इतिहासऔरंगजेबमध्यकालीन भारतमुगल काल

औरंगजेब के समय हुये विद्रोह

अन्य संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्य-

जाटों का विद्रोह-

औरंगजेब के खिलाफ पहला संगठित विद्रोह आगरा और दिल्ली क्षेत्र में बसे जाटों ने किया। इस विद्रोह की रीढ अधिकतर किसान और काश्तकार थे किन्तु नेतृत्व मुख्यतः जमीदारों ने किया।

जाटों का विद्रोह आर्थिक कारणों को लेकर शुरू हुआ इस विद्रोह को सतमानी आंदोलन का समर्थन प्राप्त था।

1669ई. में मथुरा क्षेत्र के जाटों ने एक स्थानीय जमीदार गोकुला के नेतृत्व में पहला हिन्दू विद्रोह किया। तिलपत के युद्ध में मुगल फौजदार हसन अली खाँ ने जाटों को परास्त किया और गोकुला को बंदी बनाकर मार डाला।

1685ई. में राजाराम के नेतृत्व में जाटों ने दूसरा जाट विद्रोह किया। यह विद्रोह अधिक संगठित था। इस युद्ध में जाटों ने छापामार हमलों के साथ – साथ लूटमार की नीति अपनायी।

राजाराम ने सिकंदरा में स्थित अकबर के मकबरे को लूटा था और मकबरे से अकबर की हड्डियाें को निकाल कर जला दिया था।

1688 ई. में राजाराम की मृत्यु के बाद इसके भतीजे चूरामन ने जाट नेतृत्व की बागडोर संभाली और औरंगजेब की मृत्यु तक विद्रोह करता रहा। अंत में उसने मथुरा के निकट भरतपुर नामक एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की।

सतनामी विद्रोह-

1672 ई. में किसानों और मुगलों के बीच मथुरा के निकट नारनौल नामक स्थान पर एक युद्ध हुआ जिसका नेतृत्व सतनामी नामक एक धार्मिक संप्रदाय ने किया था।

सतनामी अधिकतर किसान, दस्तकार तथा नीची जाति के लोग थे। सत्य एवं ईश्वर में विश्वास रखने के कारण वे अपने को सतनामी पुकारते थे। वे अपने संपूर्ण शरीर के बालों को मूँङकर रखते थे। इसी कारण उन्हें मुंडिया भी कहा जाता था।

सतनामी विद्रोह की शुरूआत एक सतनामी और एक मुगल सैनिक अधिकारी के बीच झगङे को लेकर हुई। इस विद्रोह को दबाने में स्थानीय हिन्दू जमींदारों (जिनमें अधिकरतर राजपूत थे) ने मुगलों का साथ दिया था।

सतनामी वैरागियों के एक पंथ था। इस पंथ की स्थापना 1657ई. में नारनौल नामक स्थान पर हुई थी। शुद्ध अद्वैतवाद में उनका विश्वास था।

अफगान विद्रोह-

1667 ई.में युसुफजई कबीले ( पश्चिमोत्तर क्षेत्र में स्थित ) के एक सरदार भागू ने एक प्राचीन शाही खानदान का वंशज होने का दावा करने वाले एक व्यक्ति मुहम्मदशाह को राजा और स्वयं को उसका वजीर घोषित करके विद्रोह कर दिया। अमीर खाँ के नेतृत्व में मुगलों द्वारा इस विद्रोह को दबाया गया।

1672ई. में अफगानों ने अफरीदी सरदार अकमल खाँ के नेतृत्व में  फिर विद्रोह का झंडा बुलंद कर दिया। उसने स्वयं को राजा घोषित किया।उसने अपने नाम का खुतबा पढवाया तथा सिक्का चलवाया।

1675 ईं में औरंगजेब ने स्वयं जाकर शक्ति और कूटनीतिक प्रयासों द्वारा अफगानों की एकता तोङी और शांति स्थापित की।

अफगान विद्रोह का कारण पृथक अफगान राज्य की स्थापना का उद्देश्य था।इस विद्रोह को रोशनाई नामक धार्मिक आंदोलन ने पृष्ठभूमि प्रदान की थी।

बुंदेलों का विद्रोह-

मुगलों और बुंदेलों के बीच पहली बार संघर्ष मधुकर शाह के समय शुरू हुआ।

उत्तराधिकार के युद्ध में दारा से बदला लेने के लिए चंपतराय (ओरछा का शासक) ने औरंगजेब का साथ दिया था औरंगजेब ने उसे पंचहजारी मनसब और एक सम्मान-सूचक खिदाब दिया था। किन्तु किसी बात पर चंपतराय ने 1661ई. में मुगलों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। पराजित होने के बाद उसने आधिपत्य स्वीकार करने के स्थान पर आत्महत्या कर ली।

चंपतराय की मृत्यु के बाद उसके पुत्र छत्रसाल ने औरंगजेब के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया। यद्यपि उसने पुरंदर की संधि तथा बीजापुर घेरे के दौरान औरंगजेब की सराहनीय सेवा की थी।

1705 ई. में छत्रसाल ने औरंगजेब से संधि कर ली।फलस्वरूप उसे 400 का मनसब और राजा घोषित किया गया।

1707ई. में औरंगजेब की मृत्यु के बाद बुंदेलखंड का स्वतंत्र शासक बन गया।

औरंगजेब के समय मुगलों का असम के अहोमों के बीच लंबा संघर्ष हुआ, मीरजुमला के नेतृत्व में मुगल सेना ने अहोमों पर आक्रमण कर उन्हें संधि के लिए मजबूर किया(1663ई.)।

1671ई. में अहोमों ने अपने इलाके मुगलों से दोबारा छीन लिया।

शाहजादा अकबर का विद्रोह-

मेवाङ के शासक तथा मारवाङ के राठौरों से सहयोग का आश्वासन पाकर शाहजादा अकबर ने 11जनवरी, 1681 को अपने को स्वतंत्र बादशाह घोषित कर दिया।

शाहजादा अकबर ने 1681ई. में अजमेर के निकट औरंगजेब पर आक्रमण कर दिया। असफल होकर वह शंभा जी के पास सहायता के लिए पहुँचा किन्तु औरंगजेब के दक्षिण पहुँच जाने के कारण वह फारस भाग गया और वहीं उसकी मृत्यु हो गयी।

पुर्तगालियों का दमन-

1686ई. में औरंगजेब ने अंग्रेजों को हुगली में परास्त कर उन्हें  बाहर खदेङ दिया।

सिक्ख विद्रोह-

औरंगजेब के खिलाफ बगावत करने वालों में सिक्ख अंतिम थे। यग औरंगजेब के काल का एक मात्र विद्रोह था जो धार्मिक कारणों से हुआ था।

औरंगजेब के खिलाफ सिक्खों का विद्रोह प्रत्यक्ष रूप से 1675 ई. में गुरू तेग बहादुर को प्राणदंड दिये जाने के बाद शुरू हुआ।

गुरू तेग बहादुर की मृत्यु के बाद गुरू गोविंद सिंह ने औरंगजेब की धर्मांध नीतियों का लगातार विरोध किया। उन्होंने मखोवल या आनंदपुर में अपना मुख्यालय बनाया।

गुरू गोवंद सिंह ने अपनी मृत्यु से पहले ही गुरू की गद्दी को समाप्त कर दिया था। और सिक्खों को एक कट्टर संप्रदाय बनाने में सफलता प्राप्त की।

गुरू गोविंद सिंह ने पूरक ग्रंथ को संकलित किया जिसका नाम दसवें बादशाह का ग्रंथ रखा गया।

औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसके पुत्र बहादुर शाह प्रथम ने सिंहासन पर अधिकार करने के लिए अपने भाइयों के खिलाफ गुरू गोवंद सिंह से सहायता माँगी। जिसके कारण वे दक्षिण गये और वहाँ पर गोदावरी नदी के किनारे नादिर नामक स्थान पर एक अफगान ने छुरा मारकर घायल कर दिया।

दो माह बाद उन्होंने अपना अंत समय निकट जानकर अपने शरीर को 7 अक्टूंबर, 1708ई. को चिता को सौंप दिया।

1704ई. में गुरू गोविंद सिंह ने औरंगजेब के पास – जफरनामा भेजा था।

इस प्रकार औरंगजेब की धर्मांध एवं अदूरदर्शिता पूर्ण नीति ने सिक्खों के एक धार्मिक संप्रदाय को एक लङाकू एवं सैनिक संप्रदाय के रूप में बदल दिया।

कश्मीर के पुराने प्रशासक सैफ खाँ को पुलों के निर्माणकर्त्ता के रूप में याद किया जाता है।

इस प्रकार अपनी अदूरदर्शिता पूर्ण नीतियों के खिलाफ हुये विद्रोहों तथा दक्कनी राज्यों एवं मराठों का दमन करते हुये 3 मार्च 1707ई. को अहमदनगर के पास औरंगजेब की दुखद मृत्यु हो गई।

औरंगजेब के शव को दौलताबाद से 4 किमी. दूर स्थित फकीर बुरहानुद्दीन (शेख जैन-उल-हक) की कब्र के अहाते में दफना दिया गया।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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