनों की ओर आकर्षित होना स्वाभाविक था, जिससे इन कठिनाईयों से मुक्ति के उपाय निहित थे।

बुद्ध तथा महावीर स्वामी के अलावा इस युग में कई चिंतक और भी हुये, जिन्होंने इस धार्मिक आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

बौद्ध ग्रंथों के अनुसार इस काल में 62 धार्मिक सम्प्रदाय अस्तित्व में थे ।तथा जैन ग्रंथों(सूत्र कृतांग) के अनुसार इस युग में कुल धार्मिक संप्रदायों की संख्या 363 थी।

  • अजित केशकंबीलन-

ये भारत के सबसे पहले भौतिकवादी चिंतक थे। इनका मानना था कि अच्छे व बुरे कर्मों  का कोई फल नहीं होता। इनका मानना था कि प्रत्येक घटना अपने स्वभाव के अनुरूप होती है। अतः जो इच्छा हो वो करो। इसे इच्छावादी भी कहा गया।

  • चार्वाक-

ये लोकायत दर्शन के प्रतिपादक थे।

  • पुरण कश्यप-

इनका मानना था कि न तो कर्म होता है तथा न पुनर्जन्म। दर्शन की नींव इन्होंने ही डाली थी। आत्मा शरीर से पृथक है। इनका संप्रदाय मक्खलिगोशाल के संप्रदाय में वलयी हो गया था।

  • मक्खली गोशाल-

ये 6 वर्षों तक महावीर स्वामी के साथ रहे। फिर आजीवक संप्रदाय की स्थापना की। इनका मानना था कि आत्मा को अनेक पुनर्जन्मों के पूर्व निर्धारित अटल चक्र से गुजरना पङता है फिर प्रत्येक जन्म में वह शरीर से संबंधित होता है। वह होगा ही, चाहे उसके कर्म कैसे भी हों । उन्हें नियतिवादी कहा जाता है। बिंदुसार ने इस धर्म को संरक्षण दिया । अशोक एवं दशरथ ने इसे गुफाएं दान में दी।

  • कात्यायन-

यह भी नियतिवादी थे। कात्यायन भी कर्म व पुनर्जन्म में विश्वास नहीं रखते थे। उनके विचार में सात वस्तुएं – पृथ्वी, जल,  वायु, सुख, दुख, तथा जीव न तो पैदा किए जा सकते और न ही नष्ट ।

  • संजय वेलट्टपुत्त –

इन्हें अनिश्यवादी माना जाता है। इनका मानना था कि “न तो यह कहा जा सकता है कि स्वर्ग है या नरक है”, या फिर” ये दोनों ही नहीं है।”

  • चार्वाक –

इन्हें बृहस्पति का शिष्य माना जाता है। इन्होंने बृहस्पति सूत्र (ग्रंथ) लिखा था। ये भौतिकवादी दार्शनिक थे। इनका मानना है कि प्रत्यक्ष अनुभव ही एक मात्र ज्ञान का साधन है।

संभवतः इन अतिवादी तथा सामाजिक नैतिकताविहीन चिंतन में कार्य कारण संबंधी प्रकृति के नियम की धारणा कार्य कर रही थी, जिससे इस विचार का विकास हुआ। प्रकृति में सदैव कार्य कारण संबंध कार्यकरत है। जिसे न ईश्वर ही बदल सकता है तथा न ही कर्मकाण्ड या यज्ञों से ऐसा संभव है।

आज ये सभी अंतर्विरोधी धर्म एक बङे धर्म हिन्दू धर्म के तहत संगठित होकर भारत निर्माण में कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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