प्राचीन भारतइतिहासबौद्ध काल

बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य एवं अष्टांगिक मार्ग

चार आर्य सत्य-

  1. दुः ख – संसार में दुः ख है।
  2. समुदाय –  दुः ख का कारण है।
  3.  निरोध –  दुः ख निवारण संभव है।
  4. मार्ग –   दुः ख निवारण हेतु अष्टांगिक मार्ग का पालन करना ।

प्राणी जन्म भर विभिन्न दु:खों की श्रृंखला में पड़ा रहता है, यह दु:ख आर्यसत्य है। संसार के विषयों के प्रति जो तृष्णा है वही समुदाय आर्यसत्य है। जो प्राणी तृष्णा के साथ मरता है, वह उसकी प्रेरणा से फिर भी जन्म ग्रहण करता है।

इसलिए तृष्णा के समुदय को आर्यसत्य कहते हैं। तृष्णा के न रहने से न तो संसार की वस्तुओं के कारण कोई दु:ख होता है और न मरणोंपरांत उसका पुनर्जन्म होता है।

बुझ गए प्रदीप की तरह उसका निर्वाण हो जाता है। और, इस निरोध की प्राप्ति का मार्ग आर्यसत्य – आष्टांगिक मार्ग है। इसके आठ अंग हैं-

  1. सम्यक् दृष्टि –चार आर्य सत्य में विश्वास करना।
  2. सम्यक् संकल्प – मानसिक  और नौतिक विकास की प्रति ज्ञा करना।
  3. सम्यक् वचन – हानिकारक बातें और झूठ न बोलना।
  4. सम्यक् कर्मांत बुरे कर्म न करना।
  5. सम्यक् आजीविका – कोई भी हानिकारक व्यापार न करना।
  6.  सम्यक् व्यायाम – अपने आप को स्वस्थ रखने का प्रयास करना।
  7. सम्यक् स्मृति – स्पष्ट ज्ञान से देखने की मानसिक योग्यता पाने की कोशिश करना।
  8.  सम्यक् समाधि – निर्वाण पाना।

इस आर्यमार्ग(अष्टांगिक मार्ग) को सिद्ध कर व्यक्ति मुक्त हो जाता है। 

इन 8 अंगों को तीन भागों में विभाजित किया गया है-

  1. प्रज्ञा-(सम्यक दृष्टि,सम्यक संकल्प, सम्यक वाक)
  2. शील– (सम्यक कर्मांत, सम्यक आजीविका)
  3. समाधि– (सम्यक व्यायाम, सम्यक समाधि, सम्यक स्मृति)

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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