मध्यकालीन भारतइतिहासउत्तर भारत और दक्कन के प्रांतीय राजवंश

बहमनी साम्राज्य इतिहास क्या था

बहमनी साम्राज्य – दक्कन में अमीरान-ए-सदह के विद्रोह के परिणाम स्वरूप मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल के अंतिम दिनों में बहमनी साम्राज्य की  स्थापना हुई।

बहमनी साम्राज्य के शासक-

  • जफर खाँ( 1347-1358ई.)- जफर खाँ नामक सरदार अलाउद्दीन हसन बहमनशाह की उपाधि धारण करके 1347ई. में सिंहासनारूढ हुआ और बहमनी साम्राज्य की नींव डाली। उसने गुलबर्गा को अपने नव संस्थापित साम्राज्य की राजधानी बनाया तथा उसका नाम अहसानाबाद रखा। अपने साम्राज्य के शासन के लिए उसने इसे चार तरफों अथवा प्रांतों में विभाजित कर दिया- गुलबर्गा, दौलताबाद, बरार, बीदर। प्रत्येक प्रान्त एक शासक के अधीन था। गुलबर्गा का तरफ सबसे महत्वपूर्ण था। इसमें बीजापुर सम्मिलित था। दक्षिण के हिन्दू शासकों को उसने अपने अधीन किया तथा अपने अनुयायियों को पद और जागीर प्रदान करने की नयी प्रथा प्रारंभ की। उसने हिन्दुओं से जजिया न लेने का आदेश दिया।अपने शासन के अंतिम दिनों में बहमनशाह ने दाबुल पर अधिकार किया जो पश्चिमी समुद्र तट पर बहमनी साम्राज्य का सबसे महत्वपूर्ण बंदरगाह था। कहा जाता है कि वह अपने को अर्द्धपौराणिक ईरानी योद्धा बहमनशाह का वंशज मानता है किन्तु लोक श्रुतियों के अनुसार बहमनशाह उसके ब्राह्मण आश्रयदाता के प्रति आदर का प्रतीक था।
  • मुहम्मदशाह प्रथम – उसने  शासन का कुशल संगठन किया। उसके काल की मुख्य घटना विजयनगर तथा वारंगल से युद्ध तथा विजय थी। इसी काल में बारूद का प्रयोग पहली बार हुआ जिससे रक्षा संगठन में एक नई क्रांति पैदा हुई। सेना के सेनानायक को अमीर-ए-उमरा कहा जाता था और उसके नीचे बारबरदान होते थे।
  • ताजुद्दीन फिरोजशाह ( 1397-1422ई.)- यह बहमनी वंश के सर्वाधिक विद्वान सुल्तानों में से एक था। उसने एशियाई या अफाकियों को बहमनी साम्राज्य में आकर स्थायी रूप से बसने के लिए किया। जिसके परिणामस्वरूप बहमनी अमीर वर्ग अफीकी और दक्कनी दो गुटों में विभाजित हो गया। यह दलबंदी बहमनी साम्राज्य के पतन और विघटन का मुख्य कारण सिद्ध हुआ। फिरोजशाह बहमनी का सबसे अच्छा कार्य प्रशासन में बङे स्तर पर हिन्दुओं को सम्मिलित करना था, कहा जाता है , इसी समय से दक्कनी ब्राह्मण प्रशासन में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करने लगे। उसने दौलताबाद में एक बेधशाला बनवाई। सुल्तान ताजुद्दीन फिरोज द्वारा पश्चिम एशियाई देशों जैसे – ईराक, ईरान एवं अरब देशों से विदेशी मुसलमानों को भी आमंत्रित किया और उन्हें प्रशासन में उच्च पद दिया। उसने अकबर के फतेहपुर सीकरी की भाँति भीमा नदी के किनारे फिरोजाबाद नगर की नींव डाली । गुलबर्गा युग के सुल्तानों में यह अंतिम सुल्तान था। इसका शासन काल गुलबर्गा के संत गेसूदराज के साथ संघर्ष के कारण दूषित हो गया।
  • शिहाबुद्दीन अहमद प्रथम(1422-1446ई.)-  उसने सर्वप्रथम गुलबर्गा के स्थान पर बीदर को अपनी राजधानी बनाया। बहमनी साम्राज्य की इस नवीन राजधानी को मुहम्मदाबाद नाम दिया गया।इसके शासन काल में इस दलगत राजनीति (दक्कनी एवं अफाकी) ने साम्प्रदायिक रूप ले लिया, क्योंकि सुल्तान ने ईरान से शिया संतों को भी आमंत्रित किया। खुरासान में स्थित इस्फरायीन का कवि शेख आजरी उसके दरबार में आया था। उसका शासन काल न्याय एवं धर्म निष्ठता के लिए  प्रख्यात था। इसलिए उसे इतिहास में अहमदशाहवली या संत अहमद भी कहा जाता है।
  • अलाउद्दीन अहमद द्वितीय( 1436-1458ई.)- सुल्तान अलाउद्दीन अहमद अपने पिता अहमद प्रथम की भाँति योग्य एवं संकल्प युक्त शासक नहीं था । उसके शासन काल में अफाकियों के आगमन पहले से कहीं अधिक बढ गये। इसी के काल में ईरानी (अफाकी) निवासी महमूद गवाँ का उत्कर्ष हुआ। वह पहले एक व्यापारी था। उसे व्यापारियों के प्रमुख ( मलिक उत् तुज्जार) की उपाधि मिली। इसी काल में उङीसा के गजपति नरेशों की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा का सूत्रपात हुआ और दक्षिण की ओर उनके विस्तारवाद के परिणामस्वरूप बहमनी एवं गजपति सेनाओं से कई बार युद्ध हुआ। फरिश्ता एवं बुरहाने – मुआसिर के लेखक से हमें ज्ञात होता है कि “उसने मस्जिदों, सार्वजनिक विद्यालयों एवं दातव्य संस्थाओं की स्थापना की, अपनी राजधानी बीदर में एक अस्पताल का निर्माण भी करवाया। उसने वहाँ दो सुन्दर गाँव धार्मिक दान के रूप में दिये थे ताकि इन गाँवों के राजस्व को पूर्णतया दवाओं एवं पेय पदार्थों की आपूर्ति में लगाया जा सके।
  • हुमायूँ-अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र हुमायूँ शासक बना। वह इतना निष्ठुर था कि उसे जालिम की उपाधि दी गई । इसे दक्कन का नीरो भी कहा जाता है। उसने महमूद गवाँ को अपना प्रधानमंत्री बनाया था। इसकी मृत्यु के समय इसके ज्येष्ठ पुत्र निजामुद्दीन अहमद की आयु केवल आठ वर्ष की थी। इस कारण हुमायूँ ने अपने जीवनकाल में ही एक प्रशासनिक परिषद की स्थापना की। जिसमें राजमाता, महमूद गवाँ सहित चार व्यक्ति थे।
  • महमूद तृतीय ( 1463-1482ई.)- राज्यरोहण के समय मुहम्मद तृतीय की आयु केवल नौ वर्ष की थी। महमूद गवाँ इसका प्रधानमंत्री था। उसके शासन काल में ख्वाजा जहाँ की मृत्यु हो गई। तत्पश्चात महमूद गवाँ को ख्वाजा जहाँ की उपाधि प्रदान की गई। महमूद गवाँ ने अपरमित राजभक्ति से बहमनी राज्य की सेवा की तथा कुशल कूटनीति व सैनिक नेतृत्व से उसे ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया।इसके शासनकाल में रूसी यात्री निकितन बहमनी राज्य की यात्रा पर आया। उसने बहमनी शासन में जनसाधारण की दशा का वर्णन अपने लेख में किया है।

बहमनी साम्राज्य का पतन –

महमूद गवाँ की मृत्यु के दो दशक के भीतर बहमनी साम्राज्य का तीव्र गति से पतन आरंभ हो गया। शिहाबुद्दीन महमूदशाह के शासनकाल (1482-1518ई.) में प्रांतीय तरफदारों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित करना आरंभ कर दिया और पन्द्रहवीं शताब्दी के अंत तक बहमनी साम्राज्य खण्डित हो गया। महमूद शाह और उसके उत्तराधिकारी एक तुका सरदार (विदेशी) अमीर अली बरीद के हाथों की कठपुतली मात्र थे। जो इन सुल्तानों के शासन काल में साम्राज्य का वजीर था। इस वंश का अंतिम सुल्तान कलीमुल्लाशाह था । 1527ई. में उसकी मृत्यु के बाद बहमनी साम्राज्य का अंत हो गया। सुल्तान शिहाबुद्दीन महमूद कासिम बरीद को वजीर या प्रधानमंत्री नियुक्त करने के बाद बहमनी साम्राज्य का विघटन हो गया और उसके स्थान पर पाँच नवीन राजवंशों का उदय हुआ । इनके नाम इनके संस्थापकों की उपाधियों पर थे- 1.) बीदर का बरीदशाही 2.) बरार का इमादशाही 3.) अहमद नगर का निजामशाही 4.) बीजापुर का आदिलशाही  5.) गोलकुण्डा का कुतुबशाही।

इमादशाही तथा निजामशाही राजवंशों के संस्थापक हिन्दू से इस्लाम धर्म स्वीकार करने वाले दक्कनी लोग थे।

महमूद गवाँ-

  • प्रशासनिक परिषद के सदस्य एवं सुल्तान हुमायूँ के शासन काल में प्रधानमंत्री के रूप में महमूद गवाँ बहमनी साम्राज्य की राजनीतिक समस्याओं का निराकरण कर उसे बहमनी साम्राज्य को उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया।
  • सबसे पहले उसने मालवा पर अधिकार किया। उसकी सबसे महत्वपूर्ण सैनिक सफलता गोवा पर अधिकार प्राप्त करना थी। गोवा पश्चिमी समुद्री तट का सर्वाधिक प्रसिद्ध बंदरगाह था। यह विजयनगर का संरक्षित राज्य था। महमूद गवाँ ने नवविजित प्रदेशों सहित भूतपूर्व चार प्रांतों (तरफों) को अब आठ प्रांतों में विभाजित किया– बरार को गाविल और माहुर, गुलबर्गा को बीजापुर  एवं गुलबर्गा, दौलताबाद को दौलताबाद एवं जुन्नार तथा तेलंगाना को राजमुद्री और वारंगल के रूप में विभाजित किया। उसने प्रांतों से थोङी-2 जमीन लेकर उसे खालसा भूमि में परिवर्तित किया। इसके अतिरिक्त प्रान्तीय गवर्नरों के सैनिक अधिकारों में भी कटौती की अब पूरे प्रांत में केवल एक किले को ही प्रत्येक गवर्नर के अधीन रहने दिया गया। महमूद गवाँ ने भूमि की पैमाइश, ग्रामों के सीमा निर्धारण और लगान – निर्धारण की जाँच कराई।
  • महमूद गवाँ  बङा साहित्यिक एवं सास्कृतिक सुरुचि सम्पन्न व्यक्ति था। वह विद्वानों का महान संरक्षक था। उसने बीदर में एक महाविद्यालय की स्थापना की। महमूद गवाँ ने अपनी राजनीतिक गतिविधियों को न केवल बहमनी साम्राज्य तक सीमित किया अपितु उसके बाहर ईरान, ईराक, मिस्र, तथा टर्की के सुल्तानों के साथ पत्र व्यवहार किया। किन्तु इस महान व्यक्ति का अंत दुखद रहा। 1481-82ई. में मुहम्मद तृतीय ने इसे राजद्रोह के आरोप में फाँसी दे दी। इसका मुख्य कारण अफाकियों एवं दक्कनियों के मध्य शत्रुता थी।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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