आधुनिक भारतइतिहासगोपाल कृष्ण गोखले

गोपाल कृष्ण गोखले के राजनीतिक विचार

गोखले(Gokhale) के राजनीतिक विचारों पर 19वी. शता. के उदारवाद की स्पष्ट छाप मिलती है। गोखले ने भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस (Indian National Congress)में उदारवाद(Liberalism) का प्रसार किया। गोखले मानते थे कि भारत में अंग्रेजों का शासन ईश्वर की इच्छानुसार हुआ है और वह भारतीयों की भलाई के लिए हुआ है। उनका यह दृढ विश्वास था कि भारत में अंग्रेजी शासन भारतीय जनता को स्वशासन(Self government) की ओर प्रवृत्त करेगा और कालांतर में भारतयीय अपना प्रशासन चलाने के योग्य हो जायेंगे।

उदारवादी से ओतप्रोत होने के कारण वे संवैधानिक उपायों में विश्वास रखते थे। उनकी मान्यता थी कि क्रमिक संवैधानिक विकास का मार्ग अपनाकर भारत अपनी राजनीतिक प्रगति कर सकता है। वे भारत में पाश्चात्य शिक्षा(Western education) और यूरोपीय राजनैतिक संस्थाओं का व्यापक प्रयोग कर सकता है।

वे भारत में पाश्चात्य शिक्षा और यूरोपीय राजनैतिक संस्थाओं का व्यापक प्रयोग करना चाहते थे।वे भारत और इंग्लैण्ड के मध्य मधुर संबंधों की स्थापना चाहते थे ताकि भारत में ब्रिटिश शासन के अंतर्गत प्रतिनिधि शासन व्यवस्था स्थापित हो सके।

यद्यपि वे भारतीयों के राजनैतिक विशेषाधिकारों की पूर्ति के इच्छुक थे, लेकिन साथ ही वे यह जानते थे कि अंग्रेज इतनी आसानी से भारत को राजनीतिक स्वतंत्रता प्रदान नहीं करेंगे। इसलिए वे क्रमिक विकास पर बल देते थे।

वे एक यथार्थ उदारवादी के रूप में वही करना चाहते थे, जो संभव था। यद्यपि उनमें देश प्रेम और उत्साह की कमी नहीं थी, लेकिन देश की तात्कालिक परिस्थितियाँ ऐसी नहीं थी कि वे अधिक उग्र विचार या कार्यक्रम अपनाते।

गोखले एक ओर प्रार्थना, स्मरण-पत्र,प्रतिनिधि मंडल, बातचीत और शासन की रचनात्मक आलोचना का मार्ग अपनाते थे तो दूसरी ओर उनके आंदोलन में विद्रोह, हिंसा,क्रांति या उग्र आंदोलन का नितांत अभाव था।

वे शासन से संबंध विच्छेद कर, स्वतंत्र रूप से राजनीतिक लक्ष्य की प्राप्ति के कार्य को अस्वीकार करते थे। उन्होंने ब्रिटिश नौकरशाही के उज्ज्वल पक्ष की प्रशंसा करने के साथ-2 उनकी त्रुटियों की ओर ध्यान आकर्षित किया। गोखले के अनुसार भारत में अंग्रेजी राज का मूल उद्देश्य भारतीयों को पाश्चात्य उच्च स्तरीय स्वशासन के योग्य बनाना होना चाहिये।

बहिष्कार( bahishkaar ) की राजनीति का विरोध

गोखले ने बहिष्कार की राजनीति का विरोध किया। शासन से असहयोग(Non-cooperation) कर देश की उन्नति का मार्ग तैयार करना उन्हें असंभव प्रतीत होता था। बहिष्कार की नीति से स्वदेशी का थोङा बहुत लाभ हो जाय किन्तु इसे स्थायी नीति के रूप में स्वीकार करने का अर्थ होगा दूसरों को हानि पहुँचायी जाय चाहे स्वयं को उससे कितनी ही हानि क्यों न हो जाय।

उनकी यह धारणा थी कि बहिष्कार की नीति द्वारा विदेशी राजनीतिक नियंत्रण में कमी नहीं आ सकती। स्कूलों व कॉलेजों के बहिष्कार से राष्ट्रीय शिक्षा की प्रगति धीमी होगी।सरकारी नौकरियों का बहिष्कार भी सफल हो सकता है जबकि सरकारी काम के लिए एक भी व्यक्ति अपने आपको प्रस्तुत न करे।

लेकिन जहाँ शिक्षित बेरोजगारों की संख्या इतनी अधिक हो वहाँ नौकरियों का बहिष्कार सफल नहीं हो सकता।विधान परिषदों तथा नगरपालिकाओं का बहिष्कार भी उचित नहीं है, क्योंकि अनेक ऐसे व्यक्ति हैं जो नये चुनाव होने पर सदस्यता के लिए लालायित रहते हैं।

उन्होंने सुझाव दिया कि यदि निष्क्रिय प्रतिरोध के समर्थक राजनीतिक कार्यक्रम चलाना ही चाहते हैं तो उन्हें पूर्ण बहिष्कार के स्थान पर कर न देने का आंदोलन चलाना चाहिए।कर न देने का आंदोलन,प्रत्येक आंदोलनकारी को अपने कार्य के प्रति उत्तरदायी बनाता है। स्वराज्य प्राप्ति के लिए इससे बढकर निष्क्रिय प्रतिरोध का और कोई उपाय नहीं है।

ब्रिटिश शासन के प्रति निष्ठावान

गोखले भारत में ब्रिटिश शासन के प्रति निष्ठावान थे। वे अंग्रेजी राज के प्रति इसलिए निष्ठावान नहीं थे कि वह विदेशी शासन था, बल्कि इसलिए निष्ठा रखते थे कि वह व्यवस्थित शासन था।

गोखले अव्यवस्था अथवा अराजकता के विरोधी थे। वे शासन को कमजोर बनाने वाले किसी भी कार्य के लिए सहमत नहीं थे। वे स्वामिभक्ति के वशीभूत होकर शासन की सदैव रक्षा तथा सहायता करने के पक्षपाती थे।

वे ब्रिटिश जनमत तथा भारत के अंग्रेजी शासन को भारत के विकास का सहभागी मानते थे। वे भारत में अंग्रेजी शासन के लाभ को विस्मृत कर सुधारों की प्रक्रिया को त्यागना पसंद नहीं करते थे। राष्ट्र के पुननिर्माण के लिए वे क्रमिक विकास पर बल देते थे।

इसीलिए स्वतंत्रता या स्वराज्य की तत्काल प्राप्ति के स्थान पर गोखले,ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत स्वशासन की स्थापना चाहते थे।

उनके द्वारा समय-2 पर विभिन्न सुधारों की माँग की गई है और उसके आशातीत परिणाम सामने आये। गोखले सुधारवादी थे और इस कारण वे शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के प्रबल हिमायती थे। वे उत्तेजनात्मक भाषणों तथा लेखों द्वारा जन-आंदोलन को प्रेरित कर जनता को शासन के क्रूर अत्याचारों का शिकार बनाना पसंद नहीं करते थे।

हिंसा,प्रतिहिंसा,घृणा, विद्वेष तथा नरसंहार भारत की समस्याओं का स्थायी हल नहीं था। वे अंग्रेजों को उनकी न्यायप्रियता एवं मानव स्वतंत्रता की उदारवादी परंपराओं के अनुरूप व्यवहार करने का आग्रह कर भारत की समस्याओं का शांतिपूर्ण समाधान चाहते थे।

गोखले ने राजनीति में नैतिकता को सर्वोपरि मानते हुए साधन तथा साध्य की एकरूपता पर बल दिया। साधन की पवित्रता साध्य को भी पवित्र बना देती है। वे भारत में उच्च नैतिक चरित्र के निर्माण को अत्यधिक महत्त्व देते थे।

अपने जीवन में सत्य तथा नैतिक दायित्व की पूर्ति के लिए गोखले ने अपने राजनैतिक नेतृत्व तक की चिन्ता नहीं की। उनका राजनीतिक उद्देश्य सत्ता तथा शक्ति प्राप्त करने का न होकर सेवाधर्म निभाने का था।

उनकी दृष्टि में स्वतंत्रता या स्वराज्य का उतना महत्त्व नहीं था जितना भारतीयों में चारित्रिक मनोबल के उन्नयन का। उनके अनुसार नैतिक मूल्यों का उचित ढंग से निर्वाह कर भारत स्वतः स्वराज्य की ओर अग्रसर हो सकता था। जनता को शासन से संबंधित करने के लिए गोखले ने लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण का सुझाव दिया।

गोखले द्वारा बताई गई तीन प्रमुख प्रशासनिक आवश्यकताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. सभी महत्त्वपूर्ण प्रांतों में इंग्लैण्ड द्वारा मनोनीत गवर्नर नियुक्त किये जाएँ तथा उनकी सहायता के लिए ऐसी कार्यकारिणी परिषद् नियुक्त की जाय जिसके तीन या चार सदस्य हों।
  2. प्रांतीय व्यवस्थापिका का विस्तार कर उसे अधिक से अधिक प्रतिनिधि मूलक बनाया जाए।सदस्यों को बजट पर विचार-विमर्श करने तथा संशोधन प्रस्तुत करने का अधिकार होना चाहिए।
  3. निर्वाचित सदस्यों की माँग पर परिषद् का विशेष अधिवेशन बुलाये जाने की व्यवस्था होनी चाहिए।

स्थानीय स्वशासन से संबंधित गोखले के विचार

गोखले स्थानीय स्वशासन को बाह्मा नियंत्रण एवं हस्तक्षेप से मुक्त रखना चाहते थे।वे केन्द्रीय सरकार को प्रतिरक्षा, विदेशी मामले, मुद्रा, आबकारी, डाक-तार, रेल तथा कर एवं व्यवस्थापन का अधिकार सौंपकर अन्य विभागों का दायित्व प्रांतीय सरकारों को सौंपने के पक्ष में थे।

वे स्थानीय स्वशासन (Local self-government)को पूर्ण स्वायत्तता देने के पक्ष में थे। वे पंचायती राज (Panchayati Raj)व्यवस्था की पुनः स्थापना के पक्ष में थे तथा नगरपालिकाओं (Municipality)के स्वतंत्र निर्वाचन कराये जाने के पक्ष में थे।

वे जिला बोर्डों में निर्वाचित सदस्यों की संख्या बढाना चाहते थे।उन्होंने लोक सेवाओं में भारतीयों को सीधी भर्ती को तुरंत कार्यान्वित करने पर बल दिया।वे चाहते थे कि भारत में शिक्षा के ऐसे प्रबंध किये जाएँ जिससे भारतीयों को उच्च सेवा में नियुक्त होने में कठिनाइयों का सामना न करना पङे।
जिन सेवाओं के लिए प्रतियोगी परिक्षाओं का प्रावधान नहीं था, वहाँ दो – तिहाई स्थान सीधी भर्ती से तथा एक-तिहाई वरिष्ठता के आधार पर किये जाएँ।

वे भारतीय प्रशासनिक सेवा से न्यायिक सेवा को अलग रखने के पक्ष में थे। वे भारतीय पुलिस सेवा,भारतीय शिक्षा सेवा, भारतीय न्यायिक सेवा, चिकित्सा सेवा, तकनीकी सेवाओं आदि का भारतीयकरण करने के हिमायती थे।

यद्यपि उनके सुझाव उस समय स्वीकार नहीं किये गये, लेकिन उनके विचार भारत की भावी प्रशासनिक व्यवस्था के आधार बने।

गोखले का राजनीतिक वसीयतनामा

लार्ड विलिंगडन के आग्रह पर गोखले ने 1915 ई. में भारत के भावी संवैधानिक सुधारों का सुझाव प्रस्तुत किया, जिसे गोखले का राजनीतिक वसीयतनामा कहा जाता है।

गोखले ने सुझाव दिया कि भारत के प्रत्येक प्रांत में इंग्लैण्ड की सरकार द्वारा गवर्नर नियुक्त किया जाय। प्रत्येक प्रांत छः सदस्यों की कार्यकारिणी परिषद् की नियुक्ति की जाय जिसमें तीन अंग्रेज और तीन भारतीय होने चाहिए।

प्रत्येक प्रांत में विधान परिषद् की सदस्य संख्या 75से100 के बीच रखी जाये। मुसलमानों तथा अन्य अल्पसंख्यकों के लिए स्थान सुरक्षित रखे जाए।गोखले उत्तरदायी शासन की स्थापना के स्थान पर प्रतिक्रियात्मक शासन की स्थापना चाहते थे, जिसमें कार्यपालिका व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित न हो तथा कार्यपालिका, व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी न हो।

वे प्रांतों में उत्तरदायी तथा प्रतिनिध्यात्मक व्यवस्थापिका अवश्य चाहते थे, लेकिन उस व्यवस्थापिका को इंग्लैण्ड के कॉमन सदन के समान शक्तिशाली नहीं बनाना चाहते थे।

गोखले ने प्रांतीय स्वायत्तता के लिए वित्तीय विकेन्द्रीकरण पर बल दिया।किन्तु अधिक राजस्व की प्राप्ति पर प्रांतीय सरकार अतिरिक्त धन भारत की केन्द्रीय सरकार को दे।वे प्रांतों द्वारा पृथक वित्तीय साधनों के संधारण पक्ष में थे ताकि प्रांतों की आर्थिक स्थिति केन्द्र की कृपा पर निर्भर न हो।

वे जिला प्रशासन तथा स्थानीय स्वशासन में ऐसे परिवर्तन तथा प्रयोग चाहते थे जिससे अधिक रचनात्मक कार्य संभव हो सके।

ग्राम पंचायतों की स्थापना निर्वाचन तथा मनोनयन के आधार पर हो। गोखले ने नगरपालिकाओं,तालुका बोर्ड आदि को पूर्णतया निर्वाचित संस्थाओं में परिवर्तित करने का सुझाव दिया।

वायसराय की कार्यकारिणी परिषद् के छः सदस्यों में से दो भारतीय होने चाहिए।वे विधान परिषद् में सरकारी बहुमत को तब तक बनाये रखना चाहते थे जब तक कि प्रांतों में पूर्ण स्वायत्तता की स्थापना नहीं हो जाती।

उन्होंने वित्तीय मामलों में भारत सचिव के नियंत्रण को कम करने का सुझाव भी दिया।वे लंदन स्थित इंडिया कौंसिल को समाप्त करने के पक्ष में थे।

गोखले ने भारतीयों को सेना के प्रत्येक अंग में उच्च पद देने का भी सुझाव दिया।गोखले यथार्थ उदारवादी थे। उनके द्वारा सुझाये गये सुधारों तथा मॉडेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों की योजना को अत्यधिक प्रभावित किया। भारत में स्वशासन तथा नागरिक स्वतंत्रता की मान्यता की दिशा में गोखले के राजनैतिक विचारों का अत्यधिक महत्त्व है।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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