इतिहासपाषाण कालप्राचीन भारत

ताम्र पाषाण काल(3500/4000ई.पू.) ( ताम्रपाषाण संस्कृति)

  • पाषाण – ताँबा – ताँबा+टिन = कांसा – लौह
  • सबसे पहले मानव द्वारा काम में ली गई धातु – ताँबा
  • ताम्र + पाषाण  = ताम्रपाषाणिक संस्कृति इस संस्कृति में ताँबा को खोज लिया गया था, लेकिन अधिकांशत: पाषाण उपकरणों का उपयोग हो रहा था।
  • ताँबे का सर्वप्रथम प्रयोग 5000 ई.पू. में किया गया था।
  • ताम्र पाषाण काल के लोग प्रमुख रूप से ग्रामीण समुदाय के थे।
  • ताम्र पाषाण कालीन संस्कृति 3 प्रकार की थी –
    • हङप्पापूर्व
    • हङप्पा सभ्यता एवं समकालीन ताम्रपाषाण संस्कृति
    • उत्तर हङपाई ताम्रपाषाण संस्कृति
  • हङपापूर्व संस्कृति ( ताम्र पाषाणिक संस्कृति)-4000 से 2600 ई. पू.
    • सोथी संस्कृति(बीकानेर क्षेत्र)
    • झूकर – झाकर संस्कृति (सिंध क्षेत्र)
  • हङपाकालीन संस्कृति  –  2600 से 1800 ई. पू.
    • आहङ संस्कृति(राजस्थान)
    • गणेश्वर संस्कृति
    • OCM गौरिक मृदभांड संस्कृति
  • हङपा सभ्यता को कांस्ययुगीन सभ्यता भी कहा जाता है।
  • सबसे पहले कांस्य की प्राप्ति हङपा से ही हुई है।
  • उत्तर हङपा संस्कृति  – 2000 से 1400 ई. पू.
    • मालवा
    • कायथा
    • ऐरण
    • जौरवे
    • MP
    • PRW
    • BRW
    • NBP
  • भारत में ताम्र-पाषाण के मुख्य क्षेत्र दक्षिण-पूर्वी राजस्थान (अहार एवं गिलुंड) , पश्चिमी मध्य प्रदेश (मालवा,कायथा तथा एरण)।
  • पश्चिमी महाराष्ट्र में अहमदनगर के जोर्वे, नेवासा, दौमाबाद, चंदौली, सोनगांव, इनामगांव ये सभी क्षेत्र जोखे संस्कृति के हैं।
  • इस काल में मनुष्य गेहूं,धान व दाल की कृषि करने में प्रवीण हो गया था।
  • नवदाटोली के उत्खनन में सभी अनाजों के साक्ष्य मिले हैं।
  • अहार के लोग पत्थर निर्मित गृहों में रहते थे।
  • दैमाबाद में कांसे की निर्मित वस्तुएं प्राप्त हुई हैं।
  • ताम्र पाषाण के लोग वस्र-निर्माण के जानकार थे ।
  • इनामगांव में कुम्भकार,धातुकार, हाथी दांतके शिल्पी, चूना बनाने वाले, खिलौने, मिट्टी की मूर्ति(टेराकोटा) बनाने वाले कारीगरों के साक्ष्य भी मिलते हैं।
  • इस काल के लोग मातृदेवी की पूजा करते थे और वृषभ धार्मिक सम्प्रदाय का प्रतीक था।
  • 1200ई.पू.के लगभग ताम्र पाषाणिक संस्कृति विलुप्त हो गई।
  • कायथा संस्कृति 500ई.पू. तकअस्तित्व में रही।
  • ताम्र पाषाणिक बस्तियों के लुप्त होने का प्रमुख कारण अत्यल्प वर्षा माना जाता है।
  • ताम्र पाषाणिक संस्कृतियों में कायथा संस्कृति सबसे पुरानी है। यह चंबल नदी क्षेत्र में थी।
  • सभी ताम्र पाषाण समुदाय चाकों पर बने काले व लाल मृदभांडों का प्रयोग करते थे।
  • चित्रित मृदभांडो का प्रयोग सबसे पहले ताम्र पाषाणिक लोगों ने ही किया था।
  • सर्वप्रथम ताम्र पाषाण काल के लोगों ने ही प्रायद्वीपीय भारत में बङे-बङे गांव बसाए थे।
  • ताम्र पाषाण स्थलों से हल, फावङा मिले  हैं।
  • सबसे बङी ताम्र निधि मध्य प्रदेश के गुंगेरिया से प्राप्त हुई है, इसमें 424 तांबे के उपकरण 102 चांदी के पत्तर मिले हैं।
    • नवपाषाण काल 4000 ई.पू.
      • नवपाषाण काल की शुरुआत
      • ताम्रपाषाणिक संस्कृति के सबसे ज्यादा स्थल पश्चिमी महाराष्ट्र से मिले हैं।
      • ताम्रपाषाणिक संंस्कृति के प्रमुख स्थल-
      • जोरवे,दाइमाबाद, नेवासा, इनामगाँव , नासिक
  • बनास संस्कृति / आहङ संस्कृति  ( 2400ई.पू, से 1400 ई. पू.)  
    • स्थल –  आहङ, गिलूंड, बालाथल
    • आहङ 
      • 1954 में अक्षय कीर्ति व्यास ने आहङ स्थल की खुदाई की  यहाँ से जल निकासी की  व्यवस्थित स्थिति मिलती है। इस व्यवस्था को उन्होंने चक्रकूप कहा है।
      • आहङ स्थल से पत्थरों से बने मकान मिले हैं। इन मकानों में ईंटों  का प्रयोग नहीं हुआ है।
      • यहाँ से ताँबे की बङी मात्रा में उपकरण व ताम्रपिण्ड प्राप्त हुए हैं। हङपा सभ्यता को ताँबे का निर्यात आहङ से ही होता था ।
      • आहङ – को  ताम्रवती , ताम्बवती , ताम्रनगरी  भी कहा है।
      • आहङ हङपा सभ्यता का स्थल नहीं  परन्तु यह स्थल इस सभ्यता के समकालीन है।
      • आहङ से कपङों पर छपाई के ठप्पे  प्राप्त हुये हैं।
    • गिलूण्ड
      •   H.D. संकालिया ने  गिलूण्ड को बनास संस्कृति का स्थल घोषित किया है। गिलूण्ड से अग्निकुण्ड के साक्ष्य  भी मिले हैं। यहाँ से स्तंभ और प्रस्तर फलक उद्योग के साक्ष्य भी प्राप्त हुए हैं।
    • मालवा क्षेत्र ( मध्यप्रदेश )
      • स्थल – कायथा (उज्जैन), मालवा, एरण, नवदाटोली, माहेश्वर
      • कायथा संस्कृति ( 2000 ई.पू. से 1800 ई. पू. ) –
      • मालवा संस्कृति (1800ई.पू. से 1400 ई. पू. )
    • कायथा संस्कृति – 1964 ई. पू. में वी. एस. वकणकर ने कायथा  संस्कृति की खुदाई का कार्य करवाया ।
      • यहाँ से कच्ची ईंटों के बने गोलाकार मकान प्राप्त हुये हैं।
    • मालवा संस्कृति -यह संस्कृति  उत्कृष्ट प्रकार के मृदभांडों के लिए जानी जाती है। यहाँ से दूधिया स्लिप वाले लाल मृदभांड प्राप्त हुये हैं।
    • जौरवे संस्कृति ( महाराष्ट्र)- (1400ई. पू. से 700 ई.पू.)
      • स्थल – जौरवे , दाईमाबाद , ईनामगाँव , नवदाटोली , नासिक , चंदोली , प्रकाश ।
      • जौरवे संस्कृति  से टोंटीदार ताँबे के बर्तन मिले है।
      • इस स्थल से ताँबे की बनी मनुष्य द्वारा चालित रथ, हाथी , गैंडा , भैंसा  जैसी 4 कलाकृतियाँ मिली हैं।
      • इस संस्कृति का सबसे बङा स्थल दाइमाबाद था। तथा यहाँ से कांसा भी मिला है।
      • नवदाटोली से बङी संख्या में विविध प्रकार की फसलों के  सर्वाधिक साक्ष्य  मिले हैं।
      • इनामगाँव से मातृदेवी की पूजा के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं और एक बाँध  जैसी संरचना मिली है।

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