1857 की-क्रांतिआधुनिक भारतइतिहास

1857 की क्रांति की घटनाएँ एवं प्रसार

1857 kee kraanti

11मई,1857ई. को मेरठ के विद्रोही सैनिक दिल्ली पहुँचे। यहाँ पर उन्होंने अनेक अंग्रेज अधिकारियों को मार डाला तथा दिल्ली पर अधिकार कर लिया। विद्रोहियों ने मुगल सम्राट बहादुरशाह से क्रांति का नेतृत्व करने का अनुरोध किया। पहले तो बहादुरशाह ने नेतृत्व स्वीकार करने में संकोच दिखाया, किन्तु विद्रोहियों का अत्यधिक दबाव देखकर क्रांति का नेतृत्व करना स्वीकार कर लिया। दिल्ली की इन घटनाओं का समाचार अन्य नगरों में भी पहुँच गया। कुछ ही दिनों में उत्तरी भारत के अधिकांश भागों में विद्रोह फैल गया।

मनाना साहब ने कानपुर पर अपना अधिकार स्थापित कर अपने आपको पेशवा घोषित कर दिया। बुंदेलखंड में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने तथा मध्य भारत में तांत्या टोपे नामक मराठा ब्राह्मण ने क्रांतिकारियों का नेतृत्व ग्रहण कर लिया। बिहार में जगदीशपुर के जमींदार कुंवरसिंह ने विद्रोहियों के नेतृत्व किया। इसी प्रकार उत्तर भारत में कानपुर,आगरा,अलीगढ,बरेली,मथुरा आदि विद्रोह के प्रमुख केन्द्र बन गये। अवध राज्य के सभी क्षेत्र इस विद्रोह में शामिल हो गये।

राजस्थान की दो सैनिक छावनियों में – नसीराबाद सैनिक छावनी में 28 मई, 1857 को तथा 3जून,1857 को रात्रि के 11बजे नीमच के सैनिकों ने विद्रोह कर छावनी में आग लगा दी। राजस्थान में कोटा व आउवा विद्रोह के प्रमुख केन्द्र बन गये। 21 अगस्त,1857 को एरिनपुरा स्थित जोधपुर लीजियन की एक सैनिक टुकङी ने, जो अभ्यास हेतु आबू गई थी, विद्रोह कर दिया। उसके बाद यह सैनिक टुकङी आबू की पहाङी से नीचे उतरी और एरिनपुरा में लूटमार कर मारवाङ के रास्ते से दिल्ली की ओर रवाना हुई। रास्ते में पाली के निकट आउवा के ठाकुर खुशालसिंह ने उन्हें अपनी सेवा में ले लिया और आउवा ले गया।

आउवा में मारवाङ और मेवाङ के कुछ जागीरदार एवं उनकी सेनाएँ शामिल हो गई।जोधपुर के महाराजा तख्तसिंह ने इनके विरुद्ध एक सेना भेजी, किन्तु 8 सितंबर,1858 को राजकीय सेना पराजित हुई। इस समय राजस्थान का ए.जी.जी. जार्ज लारेन्स स्वयं सेना लेकर गया, किन्तु उसे भी पराजय का सामना करना पङा। अंत में जनवरी, 1858 में कर्नल होम्स ने आउवा में विद्रोहियों का दमन किया। मेवाङ में यद्यपि कोई प्रत्यक्ष विद्रोह नहीं हुआ,किन्तु मेवाङ में कुछ जागीरदारों ने विद्रोहियों को रसद आदि देकर अप्रत्यक्ष रूप से सहायता की।

पंजाब,बंगाल और दक्षिण भारत के अधिकांश भागों में कोई विद्रोह नहीं हुआ। भारत के अधिकांश नरेशों ने अंग्रेजों की सहायता की।

अवध में विद्रोह-

अवध को अंग्रेजी राज्य में मिलाये जाने के कारण वहाँ अंग्रेजों के विरुद्ध व्यापक असंतोष था। 3 मई, 1857 को लखनऊ में सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। लेकिन उनका दमन कर दिया गया। उसके बाद 31 मई, 1857 को पुनः विद्रोह हुआ, जो अवध राज्य के विभिन्न भागों में फैल गया।

अवध का नवाब वाजिदअलीशाह कलकत्ता में अंग्रेजों का बंदी था, अतः विद्रोहियों ने उसके अल्पव्यस्क पुत्र बिरजीस कद्र को नवाब घोषित कर दिया तथा प्रशासन संचालन का काम बेगम हजरत महल को सौंप दिया गया। 20 जून,1857 को अंग्रेजी सेना विद्रोहियों से परास्त हुई तथा अधिकांश ताल्लुकेदारों व जमीदारों ने अपनी-2जागीरों व जमींदारी पर अधिकार कर लिया। 4जुलाई, 1857 को एक भीषण विस्फोट में अवध के कमिश्नर हेनरी लॉरेन्स की मृत्यु हो गई। तत्पश्चात् अंग्रेजों की सहायता के लिए आउटरम तथा हेवलाक अपनी सेना के साथ आये। प्रधान सेनापति कैम्पबेल तथा नेपाल से गोरखा सेना भी वहाँ आ गई। अंत में 31 मार्च,1858 को अंग्रेज पुनः लखनऊ पर अधिकार करने में सफल रहे। यद्यपि इसके बाद भी ताल्लुकेदार छिपे रूप में अंग्रेजों की हत्या करते रहे, किन्तु मई, 1858 में बरेली पर अंग्रेजों का नेतृत्व हो जाने पर अवध के क्रांतिकारियों ने भी हथियार डाल दिये तथा विद्रोह का पूर्ण रूप से दमन कर दिया गया।

झाँसी में क्रांति-

1854 में झाँसी को अंग्रेजी राज्य में मिला दिया गया था। अतः झाँसी में भी अंग्रेजी के विरुद्ध व्यापक असंतोष था। 5जून,1857 को झाँसी की सेना ने भी विद्रोह कर दिया था तथा अंग्रेज अधिकारियों को दुर्ग में घेरकर 8 जून को उनकी हत्या कर दी। आरंभ में रानी लक्ष्मीबाई ने विद्रोहियों का समर्थन नहीं किया तथा सागर डिविजन के कमिश्नर को पत्र लिखकर अपनी स्थिति भी स्पष्ट की। अर्सकाइन ने भी रानी को प्रशासन का उत्तरदायित्व सौंपा, फिर भी अंग्रेजों ने झाँसी पर आक्रमण किया, तब भी रानी अंग्रेजों से सहायता प्राप्त करना चाहती थी, किन्तु अंग्रेजों ने उसे संदेह की दृष्टि से देखा।

विवश होकर रानी ने झाँसी के विद्रोहियों का नेतृत्व ग्रहण कर लिया। रानी का दमन करने के लिये ह्यूरोज सेना लेकर बुंदेलखंड की ओर आया। रानी ने स्वयं सेना का संचालन किया और उसकी वीरता को देखकर अंग्रेजों ने भी दांतों तले अंगुलियाँ दबा ली। ग्वालियर से तांत्या टोपे भी रानी की सहायता के लिए आ पहुँचा। किन्तु कुछ देशद्रोहियों ने किले के फाटक खोल दिये, जिससे शत्रु सेना को अंदर आने का मार्ग मिल गया। अतः रानी लक्ष्मीबाई 4 अप्रैल,1858 को रात के अंधेरे में नगर से बाहर चली गई और बङी बहादुरी से लङती हुई कालपी पहुँची। ह्यूरोज भी रानी का पिछा करते हुए कालपी आ पहुँचा और वहाँ घमासान युद्ध हुआ।मई, 1858 में कालपी पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। वहाँ से रानी ग्वालियर पहुँची,तथा ग्वालियर पर अधिकार कर लिया।

ह्यूरोज भी ग्वालियर पहुँचा और रानी को घेर लिया। अतः रानी ने यहाँ से भी भागने का प्रयास किया, किन्तु उसका घोङा सामने पङे नाले को पार न कर सका और वहीं गिर गया। रानी स्वयं इतनी घायल हो चुकी थी कि उसका बचना असंभव हो गया। इस प्रकार, रानी लक्ष्मीबाई ने एक शहीद की भाँति मृत्यु का वरण किया।

कानपुर की क्रांति-

1818 में पेशवा बाजीराव द्वितीय को कानपुर के निकट बिठुर भेज दिया गया तथा उसके लिए 8 लाख रुपये वार्षिक पेंशन देना तय किया गया था। बाजीराव के कोई पुत्र नहीं था, अतः उसने नाना धुंधपंत को जिसे नाना साहब कहकर पुकारा जाता था, गोद लिया। 28 जनवरी, 1851 को बाजीराव की मृत्यु हो गई। किन्तु डलहौजी ने उसे पेंशन देने से इंकार कर दिया। अतः नाना अंग्रेजों का कट्टर शत्रु बन गया।

मेरठ में हुए विद्रोह की सूचना जब कानपुर पहुँची तो अंग्रेजों ने खजाने तथा बारूद के भंडार की सुरक्षा का दायित्व नाना साहब के सिपाहियों को सौंप दिया। किन्तु 4जून को कानपुर का विद्रोह हो गया। 6जून,1857 को नाना ने विद्रोहियों का नेतृत्व ग्रहण किया और कानपुर की ओर आया। अंग्रेजों ने अपनी सुरक्षा के लिए एक अस्थाई शिविर बना लिया, किन्तु 25 जून को इस शिविर पर विद्रोहियों का अधिकार हो गया। 27 जून को अंग्रेज इलाहाबाद की ओर जाने लगे, किन्तु विद्रोहियों ने उन पर आक्रमण कर दिया। कानपुर पर अधिकार हो जाने के बाद बुठुर में नाना ने अपने आपको पेशवा घोषित कर दिया। किन्तु इलाहाबाद से अंग्रेजी सेना आ पहुँची, जिसने 16जुलाई, 1857 को कानपुर पर पुनः अधिकार कर लिया।

इसी दिन कानपुर में बीबीघर नामक मकान में कुछ अंग्रेज स्त्रियों व बच्चों की हत्या कर दी गई। अब अंग्रेजों ने कानपुर की साधारण जनता पर जो अत्याचार किए, वे दिल दहलाने वाले थे। अंग्रेज अधिकारी जनरल नील ने एक मुसलमान अधिकारी को बीबीघऱ में फर्श पर लगे खून को जीभ से साफ करने का आदेश दिया। 19 जुलाई, 1857 को बिठुर पर आक्रमण कर दिया और नाना के महल में आग लगा दी। बिठुर में भयंकर लूटमार की गई तथा धन-संपत्ति के लोभ में एक महल की एक-2 ईंट उखङवा दी। अंग्रेजों को बिठुर की लूट में इतना अधिक सोना-चाँदी प्राप्त हुआ कि उसे ले जा नहीं सकते थे। जनवरी, 1858 के बाद नाना के बारे में कोई पता नहीं चला। बाद में पता चला वे नेपाल चले गये हैं।

बिहार में क्रांति-

बिहार में विद्रोह का संचालन जगदीशपुर (शाहबाद जिले में) के जमींदार कुंवरसिंह ने किया, जिसकी उस समय आयु 70 वर्ष की थी। कुंवरसिंह की जमींदारी काफी बङी थी। लेकिन अंग्रेजों की नीति के फलस्वरूप कुंवरसिंह दिवालियेपन की स्थिति में पहुँच गया था। बिहार में सर्वप्रथम विद्रोह जुलाई, 1857 में दानापुर में हुआ। विद्रोहियों ने दानापुर पर अधिकार कर कुंवरसिंह को बुलवा लिया तथा इस संघर्ष का नेतृत्व कुंवरसिंह को सौंप दिया। अगस्त,1857 में कुंवरसिंह लखनऊ की ओर चल पङा। रास्ते में आजमगढ जिले में अंग्रेजी सेना से उसकी मुठभेङ हो गयी। कुंवरसिंह ने अंग्रेजी सेना को खदेङकर मार्च,1858 में आजमगढ पर अधिकार कर लिया। यह उसकी सबसे बङी सफलता थी और इससे उसका हौसला दुगुना हो गया। अब कुंवरसिंह से मुकाबला किया, किन्तु कुंवरसिंह के युद्ध कौशल के सामने मार्क को भी अपनी जान बचाकर भागना पङा।

22 अप्रैल,1858 को कुंवरसिंह ने अपनी जागीर जगदीशपुर पर अधिकार कर लिया। किन्तु जगदीशपुर में पहुँचे 24 घंटे भी नहीं हुए थे कि आरा से ली- ग्रेड एक सेना लेकर जगदीशपुर आ पहुँचा। कुंवरसिंह ने उसे पराजित कर दिया। तीन दिन बाद कुंवरसिंह की मृत्यु हो गयी और उस समय जगदीशपुर पर आजादी का ध्वज लहरा रहा था। वह अंग्रेजों के विरुद्ध लगभग एक वर्ष तक संघर्ष करता रहा और अंग्रेजों को अनेक बार परास्त किया। उसके सफल विद्रोह से अंग्रेज इतने खीझ उठे कि उसकी मृत्यु के बाद मेजर आयर ने जगदीशपुर के महल और मंदिरों को नष्ट करके अपने दिल की भङास निकाली।

Reference :https://www.indiaolddays.com/

Related Articles

error: Content is protected !!