इतिहासजैन धर्मप्राचीन भारत

जैन दर्शन क्या है

जैन दर्शन प्राचीन भारतीय दर्शन है। इसमें अहिंसा पर अत्यधिक बल दिया गया है।जैन दर्शन में 24 तीर्थंकर हुए हैं, जो संसार के चक्र में फंसे जीवों के कल्याण के लिए उपदेश देने के लिए इस धरती पर आये थे।

  • जैन दर्शन में वर्ण व्यवस्था, यज्ञ, कर्मकाण्ड का विरोध किया गया है।
  • यह एक नास्तिक दर्शन (वेदों में आस्था नहीं) है।
  • अनीश्वरवादी दर्शन (ईश्वर की सर्वोच्चता को स्वीकार नहीं किया) अर्थात ईश्वर को तीर्थंकरों के नीचे स्थान दिया गया है।
  • अनेकांतवाद/ सर्वात्मवाद – सभी प्राकृतिक, सजीव, निर्जीव, वस्तुओं के लिये आत्मा (जीव) होती है। उदाहरण – मनुष्य, पशु – पक्षी, पेङ – पौधे, पर्वत, नदी, पत्थर में भी आत्मा है।
  • कल्प वृक्ष की अवधारणा प्रथम बार जैन धर्म में आई।
  • अहिंसा पर ज्यादा बल देना।
  • काया क्लेश को तपस्या का अंग बताया है तथा इसके माध्यम से जीव (आत्मा) की शुद्धि की बात की गई है।
  • जैन धर्म, बौद्ध धर्म तथा हिन्दू धर्म के विपरीत सृष्टि को अनादि एवं अनंत मानता है। अर्थात सृष्टि का न तो आरंभ हुआ और न कभी उसका अंत होगा। इस धर्म के अनुसार सृष्टि के निर्माण व संचालन में ईश्वर की कोई भूमिका नहीं है, सृष्टि अपने स्वयं के नियमों से परिचालित होती है।
  • सृष्टि में उत्थान व पतन का काल आता है। जिसे क्रमशः उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कहते हैं।
  • सृष्टि के प्रत्येक चक्र में 63 शलाका पुरुष, 24 तीर्थंकर, 18 चक्रवर्ती शासक होते हैं, वर्तमान में उत्सर्पिणी काल चल रहा है।
  • जैन धर्म में 8 प्रकार के कर्म तथा 18 प्रकार के पापों का उल्लेख किया गया है।
  • सृष्टि का विकास जीव(आत्मा) + अजीव(जङ) के संयोजन से हुआ है।
    • सृष्टि के विकास में सहायक जीव-

जीव के अनेक प्रकार होते हैं, जिनको दो भागों में बांटा गया है-

  1. मुक्त जीव – कैवल्य(मोक्ष) प्राप्त व्यक्ति, 24 तीर्थंकर।
  2. बंधनग्रस्त जीव – जीव का जब कर्म व पुद्गलों के साथ संयोजन हो जाता है तो जीव बंधनग्रस्त  हो जाता है। तथा दुःख भोगता है। इस अवस्था में जीव अपने स्वाभाविक गुणों (अनंन्त ज्ञान, अनंन्त दर्शन, अनंन्त वीर्य, अनंन्त आनंद अर्थात  अनंन्त चतुष्टय) का पतन करता है। बंधन की दो प्रक्रिया हैं-
    • आश्रव – जीव की ओर कर्म पुद्गल का प्रवाह।
    • बंधन- जीव के साथ कर्म पुद्गल का संयोजन।
    • सृष्टि के विकास में सहायक अजीव –

अजीव पांच प्रकार का होता है-

  1. धर्म-गति में सहायक।
  2. अधर्म – स्थिरता में सहायक।
  3. काल – समय में सहायक।
  4. आकाश – स्थान में सहायक।
  5. पुद्गल – एक अजीव पदार्थ है, जिसका संयोजन और विभाजन हो सके तथा सूक्ष्म अणु कहलाता है वही पुद्गल है।
  • जैन दर्शन में मोक्ष की दो प्रक्रिया हैं-
    1. संवर – जीव की ओर कर्म पुद्गलों के प्रवाह को रोकना।
    2. निर्जरा – जीव में पहले से व्याप्त पुद्गल को हटाना।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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