मध्यकालीन भारतइतिहासभक्ति आंदोलन

दादू दयाल कौन थे

दादूदयाल (1544-1603 ई.) हिन्दी के भक्तिकाल में ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख सन्त कवि थे।कबीर तथा नानक के साथ निर्गुण भक्ति की परंपरा में दादू का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

इनके 52 पट्टशिष्य थे, जिनमें गरीबदास, सुंदरदास, रज्जब और बखना मुख्य हैं।रज्जब का कहना है जितने  मनुष्य हैं उतने ही अधिक संप्रदाय हैं।

रज्जब ने एक और भी बात कही थी कि यह संसार वेद है यह सृष्टि कुरान है। 

इन्होंने पुस्तकीय ज्ञान का तिरस्कार न कर लिखित रूप में संत वाणियों की रक्षा पर विशेष जोर दिया। दादू धर्मग्रंथों की सत्ता में नहीं बल्कि आत्म ज्ञान के महत्व में विश्वास करते थे। इन्होंने ईश्वरीय भक्ति को समाज सेवा एवं मानवतावादी दृष्टि से संबद्ध किया। ईश्वर के सम्मुख सभी स्री-पुरुष भाई बहनों की भाँति है। दादू की शिक्षा थी विनयशील बनो तथा अहम् से मुक्त रहो।

दादू गृहस्थ थे तथा इनका विश्वास था कि गृहस्थ का सहज जीवन आध्यात्मिक अनुभूति के लिए अधिक उपयुक्त है। दादू के अनुरोध पर इनके शिष्यों ने विभिन्न सम्प्रदायों की भक्ति परक रचनाओं को संकलित किया।

दादू ने एक असाम्प्रदायिक मार्ग (निपख सम्प्रदाय ) का उपदेश दिया।

दादू के नाम से ‘दादू पंथ‘ चल पडा। ये अत्यधिक दयालु थे। इस कारण इनका नाम ‘दादू दयाल’ पड गया। दादू हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी आदि कई भाषाओं के ज्ञाता थे। इन्होंने शबद और साखी लिखीं। इनकी रचना प्रेमभावपूर्ण है। जात-पाँत के निराकरण, हिन्दू-मुसलमानों की एकता आदि विषयों पर इनके पद तर्क-प्रेरित न होकर हृदय-प्रेरित हैं।

ब्रह्म संप्रदाय-

दादू के जीवन का महान स्वप्न सभी धर्मों के विपथगामियों को प्रेम और बंधुत्व के एक सूत्र में आबद्ध करना था और इस महान आदर्श को कार्य रूप में परिणत करने के लिए ब्रह्म सम्प्रदाय या परब्रह्म सम्प्रदाय की स्थापना की।

परिचय

दादू दयाल का जन्म अहमदाबाद के एक जुलाहा के यहाँ हुआ था।  कहा जाता है कि लोदी राम नामक ब्राह्मण को साबरमती में बहता हुआ एक बालक मिला। अधेड़ आयु के उपरांत भी लोधीराम के कोई पुत्र नहीं था जिसकी उन्हें सदा लालसा रहती थी।

एक दिन उन्हें एक सिद्ध संत के दर्शन हुए और उन्होंने अपनी हार्दिक व्यथा उन संत को कह सुनाई। संत ने शरणागत जानकर लोधीरम को पुत्र रत्न की प्राप्ति का वरदान दिया और कहा “साबरमती नदी में तैरते कमल पत्र पर शयन करते बालक को अपने घर ले आना वही तुम्हारा पुत्र होगा” पुत्र प्राप्ति की कामना लेकर श्री लोधीरम ब्राहमण साबरमती नदी के तट पर गए जहाँ उन्हें पानी पर तैरते कमल पर लेटा हुआ बालक प्राप्त हुआ।

अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु परोपकार के लिए तुरंत दे देने के स्वाभाव के कारण उनका नाम “दादू” रखा गया। आप दया दीनता व करुणा के खजाने थे, क्षमा शील और संतोष के कारण आप ‘दयाल’ अतार्थ “दादू दयाल” कहलाये।

विक्रम सं. 1620 में 12 वर्ष की अवस्था में दादूजी गृह त्याग कर सत्संग के लिए निकल पड़े, केवल प्रभु चिंतन में ही लीन हो गए। अहमदाबाद से प्रस्थान कर भ्रमण करते हुए राजस्थान की आबू पर्वतमाला, तीर्थराज पुष्कर से होते हुए कर डाला धाम (जिला जयपुर) पधारे और पूरे 6 वर्षों तक लगातार प्रभु की साधना की कठोर साधना से इन्द्र को आशंका हुई की कहीं इन्द्रासन छीनने के लिए तो वे तपस्या नहीं कर रहे , इसीलिए इंद्र ने उनकी साधना में विघ्न डालने के लिए अप्सरा रूप में माया को भेजा। जिसने साधना में बाधा डालने के लिए अनेक उपाय किये मगर उस महान संत ने माया में व अपने में एकात्म दृष्टि से बहन और भाई का सनातन प्रतिपादित कर उसके प्रेमचक्र को एक पवित्र सूत्र से बाँध कर शांत कर दिया।

संत दादू जी विक्रम सं. 1625 में सांभर पधारे यहाँ उन्होंने मानव-मानव के भेद को दूर करने वाले, सच्चे मार्ग का उपदेश दिया। तत्पश्चात दादू जी महाराज आमेर पधारे तो वहां की सारी प्रजा और राजा उनके भक्त हो गए।

उसके बाद वे फतेहपुर सीकरी भी गए जहाँ पर बादशाह अकबर ने पूर्ण भक्ति व भावना से दादू जी के दर्शन कर उनके सत्संग व उपदेश ग्रहण करने के इच्छा प्रकट की तथा लगातार 40 दिनों तक दादूजी से सत्संग करते हुए उपदेश ग्रहण किया। दादूजी के सत्संग प्रभावित होकर अकबर ने अपने समस्त साम्राज्य में गौ हत्या बंदी का फरमान लागू कर दिया।

उसके बाद दादूजी महाराज नरेना (जिला जयपुर) पधारे और उन्होंने इस नगर को साधना, विश्राम तथा धाम के लिए चुना और यहाँ एक खेजडे के वृक्ष के नीचे विराजमान होकर लम्बे समय तक तपस्या की और आज भी खेजडा जी के वृक्ष के दर्शन मात्र से तीनो प्रकार के ताप नष्ट होते हैं। यहीं पर उन्होंने ब्रह्मधाम “दादूद्वारा” की स्थापना की जिसके दर्शन मात्र से आज भी सभी मनोकामनाए पूर्ण होती है। तत्पश्चात श्री दादूजी ने सभी संत शिष्यों को अपने ब्रह्मलीन होने का समय बताया।

ब्रह्मलीन होने के लिए निर्धारित दिन (जयेष्ट कृष्ण अष्टमी सम्वत 1660 ) के शुभ समय में श्री दादूजी ने एकांत में ध्यानमग्न होते हुए “सत्यराम” शब्द का उच्चारण कर इस संसार से ब्रहम्लोक को प्रस्थान किया। श्री दादू दयाल जी महाराज के द्वारा स्थापित “दादू पंथ” व “दादू पीठ” आज भी मानव मात्र की सेवा में निर्विघ्न लीन है। वर्तमान में दादूधाम के पीठाधीश्वर के रूप में आचार्य महंत श्री गोपालदास जी महाराज विराजमान हैं।

इनकी मृत्यु 1603ई. में राजस्थान के नराना या नारायणा में हुई थी जहाँ अब इनके अनुयायियों (दादू पंथियों ) का मुख्य केन्द्र है।  वर्तमान में भी प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ल अष्टमी पर नरेना धाम में भव्य मेले का आयोजन होता है तथा इस अवसर पर एक माह के लिए भारत सरकार के आदेश अनुसार वहां से गुजरने वाली प्रत्येक रेलगाड़ी का नरेना स्टेशन पर ठहराव रहता है।

उनके उपदेशों को उनके शिष्य रज्जब जी ने “दादू अनुभव वाणी” के रूप में समाहित किया, जिसमे लगभग 5000 दोहे शामिल हैं। संतप्रवर श्री दादू दयालजी महाराज को निर्गुण संतो जैसे की कबीर व गुरु नानक के समकक्ष माना जाता है तथा उनके उपदेश व दोहे आज भी समाज को सही राह दिखाते आ रहे हैं।

दादूपन्थ

कबीर के बोध को जन-जन तक पहुँचाने में दादूपंथी संतों की बड़ी भूमिका है। संख्या की दृष्टि से दादू के जीवन में ही जितनी बड़ी संख्या में शिष्य-प्रशिष्य दादू के बने, सम्भवतः उतने शिष्य किसी अन्य संत के नहीं। दादूपंथी संतों में एक बहुत बड़ी संख्या पढ़े-लिखे संतों की है। जगजीवनदास जैसे शास्त्रार्थी, सुन्दरदास जैसे प्रकाण्ड शास्त्र पण्डित और साधु निश्चलदास जैसे दार्शनिक दादूपंथी ही थे। संत साहित्य के संरक्षण और संवर्धन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य दादूपंथियों ने किया। इन संतों ने अपने गुरु की वाणियों को संरक्षित तो किया ही, पूर्ववर्ती तमाम संतों की वाणियों का संरक्षण भी किया।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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