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भारतीय पुनर्जागरण के कारण क्या थे

भारतीय पुनर्जागरण

पुनर्जागरण के प्रणेताओं ने भारत के प्राचीन गौरव को पुनः स्थापित करने का प्रयत्न किया और इसके साथ ही प्राचीन सभ्यता के दोषों को दूर करते हुए समाज के लिए प्रगति का नया आधार प्रदान किया। पुनर्जागरण के प्रणेताओं के अनुसार भारतीय सभ्यता और संस्कृति श्रेष्ठ है। आरंभ में भारतीय पुनर्जागरण एक बौद्धिक आंदोलन था, जिसने हमारे साहित्य,शिक्षा तथा हमारी विचारधारा को प्रभावित किया। अपने दूसरे चरण में एक तथा अनेक सामाजिक और धार्मिक आंदोलनों का आधार बना, जिससे हमारे समाज और धर्म को प्रभावित किया। अपने तीसरे और अंतिम चरण में उसने भारत के राजनैतिक आंदोलन को जीवन प्रदान किया,जिसके परिणामस्वरूप हमें राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त हो सकी। 19वी. शता. के इस पुनर्जागरण के निम्मलिखित कारण थे-

एशिया में जागरण का प्रभाव

19वी. शता. में संपूर्ण एशिया में जागृति की लहर व्याप्त हो गयी थी। चीन में विदेशियों के प्रभुत्व के विरुद्ध अनेक गुप्त समितियों का निर्माण हो चुका था। जिन्होंने चीन में अनेक विद्रोहों को जन्म दिया। तत्पश्चात् चीन में सनयातसेन ने देश में जागृति उत्पन्न करने का उत्तरदायित्व संभाला। इसी प्रकार जापान में सम्राट का आदर करो, विदेशियों को भगा दो। का नारा गूँजने लगा तथा मुत्सोहितों ने जापान में जागृति उत्पन्न की तथा अंतर्जातीय प्रतिबंधों के विरुद्ध आवाज उठने लगी। यह मध्यम वर्ग पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित था। अतः वे अपने सामाजिक जीवन को अंग्रेजों के सामाजिक जीवन के आधार पर ढालना चाहते थे। इसलिए 19वी. शता.के समाज सुधार आंदोलन मुख्य रूप से स्रियों की स्थिति को सुधारने से संबंधित थे।

स्रियों की शिक्षा,पर्दा प्रथा समाप्त करना, अंतर्जातीय विवाह के प्रतिबंधों को तोङना, बाल विवाह को रोकना, विधवा विवाह के प्रतिबंधों को समाप्त करना आदि समाज सुधार आंदोलन के मुख्य लक्ष्य थे।

अंग्रेजों द्वारा आर्थिक शोषण

अंग्रेजों ने भारत में आर्थिक शोषण की नीति अपनाई। अंग्रेजों की इस नीति के फलस्वरूप प्राचीन अर्थव्यवस्था भंग हो गयी तथा किसानों, शिल्पियों आदि को जीवन निर्वाह के अन्य साधन खोजने के लिए विवश कर दिया। वास्तव में अंग्रेजों के आर्थिक एवं साजनीतिक शोषण ने भारत की उन शक्तियों को सचेष्ट कर दिया, जो भारत के प्राचीन गौरव को पुनः स्थापित करने हेतु प्रयत्नशील हो गयी थी। अंग्रेजों की नई आर्थिक नीति के फलस्वरूप लोग अपने गाँव छोङकर नगरों में रहने लग गये। नगरों में वे उन बंधनों से मुक्त थे, जो गाँव में विद्यमान थे। नई परिस्थितियों एवं वातावरण में जीवन व्यतीत करने के लिए गाँवों में प्रचलित परंपराएँ असंगतपूर्ण थी अतः समाज सुधार के प्रयास प्रायः नगरों तक सीमित रहे।

पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव

भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रारंभ ईसाई पादरियों के प्रयत्नों से हुआ। 1835 ई. में अंग्रेजी भाषा, शिक्षा का माध्यम स्वीकार कर ली गई। उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु अनेक भारतीय इंग्लैण्ड गये तथा अन्य यूरोपीय देशों की यात्रायें की। अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार से पाश्चात्य देशों की सभ्यता और साहित्य के विष्य में ज्ञान उपलब्ध हुआ, जिससे भारतीय स्थिति का तुलनात्मक अध्ययन संभव हो सका। शैक्षणिक क्षेत्र में आधुनिक प्रवृतियाँ एवं अंग्रेजी साहित्य में निहित स्वतंत्रता एवं लोकतंत्र की भावनाओं ने भारतीयों के ह्रदय को झकझोर दिया। भारतीयों के ह्रदय में गुलामी के प्रति घृणा उत्पन्न हो गयी। उन्होंने समझा कि हमारी गुलामी का कारण समाज का खोखलापन है। अतः आरंभ में समाज सुधार की आवाज अंग्रेजी पढे-लिखे लोगों ने ही उठाई। किन्तु इस कार्य में सफलता उन्हीं लोगों को मिली, जिन्होंने प्राचीन भारतीय संस्कृति से प्रेरणा ग्रहण की थी।

ईसाई धर्म-प्रचारकों की आलोचना

ईसाई धर्म -प्रचारकों ने न केवल भारतीय धर्म का मजाक उङाया, बल्कि भारतीय सामाजिक ढाँचे की कटु आलोचना भी की। उन्होंने हिन्दू समाज के लिए सभी प्रकार के अपशब्दों का प्रयोग किया तथा ईसाई धर्म की श्रेष्ठता का प्रचार किया। ईसाई मिशनरियों द्वारा अपने धर्म की प्रशंसा करने की बात तो समझ में आती है, किन्तु यहाँ के धर्म को झूठा, आडंबरी एवं पाखंडी बताना सर्वथा अनुचित था। कार्नवालिस से लेकर केनिंग तक और उसके बाद अनेक गवर्नर-जनरलों के भारतीयों के संबंध में तिरस्कारात्मक विचार थे। बैंटिक, मेटकॉफ, मेकाले आदि प्रशासक यहाँ व्याप्त विभिन्न कुरीतियों एवं अंधविश्वासों को दूर करके कुछ सुधार करना चाहते थे, किन्तु भारतीय समाज एवं संस्कृति के प्रति उनके मन में घोर घृणा की भावना थी और उनके सुधारवादी दृष्टिकोण में पाश्चात्यता का अभाव था। अतः उन्होंने भी ईसाई धर्म-प्रचारकों को सहयोग और सहायता प्रदान की । ऐसी स्थिति में हिन्दुओं और मुसलमानों का ध्यान अपने धर्म की रक्षा करने की ओर आकर्षित हुआ।

भारतीय समाचार-पत्र एवं साहित्य

भारतीय समाचार-पत्रों,पत्रिकाओं, साहित्य आदि ने भी भारतीय पुनर्जागरण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। प्रेस की स्थापना से विचारों के आदान-प्रदान की सुविधा हो गयी। अब कुछ ऐसे समाचार-पत्र एवं पत्रिकायें प्रकाशित होने लगी, जिनमें अंग्रेजों के दुर्व्यवहार,प्रजातीय विभेद नीति और उनके शोषण के समाचार प्रकाशित होते थे और भारतीय राष्ट्रवादियों के विचार भी प्रकाशित होते थे, इनसे भारतीयों में जागरुकता उत्पन्न हो गयी। रेलों के निर्माण से भी विचार-विमर्श को प्रोत्साहन मिला। मध्यकाल में समाज सुधार आंदोलन क्षेत्रीय स्तर से अधिक व्यापक नहीं हो पाया था, किन्तु अब समाचार-पत्रों के माध्यम से वह व्यापक होगया।

इन सभी कारणों से भारत में पुनर्जागरण की एक अद्भुत लहर उत्पन्न हो गई। भारत में नवचेतना की जो लहर उत्पन्न हुई उसने शैक्षणिक,सामाजिक,धार्मिक और राजनीतिक सभी क्षेत्रों को प्रभावित किया।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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