इतिहासमध्यकालीन भारतमुगल काल

मुगलकालीन प्रांतीय शासन व्यवस्था कैसी थी

mughal empire

अन्य संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्य-

मुगलों का प्रांतीय शासन केन्द्रीय शासन का ही प्रतिरूप था। प्रशासन की दृष्टि से मुगल साम्राज्य को

  • सूबों (प्रांतों)में,
  • सूबों को सरकारों (जिलों)में,
  • सरकारों को परगनों (महालों) में तथा
  • परगनों को गाँवों में बांटा गया था।

बाबर और हुमायूँ के शासन काल में मुगल प्रदेशों के प्रशासनिक मंडल सूबों की अपेक्षा जिले (सरकार)में विभक्त थे। शेरशाह ने भी प्रांतों को समुचित रूप से संगठित नहीं किया था।

सर्वप्रथम अकबर ने ही प्रांतीय प्रशासन के लिए एक नया और विस्तृत आधार प्रस्तुत किया ।

सर्वप्रथम अकबर ने 1580ई. में अपने संपूर्ण साम्राज्य को 12 सूबों में विभाजित किया, किन्तु शासनकाल के अंतिम समय में दक्षिण भारत के बरार, खानदेश एव अहमदनगर की विजय के पश्चात सूबों का ही वर्णन किया है।

किन्तु अबुल फजल ने अपने आइने-अकबर में केवल 12सूबों का ही वर्णन किया है।

जहाँगीर ने कांगङा विजय करके उसे लाहौर सूबे में मिला लिया, जो पहले से ही एक सूबा था। इसलिए उसके समय में सूबों की संख्या पूर्ववत् रही।

शाहजहाँ ने कश्मीर, थट्टा और उङीसा को ( जो अकबर के समय में क्रमशः लाहौर,मुल्तान एवं बंगाल सूबों में सम्मिलित थे) स्वतंत्र सूबा बना दिया।जिससे उसके काल में सूबों की संख्या बढकर 18 हो गई।

शाहजहाँ ने 1633ई. में अहमदनगर को पूर्णतःजीतकर साम्राज्य में मिलाया।किन्तु उसे कोई नया सूबा नहीं बनाया(क्योंकि अकबर के काल में ही अहमदनगर एक सूबा बन चुका था।)

औरंगजेब द्वारा बीजापुर(1686) एवं गोलकुण्डा (1687)को जीतकर साम्राज्य में मिलाने से सूबों की संख्या बढकर 20 हो गयी।

सूबेदार-

अकबर के काल में प्रांतीय प्रशासन के प्रमुख अधिकारी को सरकारी तौर पर सिपहसालार (गवर्नर) कहा जाता था, जिसे उसके उत्तराधिकारियों के समय में – नाजिम या सूबा-साहब कहा जाने लगा।परंतु जनसाधारण में वह सूबेदार, सूबा-साहब या केवल सूबा के नाम से जाना जाता था।

सूबेदार को सूबे के संपूर्ण सैनिक एवं असैनिक अधिकार प्राप्त थे। सूबेदार का स्थानान्तरण आवश्यकता पङने पर होता रहता था।

1586 ई. में अकबर ने सूबों में एक नया परिवर्तन करते हुए एक नया दीवान पद सृजित कर दिया जो सूबेदारों की शक्ति पर नियंत्रण रखता था।

सूबेदारों (गवर्नर) को किसी भी जागीरदार या अधिकारी को अपनी स्पष्ट आज्ञा का उल्लंघन करने पर उसे दंडित करने का अधिकार था,किन्तु वह केन्द्र से सीधा संबंध रखने वाले किसी भी शहजादे को दंडित नहीं कर सकता था।

मुगल काल में गवर्नर ( सूबेदार) टोडरमल को मात्र राजपूतों से संधियां करने तथा उन्हें मनसब प्रदान करने का अधिकार प्रदान किया था।

प्रांतीय दीवान-

प्रांतीय दीवान(दीवाने सूबा) सूबे ( प्रांत) का वित्त अधिकारी होता था यद्यपि वह ओहदे में सूबेदार (गवर्नर) से नीचे होता था, किन्तु वह सूबेदार का मातहत नहीं होता था। वह सीधे शाही दीवान के प्रति उत्तरदायी होता था।

दीवान सूबे में वित्त एवं राजस्व का प्रमुख होता था जबकि सूबेदार कार्यकारिणी का प्रमुख होता था।

दीवान-ए-सूबा का प्रमुख कार्य भू राजस्व एवं अन्य करों की वसूली करना, आय-व्यय का हिसाब रखाना, सूबे की आर्थिक स्थिति की सूचना केन्द्रीय सरकार को देने के साथ-2 दीवानी (धन अथवा लगान संबंधी) मुकदमों का निर्णय करना था।इस प्रकार दीवान और सूबेदार एक दूसरे के नियंत्रण रखते थे।प्रांतों के शासनाधिकार का यह विभाजन मिस्र की सरकार की अरबी व्यवस्था से मिलता जुलता था।

बख्शी-

बख्शी की नियुक्ति केन्द्रीय मीर बख्शी के अनुरोध पर शाही दरबार द्वारा की जाती थी।

बख्शी का मुख्य कार्य सूबे की सेना की देखभाल करना था, प्रांतीय बख्शी को वाकिया निगार (वाकिया नवीस) के रूप में भी कार्य करना होता था। इस रूप में इसका कार्य सूबे की समस्त जानकारी केन्द्र को देना था।

प्रांतीय बख्शी और केन्द्रीय मीरबख्शी में एक अंतर था कि प्रांतीय बख्शी सेना का वेतनाधिकारी होता था जबकि केन्द्रीय मीरबख्शी सेना का वेतनाधिकारी नहीं होता था। केन्द्र में यह काम दीवाने-तन करता था।

प्रांतीय गवर्नर एवं प्रांतीय दीवान के बीच टकराव हो जाने पर सूबों की समस्त जानकारी को केन्द्र सरकार तक भेजने के लिए संवाददाताओं की एक और टोली होती थी, जिसे सवानी-नवीस( खुफिया नवीस) कहा जाता था।वे गुप्त रूप से केन्द्र को सूबे की सूचनाएं उपलब्ध कराते थेऔर बाद में वे ही डाक -अधिकारी के रूप में भी काम करते थे।

प्रांतीय सद्र-

प्रांतीय सद्र एवं प्रांतीय काजी का पद कभी-2 एक ही व्यक्ति को दे दिया जाता था। अतएव सद्र की दृष्टि से वह प्रजा के नैतिक चरित्र एवं इस्लाम धर्म के कानूनों के पालन की व्यवस्था करता था और काजी की दृष्टि से न्याय करता था।

प्रांतीय सद्र अनुदानों में उत्तराधिकार या अन्य विवाद उठने पर उसका निपटारा भी करता था। उसे मीर-ए-अदल भी कहा जाता था।

कोतवाल सूबे की राजधानी तथा बङे-2 नगरों में कानून एवं व्यवस्था की देखभाल करता था।

सरकार (जिले) का शासन-

मुगलकाल में सरकार (जिलों) में फौजदार,आमिल,कोतवाल और काजी इत्यादि महत्वपूर्ण अधिकारी होते थे।

फौजदार-

मुगल काल में सरकार का मुख्य प्रशासक फौजदार होता था। इसका मुख्य कार्य -सरकार में कानून-व्यवस्था बनाये रखना तथा चोर-लुटेरों से जनता की रक्षा करना था।इसके अतिरिक्त उसे राजस्व उगाही में अमलगुजार की सहायता भी करनी पङती थी।

शेरशाह के समय में इसे मुंसिफ-ए-मुंसिफान कहा जाता था।जो परगनों के मालगुजारी कर्मचारियों के कार्यों का निरीक्षण करता था।मुगल बादशाहों के समय में फौजदारों को न्यायिक अधिकार भी दिये जाते थे।

औरंगजेब की मृत्यु के बाद लगभग फौजदारों का पद वंशानुगत हो गया।

अमलगुजार-

आमिल या अमलगुजार सरकार का वित्त अधिकारी होता था।उसका कार्य-लगान वसूल करना तथा कृषि एवं किसानों दोनों की देखभाल करना था। वह खालिसा भूमि का राजस्व भी एकत्र करता था।

इसके अतिरिक्त बह कोतवाल के न्यायिक कार्यों  को भी करता था। कानून एवं सुरक्षा व्यवस्था तथा सफाई व्यवस्था जैसे कार्यों  को नहीं करता था।

वितिक्ची-

अमल गुजार के अधीन एक लिपिक होता था, उसे भूमि और लगान संबंधी कागजात तैयार करना होता था। जिसके आधार पर अमलगुजार लगान वसूल करता था।

कोतवाल की नियुक्ति मीर-आतिश की सिफारिश पर केन्द्र सरकार द्वारा की जाती थी।उसका मुख्य कार्य नगर में शांति एवं सुरक्षा स्थापित करना, स्वच्छता एवं सफाई की व्यवस्था करना था। इसके अतिरिक्त उसे न्यायिक कार्य भी करना पङता था।

कोतवाल की कचहरी को चबूतरा कहा जाता था, जहाँ वह शहर के विवादों से संबंधित न्यायिक कार्य करता था।वह नगर में घटने वाली समस्त घटनाओं के प्रति उत्तरदायी होता था।खजानदार सरकार (जिले) का खजांची होता था। इसका मुख्य कार्य- सरकारी खजाने की सुरक्षा करना था। यह अमलगुजार के अधीन रहता था।

काजी-ए-सरकार- की नियुक्ति काजी-ए-सूबा की संस्तुति पर सद्र-उस-सुदूर द्वारा की जाती थी।

न्यायाधिकारी का कार्य करने के कारण काजी को शरियत-पनाह की उपाधि भी दी जाती थी।

औरंगजेब के शासनकाल में काजी जजिया एवं जकात करों की वसूली के लिए भी उत्तरदायी थी।

परगने का प्रशासन-

प्रत्येक सरकार कई परगनों में बंटा होता था। परगने के प्रमुख अधिकारी शिकदार,आमिल,फोतदार, कानूनगो और कारकून होते थे।

शिकदार-यह परगने का प्रमुख अधिकारी होता था। उसका मुख्य कार्य – परगने में शांति व्यवस्था स्थापित करना तथा राजस्व वसूल करवाने में आमिल की मदद करना था।

आमिल- यह परगने का वित्त अधिकारी होता था किसानों से लगान वसूल करना उसका मुख्य कार्य होता था।

अकबर ने अपने शासन काल के 18वें वर्ष प्रत्येक परगने (महाल)में, जिसकी मालगुजारी आय प्रतिवर्ष 1करोङ दाम (25000रु.) थी, एक आमिल नियुक्त किया। जिसे जनसाधारण में करोङी कहा जाता था।

शाहजहाँ के शासन काल में प्रत्येक परगने में मालगुजारी निर्धारण के लिए एक परगना अमीन की नियुक्ति हुई।

कानूनगो परगने के पटवारियों का प्रधान होता था। वह लगान एवं कृषि संबंधी सभी कागजातों को तैयार करता था।

अबुल फजल के अनुसार- कानूनगो द्वारा वसूल किये गये लगान का 1 प्रतिशत जो उसे दस्तूरी के रूप में मिलता था नानकार कहा जाता था।

कारकुन परगने के क्लर्क होते थे, जो लिखा-पढी का कार्य करते थे।इस प्रकार जिले(सरकार) में जो काम वितिक्ची का होता था परगने में वही कार्य कारकुन का होता था।

अकबर के काल में परगने के अभिलेख केवल फारसी भाषा में ही लिखे जाते थे।

ग्राम प्रशासन –

मुगल शासक गांव को एक स्वायत्त-संस्था मानते थे जिसके प्रशासन का उत्तरदायित्व मुगलों अधिकारियों को नहीं दिया जाता था।बल्कि परंपरागत ग्राम पंचायतें ही अपने गांव की सुरक्षा -सफाई एवं शिक्षा आदि की देखभाल करती थी।

गांव का मुख्य अधिकारी ग्राम प्रधान होता था जिसे खुत, मुकद्दम या चौधरी कहा जाता था। उसकी सहायता के लिए एक पटवारी होता था।

मुगल काल में पटवारी को राजस्व का एक प्रतिशत दस्तूरी (कमीशन) के रूप में दिया जाता था।

मुगल काल में परगनों के अंतर्गत आने वाले गांवों को मावदा या दीह कहा जाता था।

मावदा या दीह के अंतर्गत आने वाली छोटी-2बस्तियों को नागला कहा जाता था।

शाहजहाँ के शासन काल में परगना और सरकारों ( जिलों ) के बीच एक और ईकाई का निर्माण किया गया, जिसे – चकला कहा जाता था। जिसके अंतर्गत कुछ परगने आते थे।

मुगल काल में बंदरगाहों के प्रशासन की देखभाल मुसद्दी नामक अधिकारी करता था।

मुगल काल में कारखानों पर सरकारी अधिकारी होता था। इसके प्रशासन के लिए दीवाने-बयूतात नामक एक विभाग स्थापित किया गया था और इसका प्रमुख दीवान-ए-बयूतात होता था।

मुगलशाही कारखानों में बनने वाली वस्तुओं में खिलअत्(खिल्लत) विशेष उल्लेखनीय थी।खिल्लत एक सम्मान की पोशाक होती थी,जिसे बादशाह विशेष अवसरों पर विशेष व्यक्तियों को प्रदान करता था।

मुगल काल में पहली बार तोपों का प्रयोग बाबर ने भेरा के किले पर आक्रमण (1519ई.) को दौरान किया था।किन्तु दक्षिण भारत में पहली बार तोपों का प्रयोग विजयनगर के शासक बुक्का राय ने 1367ई. में बहमनी के विरुद्ध किया था।

मुगलकालीन सूबों की संख्या-

  1. अकबर- आइने अकबरी के अनुसार  अकबर के समय सूबों की संख्या 12 थी। वैसे अकबर के समय कुल सूबे 15 थे। 12पुराने सूबों में 3 नवीन सूबे जुङे जिनके नाम ये हैं- बरार,खानदेश एवं अहदनगर
  2. जहाँगीर- 15सूबे (कांगङा को जीतकर लाहौर सूबे में मिलाया,जो पहले से ही एक सूबा था इस प्रकार इनकी संख्या पूर्ववत् 15 रही।)
  3. शाहजहां- इसके समय में 18 सूबे थे। 3 सूबे(कश्मीर,थट्टा और उङीसा)जो अकबर के समय में क्रमशःलाहौर,मुल्तान एवं बंगाल सूबों में सम्मिलित थे) को स्वतंत्र सूबा बनाया।
  4. औरंगजेब-इसके समय में 20 अथवा 21 सूबे थे। इनके अलावा 2सूबे ( बीजापुर-1686 में बना तथा गोलकुंडा 1687 में बना)

नोट- औरंगजेब के काल में सूबों की संख्या 20 थी  इसका उल्लेख डॉ. हरिश्चंद्र वर्मा तथा डॉ एल.पी.शर्मा ने किया है। किन्तु दत्ता,राय चौधरी एवं मजूमदार तथा बी.के.अग्निहोत्री ने क्षेत्र को भी सूबे के रूप में वर्णित किया है।(अर्थात् 14 सूबे उत्तर भारत में , 16सूबे दक्षिण भारत में तथा 1 सूबा अफगानिस्तान में था।

  • उत्तर भारत के सूबे(14)-आगरा,दिल्ली,इलाहाबाद,अबध,अजमेर,गुजरात,बिहार,बंगाल,काबुल,लाहौर,मुल्तान और मालवा ,कश्मीर, उङीसा, थट्टा(सिंध)।
  • दक्षिण भारत के सूबे(6)-खानदेश,बरार,अहमदनगर,बीजापुर,गोलकुंडा तथा शंभाजी द्वारा अधिगृहीत क्षेत्र।
  • अफगानिस्तान का क्षेत्र(1)- सूबा।

अकबर के काल में केवल 4ही मंत्रिपरिषद होती थी-

1)वकील,

2)दीवान या वजीर,

3)मीर बख्शी,

4)सद्र-उस-सुदूर।

मीर-ए-सांमा पद अकबर के समय में ही स्थापित हुआ किन्तु यह मंत्री पद नहीं था,किन्तु बाद में मंत्री पद बन गया और इतना महत्वपूर्ण हो गया कि इसे वजीर पद प्राप्त करने की अंतिम सीमा माना जाने लगा।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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