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लखनऊ समझौता(अधिनियम) क्या था

सर सैयद अहमदखाँ(Sir Syed Ahmedkha) ने मुसलमानों को काँग्रेस के राष्ट्रीय आंदोलन(National Movement) से अलग रखने का प्रयत्न किया था।किन्तु 1912 के बाद परिस्थितियाँ बदलने लगी।1912-13 में हुए बाल्कन युद्धों(Balkan War) में अंग्रेजों(The British) की सहानुभूति टर्की के साथ नहीं थी।

1911 में बंगाल विभाजन(Partition of Bengal) भी रद्द कर दिया गया था और मुसलमानों के हितों की उपेक्षा की गई थी। प्रथम विश्व युद्ध (First world war)में काँग्रेस ने पूरी सहायता की थी। इसलिए सरकार की काँग्रेस के प्रति सहानुभूति थी।

अतःमुस्लिम लीग(Muslim league) ब्रिटिश सरकार(British Government) से नाराज थी। 1913 में मुस्लिम लीग ने अपने लखनऊ अधिवेशन में यह प्रस्ताव पास कर दिया कि उसका लक्ष्य ब्रिटिश ताज के अधीन भारत के लिए स्वराज्य प्राप्त करना है। इससे काँग्रेस व मुस्लिम लीग में सहयोग का मार्ग प्रशस्त हो गया, क्योंकि दोनों के उद्देश्य अब काफी सीमा तक समान हो गये थे।

प्रथम महायुद्ध में भारतीय मुसलमानों की सहानुभूति टर्की के साथ थी, अतः उन्होंने ब्रिटिश सरकार की आलोचना शुरू कर दी।अतः सरकार ने मोहम्मद अली, शौकत अली,मौलाना अब्दुल कलाम आजाद को कैद कर लिया।

इससे मुसलमानों का रोष अधिक बढ गया और उन्होंने काँग्रेस से समझौता करने की आवश्यकता अनुभव की।

मुहम्मद अली जिन्ना(Muhammad Ali Jinnah) के प्रयत्नों से 1915 में दोनों संस्थाओं के अधिवेशन एक ही दिन बंबई में बुलाये गये।महात्मा गाँधी, मदनमोहन मालवीय,सरोजनी नायडू जैसे प्रसिद्ध नेताओं को मुस्लिम लीग के अधिवेशन में नियंत्रित किया गया, जहाँ उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के बारे में भाषण दिये।

काँग्रेस व मुस्लिम लीग ने एक संयुक्त समिति बुलाई, जिसने दोनों संस्थाओं में मेल उत्पन्न करने हेतु एक योजना तैयार की। इस योजना को काँग्रेस लीग योजना कहते हैं।

1916 में दोनों संस्थाओं ने अपने लखनऊ अधिवेशन(Lucknow session) में इस योजना को स्वीकार कर लिया, इसलिए इसे लखनऊ समझौता भी कहा जाता है।

लखनऊ समझौते की मुख्य बातें निम्न थी-

  1. काँग्रेस ने साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली तथा मुसलमानों को उनकी जनसंख्या के अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व देने की माँग स्वीकार कर ली।विभिन्न प्रांतीय व्यवस्थापिका सभाओं में निर्वाचित सदस्यों का निश्चित भाग मुस्लमानों के लिए आरक्षित कर दिया गया।
  2. केन्द्रीय विधान परिषद् में निर्वाचित सदस्यों का 1/3 भाग मुसलमानों के लिए आरक्षित कर दिया गया, जो मुस्लिम मतदाताओं द्वारा चुने जायेंगे।
  3. यदि किसी गैर सरकारी सदस्य द्वारा ऐसा कोई प्रस्ताव या विधेयक परिषद् में प्रस्तुत किया जाय जो दूसरे संप्रदाय के हितों को प्रभावित करता हो और उस संप्रदाय के 3/4 सदस्य उस प्रस्ताव या विधेयक का विरोध करें तो उसे पारित नहीं किया जायेगा।
  4. प्रांतीय कार्यकारिणी परिषद् में कम से कम आधे सदस्य भारतीय होने चाहिए, जो उस प्रांत की विधान परिषद् द्वारा चुने जायेंगे।इसी प्रकार गवर्नर जनरल की कौंसिल के भी आधे सदस्य भारतीय होने चाहिए, जो केन्द्रीय विधान परिषद् द्वारा चुने जायेंगे।इस चुनाव में केन्द्रीय विधान परिषद् के केवल निर्वाचित सदस्यों को ही मत देने का अधिकार होना चाहिये।
  5. केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधान परिषदों में 80 प्रतिशत सदस्य निर्वाचित होने चाहिये।
  6. भारत सचिव की इंडिया कौंसिल को समाप्त कर दिया जाय और भारत सचिव का वेतन भारतीय कोष की बजाय इंग्लैण्ड के कोष से दिया जाय।

लखनऊ समझौते का मूल्यांकन-

काँग्रेसी नेताओं ने इस समझौते को अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण बताया। तिलक और एनी बेसेन्ट ने भी इस समझौते का समर्थन किया।

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के अनुसार – यह दिन भारतीय इतिहास का सुनहरा दिन था। वे अपनी सफलता इस बात में समझ रहे थे कि उन्होंने मुसलमानों की प्रमुख राजनीतिक संस्था से कुछ माँगों पर सहमति प्राप्त कर ली थी। जिनका अब तक मुस्लिम लीग विरोध करती आ रही थी।

किन्तु दुर्भाग्य की बात है कि काँग्रेसियों ने या तो इसके दूरगामी परिणामों को ठीक से समझा ही नहीं या फिर उनकी उपेक्षा की। काँग्रेस ने अब तक सांप्रदायिक निर्वाचन प्रणाली का विरोध किया था, किन्तु इस समझौते में इसे स्वीकार कर लिया,जिससे राष्ट्रीय एकता का सिद्धांत समाप्त हो गया।

काँग्रेसियों ने मुस्लिम लीग को मुसलमानों की एकमात्र प्रतिनिधि संस्था मानकर अपने आप को हिन्दुओं का प्रतिनिधि बना लिया।

वस्तुतः वह यह समझौता काँग्रेस द्वारा मुसलमानों के प्रति तुष्टिकरण की नीति का प्रारंभ था। इससे मुसलमानों की साम्प्रदायिक भावनाएँ अधिक तीव्र हुई, जिसका अंतिम परिणाम देश का विभाजन था। निःसंदेह यह राष्ट्रीय एकता की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम था, किन्तु काँग्रेस को इसके लिए बहुत बङी कीमत चुकानी पङी।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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