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भारत सरकार अधिनियम 1935 की विशेषताएँ क्या थी

भारत सरकार अधिनियम 1935 की विशेषताएँ

भारत सरकार अधिनियम 1935 की विशेषताएँ

1935 के अधिनियम(Act of 1935) द्वारा अखिल भारतीय संघ की स्थापना की गई तथा केन्द्र में द्वैध शासन स्थापित किया गया। गवर्नर-जनरल को कुछ विशेष अधिकार देकर संघीय व्यवस्थापिका को शक्तिहीन बना दिया गया।मुस्लिम लीग ने प्रांतीय स्वायत्तता की माँग पर जोर दिया था, ताकि मुस्लिम बहुमत वाले प्रांतों में वे स्वतंत्र और केन्द्र से मुक्त रह सकें।

अतः इस अधिनियम में प्रांतों को पूर्ण स्वायत्तता प्रदान की गई।कांग्रेस तथा अन्य दल इस अधिनियम से संतुष्ट नहीं हुए। देशी रियासतों के शासकों ने संघ योजना के प्रति कोई रुचि नहीं दिखाई। अतः इस अधिनियम का संघीय भाग लागू नहीं हो सका।

प्रांतीय स्वायत्तता का इतना विरोध नहीं हुआ था, अतः इस अधिनियम को प्रांतीय क्षेत्रों में 1 अप्रैल, 1937 में लागू कर दिया गया।तदनुसार प्रांतों में चुनाव कराये गये, फलस्वरूप छः प्रांतों(बंबई,मद्रास,बिहार,उङीसा, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रांत) में कांग्रेस को बहुमत प्राप्त हुआ। तीन प्रांतों (बंगाल,असम और उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत ) में कांग्रेस को सबसे अधिक स्थान प्राप्त हुए तथा दो प्रांतों (पंजाब एवं सिंध ) में कांग्रेस को नहीं के बराबर स्थान प्राप्त हुये।

1935 का अधिनियम की विशेषताएँ ( 1935 ka adhiniyam kee visheshataen )

  • 1935 के अधिनियम द्वारा सर्वप्रथम भारत में संघात्मक सरकार की स्थापना की गयी।
  • इस संघ को ब्रिटिश भारतीय प्रांत कुछ भारतीय रियासतें जो संघ में शामिल होना चाहती थी, मिलकर बनाया गया था।
  • 1935 के अधिनियम द्वारा प्रांतों में द्वैध शासन समाप्त करके केन्द्र में द्वैध शासन लागू किया गया।
  • केन्द्रीय सरकार की कार्यकारिणी शक्ति गवर्नर जनरल में निहित थी।
  • संघ में प्रशासन के विषय दो भागों में विभक्त थे– 1.) हस्तान्तरित 2.) रक्षित।
  • रक्षित विषयों में प्रतिरक्षा, विदेशी मामले, धार्मिक विषय और जनजातीय क्षेत्र सम्मिलित थे।
  • बाकी सारे विषय हस्तांतरित ग्रुप में आते थे।
  • सन् 1935 के अधिनियम द्वारा प्रांतों को स्वायत्तता प्रदान की गयी।
  • प्रांतीय विषयों पर विधि बनाने का अधिकार प्रांतों को दिया गया था।
  • केन्द्रीय सरकार का कार्य एक प्रकार से संघात्मक होता था।
  • प्रांत की कार्यपालिका शक्ति गवर्नर में निहित थी तथा वह इसका प्रयोग ब्रिटिश सरकार की तरफ से करता था।
  • गवर्नर जनरल के सभी कार्य, मंत्रिपरिषद की सलाह से होते थे, जिनके लिए वह विधान सभा के प्रति उत्तरदायी थी।
  • केन्द्रीय विधान मंडल में दो सदन थे- विधानसभा तथा राज्य परिषद।
  • विधान सभा में 375 सदस्य थे, जिसमें 250 सदस्य ब्रिटिश भारतीय प्रांतों से तथा 215 सदस्य भारतीय रियासतों से होते थे।
  • विधान सभा का कार्य काल 5 वर्ष का होता था, गवर्नर जनरल को विघटित करने की शक्ति प्राप्त थी।
  • 1935 के अधिनियम द्वारा बर्मा को ब्रिटिश भारत से पृथक कर दिया गया, दो नये प्रांत सिंध और उङीसा का निर्माण हुआ।
  • राज्य परिषद् में कुल 260 सदस्य होते थे, जिनमें से 104 ब्रिटिश भारत के प्रतिनिधि, 104 भारतीय रियासतों के प्रतिनिधि होते थे।
  • राज्य परिषद एक स्थायी संस्था थी, जिसके एक तिहाई सदस्य प्रति दूसरे वर्ष अवकाश ग्रहण करते थे।
  • केन्द्रीय विधान मंडल की शक्तियां अत्यंत सीमित थी। गवर्नर-जनरल अपने विवेकानुसार एक साथ दोनों सदनों का आहूत कर सकता था, सत्रावसान कर सकता था तथा उसका विघटन भी कर सकता था।
  • उसे विधेयकों पर वोटों की शक्ति प्राप्त थी।
  • धन विधेयक पर विधानसभा की शक्ति अत्यान्तिक थी।
  • किसी विधेयक पर गतिरोध की दशा में गवर्नर जनरल संयुक्त अधिवेशन बुला सकता था।
  • सन् 1935 के अधिनियम के द्वारा कुछ प्रांतों में द्विसदनात्मक व्यवस्था की गयी थी।
  • उच्च सदन विधान परिषद तथा निम्न सदन विधान-सभा कहलाता था।
  • प्रांतों की कार्यपालिका का गठन गवर्नर तथा मंत्रिपरिषद के द्वारा होता था।
  • गवर्नर को तीन प्रकार की शक्तियां प्राप्त थी-1.) विवेकीय शक्तियां,2.)विशिष्ट उत्तरदायित्व की शक्तियां,3.) मंत्रिमंडल की सलाह से प्रयुक्त शक्तियां।
  • प्रांतीय सूची में समाविष्ट सभी विषयों पर प्रांतीय विधान मंडलों को विधि बनाने की आत्यान्तिक शक्ति थी।
  • वे समवर्ती विषयों पर भी विधि बना सकते थे।
  • वित्तीय विधेयक, गवर्नर की पूर्व अनुमति से ही पेश किये जाते थे।
  • कोई भी विधेयक, बिना गवर्नर की अनुमति के कानून नहीं बन सकता था।
  • किसी ऐसे विधेयक पर, जिसको गवर्नर की अनुमति प्राप्त थी, सम्राट उसको अस्वीकृत कर सकता था।
  • अपनी विवेकीय शक्ति एवं व्यक्तिगत निर्णय की शक्तियों के परिणाम स्वरूप गवर्नर एक तानाशाह का कार्य करता था।
  • 1935 के अधिनियम में विषयों को तीन श्रेणियों में बांटा गया था- संघ सूची, प्रांतीय सूची, समवर्ती सूची।
  • संघ सूची- इसमें कुल 59 विषय थे। अखिल भारतीय हित के विषय इसमें आते थे।
  • प्रांतीय सूची- इसमें कुल 54 विषय थे। इसमें स्थानीय महत्त्व के मुद्दे शामिल थे।
  • समवर्ती सूची- इसमें 36 विषय थे। ये विषय प्रांतीय हित के विषय थे।
  • अवशिष्ट शक्तियों पर अंतिम निर्णय गवर्नर जनरल को था कि इस पर कानून कौन बनायेगा।
  • विधियों में असंगति की स्थिति में केन्द्रीय विधि, प्रांतीय विधि पर अधिभावी थी।
  • सन् 1935 के अधिनियम के द्वारा एक संघीय न्यायालय की स्थापना की भी व्यवस्था थी।
  • फेडरल न्यायालय के विरुद्ध अपील प्रिवी कौंसिल में की जा सकती थी।
  • संघीय न्यायालय को तीन प्रकार की अधिकारिता प्राप्त थी- प्रारंभिक, अपीलीय,परामर्श दात्री।
  • प्रारंभिक अधिकारिता के अंतर्गत संघीय न्यायालय संविधान के उपबंधों का निर्वाचन करता था।
  • अपीलीय अधिकारिता के अंतर्गत संघीय न्यायालय भारत स्थित सभी उच्च न्यायलयों के विनिश्चयों से अपीलों की सुनवायी करता था।
  • संघीय न्यायालय का सिविल और दांडिक मामलों में अपीलीय अधिकारिता नहीं दी गयी थी।
  • परामर्श दात्री अधिकारिता के अंतर्गत गवर्नर जनरल को विधि एवं तथ्य के किसी विषय पर सलाह देने का अधिकार प्राप्त था।
  • नेहरू ने 1935 के अधिनियम के बारे में कहा कि, यह अनेक ब्रेकों वाला इंजन रहित गाङी के समान है। मुहम्मद अली जिन्ना ने इसे इसे पूर्णतया सङा हुआ, मूलरूप से बुरा और बिल्कुल अस्वीकृत बताया।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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