मध्यकालीन भारतइतिहासविजयनगर साम्राज्य

विजयनगर साम्राज्य की राजस्व ( वित्तीय ) व्यवस्था

विजयनगर साम्राज्य की कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था होने के कारण लगान आय का प्रमुख साधन था। इसके अतिरिक्त अन्य प्रमुख स्त्रोत थे जैसे – सम्पति कर, व्यापारिक कर, व्यावसायिक कर, उद्योग कर, सामाजिक और सामुदायिक कर, अर्थदण्ड आदि।

भू- राजस्व-

विजयनगर काल में भू – राजस्व एवं भू धारण व्यवस्था बहुत व्यापक थी और भूमि को अनेक श्रेणियों में विभाजित किया गया था। भूमिक मुख्यतः सिंचाई युक्त या सूखी जमीन के रूप में वर्गीकृत की जाती थी। लगान का निर्धारण भूमिक की उत्पादकता और उसकी स्थिती के अनुसार किया जाता था। परंतु भूमि से होने वाली पैदावार और उसकी किस्म भू -राजस्व निर्धारण का सबसे बङा आधार थी।विजयनगर काल में पूरे साम्राज्य में भू-राजस्व के दरें समान नहीं थी। जैसे- ब्राह्मणों के स्वामित्व वाली भूमि उपज का बीसवाँ भाग और मंदिरों की भूमि से उपज का तीसवाँ भाग लगान के रूप में लिया जाता था।

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अन्य विविध कर विजयनगर साम्राज्य द्वारा वसूल किये जाने वाले विविध करों के नाम थे- कदमाई, मगमाई, कनिक्कई, कत्तनम्, वरम्, भोगम, वारि, पत्तम, इराई और कत्तायम्।

राज्य उपज के छठें भाग को भूमि कर के रूप में वसूल करता था। लगान के अतिरिक्त मकान, पशुओं, भेङियों, धोबी, मनोरंजन करने वाले व नाईयों पर भी कर लगाता था। 16 वी. शताब्दी के अंतिम चरण में नाइयों को व्यवसायिक कर से मुक्त कर दिया गया। सामाजिक और सामुदायिक करों में विवाह कर से मुक्त करके इस प्रकार के विवाह को न केवल सामाजिक मान्यता प्रदान करने का प्रयास किया वरन् विधवाओं की दयनीय स्थिति सुधारने की चेष्टा की। इस काल में भिखारियों, मंदिरों व वेश्याओं पर भी कर लगााए जाते थे। शिष्ट नामक कर राज्य की आय का प्रमुख स्रोत था। केन्द्रीय राजस्व विभाग को अठानवे ( अस्थवन या अथवन ) कहा जाता था। समकालीन अभिलेखों में कृष्णदेव राय द्वारा भूमिकर के सही निर्धारण के लिए साम्राज्य की भूमि के सर्वेक्षण का उल्लेख है।भूमि-मापक पट्टिकाओं या जरीबों के विभिन्न नाम थे जैसे- नदलक्कुल राजव्यंदकोल और गंडरायगण्डकोल।

भू-धारण पद्धति सिंचाई एवं कृषि- मध्यकालीन भारत के अन्य प्रदेशों की भाँति विजयनगर साम्राज्य में अधिकांश जनसंख्या कृषि पर आश्रित थी। भूमि व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन हुए। चोल युग का नाडु घटकर ग्राम के रूप में अब एक छोटी इकाई मात्र रह गया। विजयनगर कालीन भू-धारण पद्धति बङी व्यापक थी। भंडारवाद ग्राम ऐसे ग्राम जिनकी भूमि राज्य के प्रत्यक्ष नियंत्रण में थी। इन ग्रामों के किसान राज्य को कर देते थे। धार्मिक सेवाओं के बदले में राज्य की ओर से ब्राह्मणों, मठों और मंदिरों को दान में दी गई भूमि ब्रह्मदेय, देवदेय और मठापुर भूमि कहलाती थी। यह भूमि कर मुक्त थी।

सैनिक एवं असैनिक अधिकारियों को विशेष सेवाओं के बदले जो भू-खंड दिये जाते थे ऐसी भूमि को अमरम् कहा जाता था। इसके प्राप्त कर्त्ता अमरनायक कहलाते थे। इस भू – धारण व्यवस्था को नायंकार व्यवस्था कहते थे। प्रारंभ में नायंकार – व्यवस्था केवल सेवा की शर्तों पर आधारित थी  परंतु बाद में यह आनुवांशिक हो गई।

उंबलि- ग्राम में कुछ विशेष सेवाओं के बदले जिन्हें लगान मुक्त भूमि दी जाती थी ऐसी भूमि को उंबलि कहते थे।

रत्त ( खत ) कोडगै- युद्ध में शौर्य प्रदर्शित करने वालों या अनुचित रूप से युद्ध में मृत लोगों के परिवार को दी गई भूमि रत्त ( खत ) कोडगै कहलाती थी।

कट्टगि- इस युग में ब्राह्मण, मंदिर और बङे भू-स्वामी, जो स्वयं खेती नहीं करते थे। ऐसे पट्टे रक दी गई भूमि को कट्टगि कहा जाता था। कुट्टगि वस्तुतः नकद या जिस रूप में उपज का अंश था जिसे किसान भू – स्वामी को प्रदान करता था।

वारम व्यवस्था- भू-स्वामी एवं पट्टीदार के मध्य उपज की हिस्सेदारी को वारम व्यवस्था कहते थे।

कुदि- खेती में लगे कृषक मजदूर कुदि कहलाते थे। भूमि के क्रय-विक्रय के साथ उक्त कृषक – मजदूर कुदि कहलाते थे। भूमि के क्रय- विक्रय के साथ उक्त कृषक मजदूर भी हस्तांतरित हो जाते थे।

विजयनगर प्रशासन में सिंचाई का कोई विभाग नहीं था। राज्य में सिंचाई की व्यवस्था व्यक्तिगत प्रयासों द्वारा की जाती थी। सिंचाई के साधनों के विस्तार में मंदिरों, मठों, व्यक्तियों और संस्थाओं ने समान रूप से योगदान दिया। सिंचाई के साधनों के विकास या सुधार करने वालों को राज्य कर मुक्त भूमि प्रदान करता था। यदि किसी व्यक्ति की बिना किसी वारिस के मृत्यु हो जाती थी तो ऐसे की संपत्ति का उपयोग सिंचाई के साधनों आदि की मरम्मत के लिए किया जाता था।

खेतों की नियमित पैमाइश की जाती थी। उसके सीमांकन के लिए पत्थर गाङे जाते थे। सामान्यतः भूमि के दो वर्गीकरण थे- 1.) सिंचाई युक्त भूमि, 2.) शुष्क भूमि।

विजयनगर काल में उपवनों का खूब विकास हुआ। नील, कपास, कालीमिर्च तथा नारियल आदि का व्यापक रूप से उत्पादन होता था।

मुद्रा व्यवस्था-

विजयनगर साम्राज्य की मुद्रा प्रणाली भारत की सर्वाधिक प्रशंसनीय मुद्रा प्रणालियों में से थी। विजयनगर का सर्वाधिक प्रसिद्ध सिक्का स्वर्ण का वराह था जिसे विदेशी यात्रियों ने हूण, परदैस या पगोडा के रूप में उल्लेख किया ही।

सोने के छोटे सिक्के को प्रताप तथा फणम् कहा जाता था। चाँदी के छोटे सिक्के तार कहलाते थे। विजयनगर का वराह एक बहुत सम्मानित सिक्का था, जिसे सम्पूर्ण भारत तथा विश्व के प्रमुख व्यापारिक नगरों में स्वीकार किया जाता था।

विजयनगर साम्राज्य के सिक्कों से वहाँ के नरेशों के धार्मिक विश्वासों का भी पता चलता है।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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