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भूमि का स्थायी बंदोबस्त किसने व कब स्थापित किया था

स्थायी बंदोबस्त

भूमि का स्थायी बंदोबस्त – वॉरेन हेस्टिंग्ज ने भू-राजस्व प्रणाली के संबंध में अनेक प्रयोग किये थे, लेकिन उसे कोई विशेष सफलता नहीं मिली थी।जब कार्नवालिस भारत आया, उस समय एक वर्षीय बंदोबस्त लागू था। ठेकेदार कृषकों का शोषण करते थे। संचालकों ने कार्नवालिस को जमीदारों के साथ उदार दरों पर समझौता करने का आदेश दिया था, ताकि जमीदारों से समय पर तथा नियमित रूप से भू-राजस्व प्राप्त होता रहे।कार्नवालिस ने देखा कि प्रचिलित भू-राजस्व व्यवस्था से किसानों व जमीदारों दोनों की स्तिति बिगङती जा रही थी। स्वयं कार्नवालिस ने कहा थी कि , जब मैं भारत पहुँचा , उस समय मैंने कृषि व व्यापार को गिरते देखा। उस समय खेतिहर और जमीदार निर्धनता के गर्त में डूबे जा रहे थे। और महाजन ही समाज के सबसे अधिक संपन्न अंग थे।

1784 में पिट्स इंडिया एक्ट पारित हो चुका था, जिसमें भूमि का स्थाई बंदोबस्त करने को कहा गया तथा जमींदार के पक्ष में सहानुभूति व्यक्त की गई थी। किन्तु अभी तक इस दिशा में कोई कार्यवाही नहीं हुई थी।कार्नवालिस के भारत आने के समय तक राजस्व मंडल का अध्यक्ष सर जॉन शोर राजस्व संबंधी मामलों में पर्याप्त अनुभव प्राप्त कर चुका था।मुख्य शिरस्तेदार जेम्स ग्रांट राजस्व संबंधी मामलों का सैद्धांतिक ज्ञाता हो गया था।कार्नवालिस ने इन अधिकारियों के सहयोग से प्रारंभिक सुधार किये। उसने कलेक्टरों को राजस्व संबंधी अधिकारों के साथ दीवानी न्याय का अधिकार भी दे दिया। कुछ समय बाद फौजदारी न्याय की शक्ति भी उसे हस्तांतरित कर दी।
इन प्रारंभिक परिवर्तनों के बाद आवश्यक सूचनाएँ एकत्र हुई।तथा राजस्व प्रणाली पर विचार-विमर्श आरंभ हुआ।जेम्स ग्रांट का विचार था कि स्थायी व्यवस्था के स्थान पर कोई दीर्घ अवधि की व्यवस्था की जाय तथा राज्य को भूमि का स्वामी माना जाय, किन्तु वह कोई स्थायी प्रबंध के पक्ष में नहीं था।

कार्नवालिस सर जॉन शोर के विचारों से सहमत था। वह स्वयं इंग्लैण्ड में भू-स्वामी था और जमींदारों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना चाहता था, जो राज्य का सुदृढ आधार बन सके। 1790 में उसने जमींदारों के साथ दस वर्षीय समझौता कर लिया तथा अपनी घोषणा में कहा कि इस व्यवस्था को स्थायी भी किया जा सकता है। संचालकों ने इस दस वर्षीय समझौते का अनुमोदन करते हुए कहा कि यदि यह समझौता सफल रहता है तो उसे स्थायी कर दिया जाये। तीन वर्ष बाद बोर्ड ऑफ कंट्रोल के अध्यक्ष डूंडास ने इस व्यवस्था को स्थायी करने का अनुरोध किया, किन्तु सर जॉन शोर स्थायी समझौते के पक्ष में नहीं था।

अतः डूंडास ने प्रधानमंत्री पिट्ट के साथ विचार-विमर्श करके पिट्ट को स्थायी प्रबंध करने के लिए राजी कर लिया। तत्पश्चात पिट्ट ने भी इसे स्थायी करने का आदेश दे दिया।तदनुसार 22मार्च,1793 को कार्नवालिस ने इस प्रबंध को स्थायी करने की घोषणा की।

1793 के स्थायी प्रबंध में निम्नलिखित धाराएँ थी

  • जमींदारों को भूमि का वास्तविक स्वामी मान लिया गया।किन्तु यह भी कहा गया कि यदि जमींदार नियमित रूप से लगान नहीं चुकायेंगे, तो उनकी भूमि का कोई भाग,उस भू-भाग की वसूली के लिए,राज्य बेच सकेगा।
  • चूँकि राज्य,भू-स्वामित्व के अधिकार से मुक्त हो गया है, अतः जमींदारों से किसी अन्य कर का दावा नहीं किया जायेगा।
  • जमींदारों से जो राजस्व की दर निश्चित की गई वह 1765 की दर से दुगुनी थी, क्योंकि कंपनी का कहना था कि इस स्थायी प्रबंध के बाद यदि उत्पादन बढता है और राज्य की समृद्धि होती है तो भी राज्य को इस दर में वृद्धि करने का अधिकार नहीं होगा। न्यायालय से स्वीकृति प्राप्त किये बिना इस दर में वृद्धि नहीं की जा सकेगा।
  • जमींदारों से समस्त न्यायिक अधिकार धीन लिये गये।
  • जमींदार तथा उनकी रैय्यत के बीच संबंधों के बारे में जमींदारों को स्वतंत्र कर दिया गया,किन्तु जमींदारों से कहा गया कि वे अपनी रैय्यत को पट्टे जारी करेंगे, जिसमेें जमींदारों एवं रैय्यत के बीच पारस्परिक संबंधों का उल्लेख होगा। यदि कोई जमींदार,रैय्यत को दिये गये पट्टे का उल्लंघन करेगा तो उसकी रैय्यत को उनके विरुद्ध न्यायलय में जाने का अधिकार होगा।

स्थायी बंदोबस्त की विशेषताएँ

भूमि की उपज का उपभोग करने वाले तीन पक्ष थे- सरकार,जमींदार और किसान। कार्नवालिस ने सरकार के लिए राजस्व निर्धारित करके तथा जमींदारों के अधिकारों की घोषणा करके , सरकार और जमींदारों के हितों की तो रक्षा की, किन्तु किसानों के हितों की पूर्ण रूप से उपेक्षा की। उन्हें जमींदारों की दया पर छोङ दिया गया।कार्नवालिस न उन सभी लोगों को जमींदार मान लिया जो 1793में भू-स्वामी थे।इस प्रबंध द्वारा कार्नवालिस ने भूमि को संपत्ति मानकर उसके स्वामी को बेचने,दान देने अथवा दूसरे को हस्तांतरित करने का अधिकार प्रदान कर दिया और ऐसा करते समय सरकार से पूर्व अनुमति लेना आवश्यक नहीं था। 1793 से पहले जमींदार को लगान वसूल करने का अधिकार अवश्य था, किन्तु भूमि को संपत्ति नहीं माना गया था और इसलिए कोई भी जमींदार भूमि को न बेच सकता था, न दान में दे सकता था और न हस्तांतरित कर सकता था।

स्थायी बंदोबस्त के गुण

  • इस व्यवस्था के परिणामस्वरूप राज्य की आय में पर्याप्त वृद्धि हुई,क्योंकि जो भू-राजस्व की दर निश्चित की गई थी, वह 1765 की प्रचलित दर से लगभग दुगुनी थी।
  • इस व्यवस्था से पूर्व बार-2 भू-राजस्व निर्धारण में सरकार को समय और धन की हानि उठानी पङ रही थी।किन्तु अब स्थायी व्यवस्था होने से समय और धन की काफी बचत हो गयी।
  • इससे कंपनी की वार्षिक आय निश्चित हो गई, जिससे अब कंपनी को यह जानकारी हो गयी कि कितनी संवायें प्रशासन के दूसरे कार्यों में उपलब्ध होने लगी तथा कंपनी अन्य प्रशासनिक सुधारों के बारे में सोचने लगे।
  • जमींदारों के साथ समझौता करके अंग्रेजों ने एक ऐसे वर्ग का सृजन किया, जिस पर अपने अस्तित्व के लिए निर्भर रहा जा सकता था। इस प्रकार समाज में एक स्वामिभक्त वर्ग का निर्माण हो गया, जो संकट के समय अंग्रेजों का पक्ष ग्रहण कर सकता था। सेटनकार ने लिखा है, स्थायी प्रबंध ने एक ऐसे धनी तथा विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग को उत्पन्न किया, जो सिपाही विद्रोह के समय सरकार का प्रधान संतंभ बन गया।
  • भू-राजस्व की दर निश्चित हो जाने से भूमि के विकास के लिए पूँजी लगाने तथा उत्पादन में वृद्धि की आशा की जा सकती थी,क्योंकि अब तो फसल हो या न हो, वार्षिक भू-राजस्व तो चुकाना ही था। अतः बंगाल में अधिक से अधिक भूमि को खेती योग्य बनाया गया, जिससे नये गाँव बसने लगे।
  • कृषि उत्पादन में वृद्धि होने से संपन्नता में वृद्धि होना स्वाभाविक था। भू-राजस्व हमेशा के लिए निश्चित हो जाने से इस संपन्नता का राज्य को कोई लाभ नहीं था। किन्तु इससे राज्य को परोक्ष लाभ मिलने की आशा थी, क्योंकि कृषि उत्पादन का विकास होने से व्यापार एवं लोगों के जीवन-स्तर में संपन्नता आना स्वाभाविक था तथा राज्य मनोरंजन कर,व्यापार पर कर और अन्य आर्थिक गतिविधियों पर कर लगाकर लाभांवित हो सकता था।
  • इस व्यवस्था के लागू होने से पूरे बंगाल में एकरूपता आ गई। जमींदारों से न्यायिक शक्तियाँ छीन लेने से दोहरा लाभ हुआ। प्रथम- अब जमींदार कृषि पर अधिक ध्यान दे सकते थे और दूसरा- न्यायिक शक्तियां ऐसे लोगों को हस्तांतरित हो जाने से,जो इस कार्य में प्रशिक्षित थे, न्यायिक कार्य में कार्यकुशलता की आशा की जा सकती थी।
  • इस व्यवस्था के समर्थकों का कहना है कि यदि इसमें जमींदारों का पक्ष लिया गया तो रैय्यत के हितों की भी पूर्णतः उपेक्षा नहीं की गई। क्योंकि जमींदारों को उन्हें पट्टे देने थे और यदि वे रैय्यत के अधिकारों का अतिक्रमण करते हैं तो रैय्यत को न्यायालय में जाने का अधिकार था।

स्थायी बंदोबस्त के दोष

हमारे देश में किसान ही भूमि का मालिक समझा जाता था और वह अपनी सुरक्षा के लिए राजा को कर देता था। स्थायी प्रबंध के अंतर्गत जमींदारों के साथ समझौता करके किसानों से भूमि का स्वामित्व छीन लिया गया। मेटकॉफ ने लिखा है, हमने एक स्वामी वर्ग तैयार कर देश की समस्त संपत्ति को नष्ट कर दिया और दूसरों की संपत्ति उस स्वामी वर्ग के अधीन कर दी।

स्थायी बंदोबस्त में भू-राजस्व की दर बहुत ऊँची निर्धारित की गई। जो जमींदार इस दर से लगान नहीं चुका सके, उनकी भूमि राज्य द्वारा बेच दी गई। अनेकों को उनके वंशानुगत व्यवसाय से बेदखल कर दिया गया। जो व्यक्ति कभी जमींदारी का सुख भोग रहा था,उसे दर-दर ठोकरें खानी पङी।

आरंभ में कठिन परिश्रम करके जो राज्य की माँग के सामने टिक गये वे बाद में धीरे-2 धनवान हो गये तथा अपने गाँवों को छोङकर शहरों में बङी शान-शौकत से रहने लगे।इससे एक परजीवी वर्ग (वह प्राणी जो दूसरे प्राणी से पोषण पाता है।) की उत्पत्ति हुई, जो भूमि धारण तो करता था, किन्तु उसकी देखभाल नहीं करता।ऐसे जमींदारों ने रैय्यत से भू-राजस्व वसूल करने के लिए अपने एजेण्ट नियुक्त किए जो गाँवों में उप भू-स्वामी बन गये। ये एजेण्ट किसानों से अधिक से अधिक कर वसूल करने के लिए कानूनी व गैर-कानूनी सभी तरह से किसानों का शोषण करने लगे, जिससे किसानों की स्थिति दयनीय होती गई।

जमींदारों ने हर स्थान पर अपनी रैय्यत को पट्टे जारी नहीं किये और जहाँ पट्टे जारी किये उनका पूरी तरह से पालन नहीं किया गया।यद्यपि रैय्यत को जमींदारों के विरुद्ध न्यायालय में जाने का अधिकार था, किन्तु ऐसा करने के लिए उसे साधन उपलब्ध नहीं कराये गये।जमींदारों के पास सभी तरह के साधन उपलब्ध होने से वह स्वेच्छा से जैसा चाहे कर सकता था।

भू-राजस्व स्थायी तौर पर नियुक्त कर देने से राज्य को होने वाली आय भी निश्चित हो गई।भूमि की पैदावार यदि दस गुना भी बढ जाय तो भी इसका लाभ राज्य को नहीं मिल सकता था। इस व्यवस्था से राज्य के भावी लाभ पर प्रतिबंध लग गया।

इस व्यवस्था का सबसे बङा दोष यह था कि रैय्यत जो भूमि की वास्तविक मालिक थी, उसे अपने ही घर में किरायेदार बना दिया गया।

यह व्यवस्था हमारी राष्ट्रीयता के लिए घातक सिद्ध हुई।जमींदार वर्ग सदैव ब्रिटिश सत्ता का स्वामिभक्त रहा। अतः जब हमारे देश में राष्ट्रीय आंदोलन आरंभ हुए, तब इस वर्ग ने ब्रिटिश सरकार से सहयोग करके जनता की राष्ट्रीय भावनाओं का दमन किया।

बंगाल के स्थायी बंदोबस्त का दुष्प्रभाव भारत के अन्य ब्रिटिश प्रांतों पर भी पङा।कंपनी बंगाल में तो भू-राजस्व बढा नहीं सकती थी, अतः उसने इस क्षति की पूर्ति अपने अन्य प्रांतों में लगान की दर ऊँची करके की।

Reference :https://www.indiaolddays.com/

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