प्राचीन भारतइतिहासवैदिक काल

चार हिन्दू आश्रम व्यवस्था क्या थी

3 आश्रमों का विधान उत्तरवैदिक काल में हुआ।

  • ब्रह्मचर्य आश्रम
  • गृहस्थ आश्रम
  • वानप्रस्थ आश्रम।

संयास आश्रम पर अवैदिक परंपराओं (श्रमण परंपरा-जैन, बौद्ध धर्म ) का प्रभाव दिखाई देता है। पहली बार जाबालोपनिषद में चारों आश्रमों का उल्लेख मिलता है।

ब्रह्मचर्य आश्रम-

आयु का प्रथम व सबसे बड़ा भाग ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य काल शिक्षा, शरीरोन्नति और दीक्षा–प्राप्ति के लिए नियत है।      शिक्षा आत्मिक शक्तियों के विकास करने को कहते हैं। दीक्षा  बाहर से ज्ञान प्राप्त करके भीतर एकत्र करने का नाम है। मनुष्य का शरीर तीन प्रकार के परमाणुओं से बना है ।

  • सत्य,
  • रजस्
  • और तमस्

इनमें से तम अन्धकार  को कहते हैं। मनुष्य शरीर में जब तमस् परमाणु बढ़ जाते हैं, तब अन्तःकरण पर अन्धकार का आवरण आ जाता है, जिससे मानसिक शक्तियों का विकास नहीं होता, किन्तु उसी अन्धकार के आवरण (परदे) से अन्धकार की ही किरणें निकलकर उसे मूर्ख बनाया करती हैं।

‘‘रजस्” अनियमित कर्तव्य कहते हैं। नियमित कर्तव्य को धर्म और अनियमित कर्तव्य को अधर्म कहते हैं। जब ‘‘रज” के परमाणु मनुष्य में बढ़ जाते हैं तब यह भी आचरण रूप होकर आत्मिक शक्तियों के विकास में बाधक होते हैं। और बाहर विषय-भोग की कामना में प्रकट हुआ करतें हैं।

सत्व” प्रकाश को कहते हैं। जब सत्व के परमाणु मनुष्य में बढ़ते हैं तब अन्तःकरण में प्रकाश की मात्रा बढ़ती है, जिससे सुगमता से आत्मिक शक्तियों का विकास होता है।

इसलिए शिक्षा–प्राप्ति के लिए मनुष्य का यह कर्तव्य हुआ कि तम को दूर, रज को नियमित और सत्य की वृद्धि करे। इस कर्तव्य की पूर्ति के लिए शक्ति (Energy) अपेक्षित होती है, यह शक्ति ब्रह्मचर्य से प्राप्त होती है। इसलिए शिक्षा के लिए ब्रह्मचर्य अनिवार्य है। ब्रह्मचर्य से शक्ति किस प्रकार प्राप्त होती है? इसका उत्तर यह है कि मनुष्य शरीर में जब भोजन कई कार्यों, क्रियाओं वा परिवर्तनों के बाद रेत (Albumen) में परिणत होता है और सुरक्षित रहता है तब उसमें क्रमशः अग्नि, विद्युत् व ओज गुण आते हैं। अन्त में वह वीर्य के रूप में हो जाता है। यही वीर्य मनुष्य के शरीर की शक्ति का केन्द्र है। इससे सम्पूर्ण शारीरिक और आत्मिक शक्ति उत्पन्न हुआ करती है। इसी वीर्योत्पत्ति और उसके सुरक्षित रखने की कार्यप्रणाली का नाम ब्रह्चर्य है।

इस प्रकार मनुष्य को अपने जीवन के पहले भाग में जिसकी न्यून से न्यून अवधि 25 वर्ष है, ब्रह्मचर्यपूर्वक शिक्षा और दीक्षा प्राप्त करनी चाहिए, सभी विद्याओं, ज्ञान व विज्ञान व इनके क्रियान्वित ज्ञान का अनुभव प्राप्त करना चाहिये, यही ब्रह्मचर्य का कर्तव्य विधान है।

  गृहस्थ आश्रम-

सांसारिक और पारलौकिक सुख-प्राप्ति के लिए विवाह करके अपने सामर्थ्य के अनुसार परोपकार करना और नियत काल में विधि के अनुसार ईश्वर-उपासना एवं गृह के कर्तव्यों को करके सत्य धर्म में ही अपना तन-मन-धन लगाना तथा धर्मानुसार सन्तानों की उत्पत्ति, उनका पालन करना व उन्हें योग्यतम बनाना, इन मुख्य कार्यों को करने को ही गृहाश्रम कहा जाता है। यही गृहस्थाश्रम है तथा यही इसके उद्देश्य व कर्तव्य हैं।

इस आश्रम में रहते हुए स्त्री व पुरुषों को नियमपूर्वक सन्तानोत्पत्ति सहित जीविका भी उपलब्ध करनी चाहिए और सन्तान को अपने से अच्छा बनाने का यत्न करना चाहिए। गृहस्थाश्रम में रहते हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, तपस्वी शूद्र अपने अपने कर्मों को करते हुए परिवार, समाज व देश को उन्नत व सशक्त बनाते हैं। गृहस्थाश्रम की अवधि सन्तानों का विवाह होने व उनकी सन्तान भी हो जाने तक है। इसके बाद जीवनोन्नति के लिए अगले आश्रम वानप्रस्थ में प्रवेश करना होता है।

  वानप्रस्थ आश्रम-

गृहस्थाश्रम में रहने से जो विकार मनुष्य में उत्पन्न हो जाते हैं उनको दूर करके अपने को ब्रह्मचर्याश्रम वालों की भांति स्वच्छ बना लेना, इस आश्रम का मुख्योद्देश्य है। यही आश्रम संन्यासाश्रम में जाने की तैयारी का काम किया करता है। वानप्रस्थ आश्रम नाम से यह विदित होता है कि इस आश्रम में प्रवेश व निवास के लिए स्वगृह व परिवार से दूर वन में जाना है। आजकल वन में जाना व रहना कठिन व सम्भव कोटि में नहीं है। महर्षि दयानन्द ने तो युवावस्था से सीधे ही संन्यास ले लिया था और वह सारा जीवन देश का भ्रमण करते रहे। इसका कारण यह था कि उन्हें ज्ञान की पिपासा थी और इसकी पूर्ति वन आदि किसी एक स्थान पर रहकर पूरी नहीं की जा सकती थी।

अतः वानप्रस्थ आश्रम ऐसे स्थान पर करना है जहां इस आश्रम के अन्य लोग हों और उन्हें ईश्वर के ध्यान व समाधि का क्रियात्मक प्रशिक्षण वेद के मर्मज्ञ विद्वानों व अपने सहाध्यायियों से भली प्रकार से मिल सके। वानप्रस्थ आश्रम में वेदों के मर्मज्ञ विद्वान व प्रातः सायं यज्ञ की व्यवस्था भी होनी चाहिये जिनकी संगति व अनुष्ठान करके वानप्रस्थी संन्यास के सर्वथा योग्य बन सकें।

इसी क्रम में हरिद्वार-ज्वालापुर में स्थित ‘‘आर्य वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम” की चर्चा कर लेना भी उचित होगा। यह आश्रम सम्प्रति नगर के बीच में स्थित है। यहां सैकड़ों वानप्रस्थी व संन्यासी रहते हैं और अच्छे साधकों से भी यह स्थान परिपूर्ण है। यदि यहां रहकर वानप्रस्थ किया जाये, तो हमारी दृष्टि में वह भी उद्देश्य को पूरा करने में सहायक व फलितार्थ हो सकता है।   संन्यासाश्रम–मनुष्य को वानप्रस्थ से अन्तिम संन्यासाश्रम में आकर मुक्ति के साधनों को काम में लाते हुए जगत् के सुधार का भी यत्न करना पड़ता है।

 संन्यास आश्रम-

इस आश्रम में प्रविष्ट मनुष्य मोहादि आवरण व पक्षपात छोड़ कर तथा विरक्त होकर सब  परोपकार्थ विचरण करे। यहां विचरण करने से तात्पर्य अविद्यान्धकार, अज्ञान व मिथ्या मान्यताओं का प्रतिकार व प्रतिवाद कर वेद व आर्ष-ज्ञान का प्रचार करे तथा असत्य मत व मान्यताओं का खण्डन भी करें जिससे समाज व देश के सभी मनुष्य असत्य व अज्ञान से पृथक होकर सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों को धारण कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के मार्ग पर चलते हुए लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। महर्षि दयानन्द वैदिक मान्यताओं के अनुरुप आदर्श संन्यासी थे। उन्होंने अपने संन्यासी जीवन में ईश्वरोपासना करते हुए ज्ञान का अर्जन किया और समाज के कल्यार्थ वा सुधारार्थ असत्य व अज्ञान का खण्डन करते हुए सत्य पर आधारित वैदिक मान्यताओं का मण्डन व प्रचार किया। इसका अनुकरण करना ही संन्यास का सच्चा स्वरुप व उदाहरण माना जा सकता है।

वैदिक धर्म में चार आश्रमों व चार वर्णो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र का विधान मनुष्य की पूर्ण व अधिकतम शारीरिक, सामाजिक, बौद्धिक व आत्मिक उन्नति को ध्यान में रखकर किया गया है। वैदिक विधानों से पूर्ण यह आश्रम व्यवस्था ही संसार की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था है जिसमें सभी मनुष्यों की सांसारिक व पारलौकिक दोनों ही उन्नति होती है। यह लक्ष्य अन्य किसी जीवन पद्धति से प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतः इस व्यवस्था व इसके अनुरुप जीवन व्यतीत करने से मनुष्य अपने उद्देश्य व लक्ष्य प्राप्ति के निकट पहुंच कर उसे प्राप्त करने में समर्थ होता है। आईये ! वैदिक वर्ण-आश्रम व्यवस्था को स्वयं अपनायें व उसका प्रचार कर इसे सर्वत्र स्थापित करने का प्रयास करें।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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