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बाल गंगाधर तिलक का राष्ट्रीय आंदोलन में योगदान

बाल गंगाधर तिलक (Bal Gangadhar Tilak)का जन्म 23 जुलाई,1856 को महाराष्ट्र (Maharashtra)के रत्नगिरी में एक चितपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था।उनके पिता का नाम गंगाधर रामचंद्र शुक्ल (Gangadhar Ramchandra Shukla)था, जो संस्कृत के विद्वान थे।

बालगंगाधर तिलक जब 17 वर्ष के थे उनके पिता का देहांत हो गया। उन्होंने जनहित के कार्यों में लगे रहने तथा सरकारी नौकरी न करने का निश्चय किया और अपने मित्र गोपाल गणेश आगरकर के साथ मिलकर एक अँग्रेजी स्कूल स्थापित किया।

1881 ई. में केसरी( kesaree ) का संपादन आगरकर तथा मराठा (Maratha)का संपादन स्वयं तिलक ने किया था।केसरी ने लोगों को राजनीतिक शिक्षा देने तथा मराठा ने लोगों के विचारों को सरकार तक पहुँचाने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया।

तिलक और उनके समकालीन राजनीतिज्ञों में मौलिक मतभेद थे। भारतीय नेता पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति (Western Civilization and Culture)को श्रेष्ठ मानते थे और अपनी सभ्यता और संस्कृति में उनका विश्वास समाप्त होता जा रहा था।

तिलक पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति की प्रधानता को समाप्त कर लोगों को भारत के प्राचीन गौरव का अनुभव कराना चाहते थे। उस समय लोगों पर अँग्रेजी नैतिक उच्चता की भी छाप थी और इसलिए वे अँग्रेजी साम्राज्य के प्रति सहयोग की नीति अपना रहे थे।

लेकिन तिलक इस अँग्रेजी नैतिक उच्चता के मोहजाल को काटना चाहते थे। अतः वे भारतीय नायकों के जीवन से लोगों को प्रेरणा देना चाहते थे, जो अँग्रेजी चिंतन प्रणाली से मुक्ति प्रदान करने में सहायक हो।

उन्होंने शिवाजी(Shivaji) के औरंगजेब(Aurangzeb) के साथ संघर्ष को एक विदेशी सत्ता के विरुद्ध संघर्ष बताया और महाराष्ट्र में उन्होंने शिवाजी उत्सव मनाने की प्रथा आरंभ की। इसी कारण अंग्रेज लेखकों ने उन पर मुस्लिम विरोधी होने का आरोप लगाया है किन्तु वास्तव में उनका उद्देश्य साम्प्रदायिक नहीं था। शिवाजी के जीवन से प्रेरणा लेकर महाराष्ट्र के लोगों को जागृत करना था।

इसी प्रकार उन्होंने गणपति उत्सव को भी राष्ट्रीय जागृति में सहायक बनाया।गणपति उत्सव के अवसर पर उन्हें राजनीतिक भाषणों द्वारा लोगों को राजनीतिक शिक्षा का कार्य किया।

बालगंगाधर तिलक और महाराष्ट्र के समाज सुधारकों में भी मौलिक मतभेद थे।वे राजनीतिक स्वाधीनता के समक्ष सामाजिक सुधारों को गौण समझते थे। वे इस बात से सहमत नहीं थे कि हमारी सामाजिक रूढिवादिता के कारण राजनीतिक पराधीनता हुई है।

उन्होंने श्रीलंका, बर्मा और आयरलैण्ड का उदाहरण देते हुए कहा कि वहाँ सामाजिक स्वतंत्रता होते हुए भी राजनीतिक पराधीनता थी। तिलक ने किसी बाहरी संस्था या सरकार द्वारा समाज सुधार किये जाने का विरोध किया।

सरकारी अधिनियमों द्वारा समाज सुधार को वे अनुचित मानते थे। इन विचारों के कारण ही अँग्रेज लेखकों ने तिलक को रूढिवादी और प्रतिक्रियावादी कहा है।किन्तु ये आरोप निराधार हैं, क्योंकि उन्होंने इंडिया स्पेशल कांफ्रेंस के वार्षिक अधिवेशनों में बाल विवाह के विरुद्ध प्रस्ताव रखे।तिलक ने विधवा विवाह के पक्ष में अपना प्रस्ताव रखा।

तिलक का कहना था कि समाज में जो भी सुधार हो रहे हैं उनकों पहले अपने जीवन में अपनाना चाहिये। बाद में समाज पर लागू करना चाहिये।

तिलक ने स्पष्ट घोषणा की कि समाज सुधार में वेदेशी सत्ता का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिये। क्योंकि विदेशी सत्ता द्वारा अधिनियम बना देने मात्र से समाज सुधार संभव नहीं है।इसलिए ब्रिटिश सरकार ने 1890-91 में जब सहवास-वय विधेयक प्रस्तुत किया तो तिलक ने इस विधेयक का घोर विरोध किया।

तिलक पर मुकदमा और सजा-

बालगंगाधर तिलक की राजनीतिक विचारधारा अन्य समकालीन विचारकों से भिन्न थी।वे भारतीयों के लिए प्रशासन से संबंध होने का अधिकार माँगते थे, बल्कि भारत में स्वराज्य एक अधिकार के रूप में प्राप्त करना चाहते थे।

1897 में महाराष्ट्र में भीषण अकाल पङा और फिर प्लेग फैल गया।सरकार ने इसकी रोकथाम के लिए बहुत ही धीमी कार्यवाही रखी। सरकार के रवैये से आतंकित होकर पूना के प्लेग कमीशनर रैण्ड(Rand) तथा एक अन्य अँग्रेज अधिकारी आयर्स्ट ( aayarst )की हत्या कर दी गई।

अँग्रेज सरकार ने तिलक पर हिंसा भङकाने का आरोप लगाकर उन्हें 18 महीने की कङी सजा दे दी।तिलक को दी गई सजा की सर्वत्र निंदा की गई।

तिलक को सजा देने से उनकी कीर्ति शिखर पर पहुँच गई।तिलक की सजा भारतीय संघर्ष के इतिहास में अत्यधिक महत्त्व रखती है, क्योंकि इससे पहले किसी पर राजद्रोह के आरोप में मुकदमा नहीं चला था।

अँग्रेजी सरकार की चुनौती से आत्म-विश्वास,त्याग,बलिदान और कष्ट सहन करने के नये अध्याय का श्रीगणेश हुआ।

तिलक और काँग्रेस का विभाजन-

काँग्रेस में प्रविष्ट होकर तिलक ने काँग्रेस के स्वरूप को ही बदलने का निश्चय किया। 1896 से ही वे काँग्रेस को इस बात के लिए प्रेरित करते रहे कि वह मजबूती दिखाये। किन्तु काँग्रेस के कुछ नेता वैधानिक आंदोलनों तथा सविनय प्रार्थना की नीति का अवलंबन कर सरकार के प्रति नरमी दिखा रहे थे।

किन्तु तिलक ने कहा, मैं जानता हूँ कि हमें अपने अधिकारों के लिए माँग करनी चाहिये, पर हमें यह अनुभव करते हुए माँग करनी चाहिये कि वह माँग अस्वीकार नहीं करी जा सके।माँग प्रस्तुत करने तथा याचना करने में बहुत बङा अंतर है।

तिलक गरम-दल के नेता तथा उग्रवादी थे। उन्होंने कहा,स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा। वे उदारवादियों की भिक्षावृति के कट्टर विरोधी थे। उनकी दृढ मान्यता थी कि स्वराज्य अपने आप नहीं आयेगा वरन् अँग्रेजों को छीनना पङेगा।

अतः नरम दल और गरम दल में मतभ्द बढता गया और 1907 में सूरत के काँग्रेस अधिवेशन में यह मतभेद चरम बिन्दु तक पहुँच गया।अतः विवश होकर उन्हें नरम-दलीय काँग्रेस को छोङना पङा।

अँग्रेज सरकार ने काँग्रेस की इस फूट का लाभ उठाया तथा 1908 में तिलक पर पुनः राजद्रोह का आरोप लगाकर कैद कर लिया और छः वर्ष के कारावास की सजा दी गई।1908 से 1914 तक वे बर्मा के मांडले की जेल में रहे।

1914 में वे जेल से मुक्त होकर आये। उस समय प्रथम विश्व युद्ध आरंभ हो चुका था। इस अवसर पर उन्होंने अँग्रेज सरकार से सहयोग करने को कहा।1914-15 में श्रीमती एनी बेसेन्ट ने काँग्रेस के दोनों दलों में मेल करावाया।

अप्रैल,1916 में तिलक ने एनीबेसेन्ट के सहयोग से होमरूल लीग आंदोलन चलाया।होमरूल का अर्थ अँग्रेजी साम्राज्य को समाप्त करना नहीं था, बल्कि अँग्रेजी साम्राज्य के अधीन स्वायत्तता प्राप्त करना था। 1919 में उन्होंने विल्सन के आत्म निर्णय के सिद्धांत के आधार पर भारत के लिए भी इसी अधिकार की माँग की।

तिलक का विचार था कि काँग्रेस,सत्ता को चुनौती देना सीखे और स्वराज्य हासिल करने के लिए हमें कुर्बानी के लिये तैयार रहना चाहिए। किन्तु वे यह भी चाहते थे कि स्वराज्य हासिल करने के लिए लोग हिंसक बने, लेकिन शांतिपूर्ण तरीके प्रभावशाली सिद्ध न होने पर हिंसात्मक तरीके अपनाने में कोई भी हानि नहीं है।

1914 में जब तिलक कारावास से मुक्त होकर आये, तब नरम-दल वाले तिलक वे उनके गरम दल का मुकाबला न कर सके । गरम दल वालों ने विवश होकर लिबरल फेडरेशन नामक संगठन की स्थापना की।इसी के साथ गरम काँग्रेस पर गरम-दल का प्रभाव स्थापित हो गया।तिलक ने काँग्रेस को ब्रिटिश साम्राज्य का विद्रोही बना दिया।

बाल गंगाधर तिलक एक महान विद्वान के रूप में –

तिलक न केवल कुशल राजनेता एवं राष्ट्र धर्म के उपासक ही थे, बल्कि महान् विद्वान भी थे।

मांडले जेल में उन्होंने गीता रहस्य तथा आर्कटिक होम इन द् वेदाज नामक पुस्तकें लिखी।

वे पहले काँग्रेसी नेता थे, जिन्होंने सुझाव रखा कि देवनागरी लिपि में लिखी हुई हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा हो।

तिलक ने कहा था, सामान्य लिपि राष्ट्रीय आंदोलन का एक अविभाज्य अंग है। सारे भारत में एक ही राष्ट्रभाषा होनी चाहिए।यदि आप किसी राष्ट्र को एक रखना चाहते हैं, तो सबके लिए एक सामान्य भाषा से बढकर कोई बङा बल नहीं है।

तिलक के भाषणों में आग होती थी, क्योंकि वे सरकार की बेधङक होकर आलोचना करते थे। इसलिए अँग्रेजों ने उन्हें भारतीय अशांति का पिता कहा। उन्हें अँग्रेज सरकार और अपने राजनीतिक विरोधियों दोनों से लङना पङा था।

काँग्रेस के सूरत अधिवेशन के बाद कुछ लोगों ने उन्हें काँग्रेस को तोङने वाला कहा, किन्तु इस घटना से जितना दुःख तिलक को हुआ, उतना किसी और को नहीं।

देश में जब ब्रिटिश सरकार से असहयोग करने की चर्चा चल रही थी, उस समय 1 अगस्त,1920 को इस महान् विभूति का देहांत हो गया। तिलक का नाम राष्ट्र-निर्माता के रूप में सदा अमर रहेगा और भारतवासी उन्हें तब तक कृतज्ञतापूर्वक याद करते रहेंगे, जब तक देश में अपने भूतकाल पर अभिमान और भविष्य के लिए आशा बनी रहेगी।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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