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पेशवाओं के काल में मराठा शक्ति का उत्कर्ष

पेशवाओं के काल में मराठा शक्ति

पेशवा

पेशवाओं की शक्ति का उत्थान शाहू राजाराम की विधवा पत्नी ताराबाई के मध्य चल रहे गृह युद्ध के दौरान हुआ।

बालाजी विश्वनाथ(1713-1720ई.)-

बालाजी विश्वनाथ एक ब्राह्मण था। उसने अपना जीवन एक छोटे राजस्व अधिकारी के रूप में प्रारंभ किया था।

1699 से 1708ई. तक बालाजी धनाजी जादव की सेवा में रहे।1708ई. में उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्र चंद्रसेन जादव के ताराबाई के पक्ष में मिल जाने पर बालाजी विश्वनाथ को शाहू की सेवा में आने का अवसर प्राप्त हुआ।

शाहू ने उसे 1708ई. में सेनाकर्ते(सेना के व्यवस्थापक) की पदवी दी तथा नई सेना के गठन व देश में शांति व सुव्यवस्था की स्थापना का कार्य सौंपा।

बालाजी की सेवाओं से प्रशन्न होकर 1713ई. में शाहू ने उसे पेशवा या मुख्य प्रधान नियुक्त किया।

बालाजी विश्वनाथ की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि, मुगलों तथा मराठों के मध्य एक स्थायी समझौते की व्यवस्था थी जिसमें दोनों पक्षों के अधिकारों तथा प्रभाव क्षेत्र की विधिवत व्यवस्था की गई।

मराठों की मुगलों के प्रति नीति में 1716 के बाद से परिवर्तन आया। फरवरी 1719ई. में बालाजी ने मुगल सूबेदार सैयद हुसैन से एक संधि की इस संधि की मुख्य शर्तों के अनुसार शाहू को-

क) स्वराज क्षेत्र पर राजस्व अधिकार की मान्यता दी गई।

ख)दक्कन के 6 मुगल सूबों तथा मैसूर,त्रिचनापल्ली व तंजौर में चौथ व सरदेश मुखी वसूल करने के अधिकार को मान्यता दी गई।

ग) गोंडवाना,बरार,खानदेश,हैदराबाद व कर्नाटक में हाल ही में मराठों द्वारा जिन क्षेत्रों पर कब्जा किया गया था, उन पर मराठों के अधिकार को मान्यता प्रदान की गई।

शाहू ने स्वराज की मान्यता के बदले में मुगलों की सहायता के लिए 15,000 सैनिकों की सेना रखने,चौथ एवं सरदेशमुखी की वसूली के बदले मुगलों के क्षेत्रों को लूटपाट से मुक्त रखने तथा 10लाख रुपये का सालाना नजराना पेश करने का वचन दिया।

1719ई. में बालाजी विश्वनाथ एवं सैयद हुसैन अली के बीच हुई संधि का मुख्य कारण फर्रुखसियर को गद्दी से हटाना था।

मराठा मुगल संधि (बालाजी विश्वनाथ तथा हुसैन अली के बीच) की शर्तों को मान्यता रफीउदरजात ने दी थी।

1719ई. में बालाजी विश्वनाथ मराठों की एक सेना लेकर सैयद बंधुओं की मदद के लिए दिल्ली पहुंचे जहाँ उन्होंने बादशाह फर्रुखसियर को हटाने में सैयद बंधुओं की मदद की और मुगल साम्राज्य की कमजोरी को प्रत्यक्षतः देखा।

इतिहासकार रिचर्ड डेम्पेल ने मुगल सूबेदार हुसैन अली तथा बालाजी विश्वनाथ के बीच 1719ई. में हुई संधि को मराठा साम्राज्य के मैग्नाकार्टा की संज्ञा दी है।

बाजीराव प्रथम (1720-1740ई.)-

बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के बाद शाहू ने उनके पुत्र बाजीराव प्रथम को पेशवा नियुक्त किया और इस प्रकार बालाजी विश्वनाथ के परिवार में पेशवा पद पैतृक (वंशानुगत) हो गया।

उसके अधीन मराठा शक्ति अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गई।उन्होंने मराठा साम्राज्य के विस्तार के लिए उत्तर दिशा में आगे बढने की नीति का सूत्रपात किया ताकि मराठों की पताका कृष्णा से लेकर अटक तक फहराए।

बाजीराव, मुगल साम्राज्य के तेजी से हो रहे पतन और विघटन से परिचित थे तथा वे इस अवसर का पूरा लाभ उठाना चाहते थे।

मुगल साम्राज्य के प्रति अपनी नीति की घोषणा करते हुए बाजीराव प्रथम ने कहा हमें इस जर्जर वृक्ष के तने पर आक्रमण करना चाहिए, शाखाएं तो स्वयं ही गिर जायेगी।

23जुन, 1724ई. में शूकरखेङा के युद्ध में मराठों की मदद से निजामुल-मुल्क ने दक्कन के मुगल सूबेदार मुबारिज खाँ को परास्त करके दक्कन में अपनी स्वतंत्रता सत्ता स्थापित की।

निजामुल-मुल्क ने अपनी स्थिति मजबूत होने पर पुनः मराठों के खिलाफ कार्यवाही शुरू कर दी तथा चौथ देने से इंकार कर दिया।परिणामस्वरूप 1728ई. में बाजीराव ने निजामुल-मुल्क को पालखेङा के युद्ध में पराजित किया।

युद्ध में पराजित होने पर निजामुल-मुल्क संधि के लिए बाध्य हुआ।6मार्च 1728ई. में दोनों के बीच मुंशी शिवगाँव की संधि हुई जिसमें निजाम ने मराठों को चौथ और सरदेशमुखी देना स्वीकार कर लिया।इस संधि से दक्कन में मराठों की सर्वोच्चता स्थापित हो गई।

इस संधि से शाहू को मराठों के अकमात्र नेता के रूप में मान्यता देने आदि सभी शर्तें मंजूर हो गई किन्तु उसने शंभा जी को शाहू को सौंपने से इंकार कर दिया।

1731में डभोई के युद्ध में बाजीराव त्रियंबकराव को पराजित कर सारे प्रतिद्वन्दियों का अंत कर दिया।

1731ई. में वार्ना की संधि द्वारा शंभा द्वितीय ने शाहू की अधीनता स्वीकार कर ली।

1737ई. में मुगल बादशाह ने निजाम को मराठों के विरुद्ध भेजा। परंतु इस बार भी बाजीराव उससे अधिक योग्य सेनापति सिद्ध हुआ।उसने निजाम को भोपाल के पास युद्ध में पराजित किया।

भोपाल युद्ध के परिणामस्वरूप 1738ई. में दुरई-सराय की संधि हुई। इस संधि की शर्तें पूर्णतः मराठों के अनुकूल थी।निजाम ने संपूर्ण मालवा का प्रदेश तथा नर्मदा से चंबल के इलाके की पूरी सत्ता मराठों को सौंप दी।1739ई. में बेसीन की विजय बाजीराव की महान सैन्य कुशलता एवं सूझबूझ का प्रतीक थी। इस युद्ध  में बाजीराव ने पुर्तगालियों से सालसीट तथा बेसान छीन ली।यूरोपीय शक्ति के विरुद्ध यह मराठों की महानतम विजय थी।

पुर्तगालियों की धार्मिक कट्टरता, बलात धर्म परिवर्तन,लूटपाट तथा अत्याचारों के कारण तटवर्ती मराठा समुदाय में उनके प्रति घृणा की भावना आ गई थी।

पुर्तगालियों की उत्तरी क्षेत्र की  राजधानी बेसीन थी तथा दक्षिणी क्षेत्र की राजधानी  गोआ थी। पुर्तगालियों द्वारा सभी जहाजों को परमिट लेने व अपने क्षेत्र के बंदरगाहों में शुल्क चुकाने के लिए बाध्य किया जाता था।

बाजीराव ने 1733ई. में जंजीरा के सिद्दियों के खिलाफ एक लंबा शक्तिशाली अभियान आरंभ किया।और अंततोगत्वा उन्हें मुख्यभूमि से निकाल बाहर कर दिया।सिद्दी जो पहले निजामशाह तथा बाद में आदिलशाह राज्य में सैनिक अधिकारी थे, 1670ई. के बाद से मुगलों की सेवा में आ गये।

बाजीराव प्रथम को लङाकू पेशवा के रूप में स्मरण किया जाता है(सैनिक पेशवा तथा शक्ति के अवतार के रूप में ) वह शिवाजी के बाद गुरिल्ला युद्ध का सबसे बङा प्रतिपादक था।

शाहू ने बाजीराव प्रथम को योग्य पिता का योग्य पुत्र कहा है।

बाजीराव प्रथम ने हिन्दू पादशाही का आदर्श रखा। यद्यपि बालाजी बाजीराव ने इसे खत्म कर दिया।

1732ई. में बाजीराव के एक इकरारनामा तैयार किया जिसमें होल्कर,सिंधिया,आनंनदराव तथा तुकोजी पवार आदि के हिस्सों की व्याख्या की गई थी।इसी समझौते ने मालवा में भावी चार मराठा रियासतों की आधारशिला रखी।

बालाजी बाजीराव(1740-1761ई.)-

बाजीराव की मृत्यु के बाद उसका पुत्र बालाजी बाजीराव (नाना साहब के नाम से प्रसिद्ध) पेशवा बना। वह अपने पिता के समान योग्य सैनिक और सेनापति नहीं था।

उसकी मुख्य दुर्बलता मराठा सरदारों को अपने अधीन बनाये रखने और उनमें पारस्परिक सहयोग बनाए रखने में असफल रहने की थी।इतिहासकार सरदेसाई के शब्दों में बालाजी बाजीराव की प्रशासनिक योग्यता की सबसे बङी विशेषता अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण स्थापित करने,राज्य की आय के साधनों को बढाने तथा उन साधनों को राज्य के हित में अधिकाधिक प्रयोग करने की थी।1741ई. में बालाजी बाजीराव रघुजी भोंसले के विरुद्ध अलीवर्दी खाँ की मदद के लिए मुर्शिदाबाद(बंगाल) प्रस्थान किया तथा रघुजी भोंसले को युद्ध में पराजित कर संधि के लिए बाध्य किया।अलीवर्दी खाँ पेशवा को बंगाल पर चौथ की वसूली तथा सेना के व्यय के लिए 22लाख रुपये की धनराशि देने पर सहमत हो गया।

1741ई.में मुगल बादशाह ने एक संधि करके मालवा पर मराठों के अधिकार को वैधता प्रदान की ।

15दिसंबर 1749ई. को शाहू जी का निधन हो गया।उनके कोई संतान नहीं थी।अपनी मृत्यु के पूर्व ही उन्होंने ताराबाई के पौत्र राजाराम द्वितीय को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।

जनवरी 1750ई. में राजाराम द्वितीय का छत्रपति के रूप में राज्याभिषेक हुआ। किन्तु ताराबाई ने राजनीति पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए षड्यंत्र करना आरंभ किया।दूसरी ओर राजाराम ने भी समानांतर दल को प्रश्रय देना प्रभ किन्तु उसकी यह नीति सफल न हो सकी।

1750ई. में रघुजी भोंसले की मध्यस्थता के कारण राजाराम तथा पेशवा के बीच संगोला की संधि हुई।इस संधि के द्वारा मराठा छत्रपति  केवल नाम मात्र के राजा रह गये।मराठा संगठन का वास्तविक नेता पेशवा (वंशानुगत) बन गया तथा मराठा राजनीति का केन्द्र अब पूना हो गया।

शाहू ने पेशवा को सैन्य व प्रशासनिक दोनों ही विषयों में सर्वोच्च सत्ता प्रदान की तथा पेशवाई को बालाजी बाजीराव के लिए वंशानुगत भी बना दिया।

ताराबाई ने पेशवा को उखाङ फेंकने तथा राजाराम पर अपना प्रभाव स्थापित करने का प्रयास किया व राजाराम को सतारा के किले में बंदी बना लिया।

1752ई. में पेशवा ने मुगल बादशाह से एक संधि की । उसके द्वारा मुगल बादशाह ने मराठों को संपूर्ण भारत में चौथ वसूल करने का अधिकार दिया और उसके बदले में मराठों ने अवसर पङने पर मुगल बादशाह को सहायता देने का वायदा किया।

इस संधि से मराठे प्रत्यक्ष रूप से दिल्ली की राजनीति से संबंधित हो गये तथा मराठा शक्ति अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गई।

1754ई. में मराठे रघुनाथ राव के नेतृत्व में पुनः दिल्ली पर आक्रमण किये तथा अहमदशाह अब्दाली के प्रतिनिधि नजीब-उद्-दौला को मीर बख्शी पद से हटाकर अहमदशाह बंगश को उस पद पर नियुक्त किया।1758ई. तक उसने सरहिन्द तथा लाहौर पर भी अधिकार कर लिया।

बाजीराव तथा बालाजी बाजीराव की नीति में एक अंतर यह था कि जहाँ बाजीराव को उत्तर की राजनीति में गहरी दिलचस्पी थी,वहाँ बालाजी बाजीराव दक्कन की राजनीति में विशेष रूप से रुचि रखता था।

1752ई. में झलकी की संधि में निजाम ने मराठों को बरार का आधा क्षेत्र दे दिया।

बालाजी ने अपनी सेना में गैर मराठों को भी भर्ती किया।

पानीपत का तृतीय युद्ध(14जनवरी,1761)-

पानीपत का तृतीय युद्ध  के कारण –नादिर शाह की भाँति अहमदशाह अब्दाली भी  दिल्ली पर अपना प्रभुत्व  स्थापित करना चाहता था।

अहमद अब्दाली अफगान का रहने वाला था। अफगानिस्तान पर अधिकार जमाने के बाद उसने हिन्दुस्तान पर भी कई बार चढ़ाई की और दिल्ली के दरबार की निर्बलता और अमीरों के पारस्परिक वैमनस्य के कारण अहमद अब्दाली को किसी प्रकार की रुकावट का सामना नहीं करना पड़ा।पंजाब के सूबेदार की पराजय के बाद भयभीत दिल्ली-सम्राट ने पंजाब को अफगान के हवाले कर दिया। जीते हुए देश पर अपना सूबेदार नियुक्त कर अब्दाली अपने देश को लौट गया। उसकी अनुपस्थिति में मराठों ने पंजाब पर धावा बोलकर, अब्दाली के सूबेदार को बाहर कर दिया और लाहौर पर अधिकार जमा लिया।इस समाचार को सुनकर अब्दाली क्रोधित हो गया और बड़ी सेना ले कर मराठों को पराजित करने के लिए अफगानिस्तान से रवाना हुआ।

रुहेला सरदार नजीबुद्दौला तथा अवध  के नवाब शुजाउद्दौला ने अहमदशाह अब्दाली का साथ दिया क्योंकि ये दोनों मराठा सरदारों के हाथों हार चुके थे।

इस युद्ध में पेशवा बालाजी बाजीराव ने अपने नाबालिग बेटे विश्वास राव के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना भेजी  किन्तु वास्तविक सेनापित उसका चचेरा भाई सदाशिवराव भाऊ था। इस फौज (मराठा) का एक महत्त्वपूर्ण भाग था, यूरोपीय ढंग से संगठित पैदल और तोपखाने की टुकङी जिसका नेतृत्व इब्राह्मिम खाँ गर्दी कर रहा था।

14 जनवरी, 1761 ई. को मराठों ने आक्रमण आरंभ किया।मल्हरराव होल्कर युद्ध के बीच में ही भाग निकला।मराठा फौज के पैर पूरी तरह उखङ गये। पेशवा का बेटा विश्वास राव, जसवंत राव, सदाशिवराव भाऊ, तुंकोजी सिन्धिया और अन्य अनगिनत मराठा सेनापति करीब 28,000 सैनिकों के साथ मारे गये।

जे.एन.सरकार ने लिखा है कि महाराष्ट्र में संभवतः ही कोई ऐसा परिवार होगा जिसने कोई न कोई संबंधी न खोया हो तथा कुछ परिवारों का तो सर्वनाश ही हो गया।

पानीपत के तृतीय युद्ध के प्रत्यक्षदर्शी काशीराज पंडित के शब्दों में पानीपत का तृतीय युद्ध मराठों के लिए प्रलयकारी सिद्ध हुआ।

मराठों की पराजय का मुख्य कारण सदाशिव राव की कूटनीतिक असफलता और अब्दाली की तुलना में उसका दुर्बल सेनापतित्व था।

पानीपत के तृतीय युद्ध के बाद नजीबुद्दौला ने, अहमदशाह अब्दाली के प्रतिनिधि के रूप में दिल्ली पर शासन किया।

पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों को एकमात्र मुगल वजीर इमाद-उल-मुल्क का समर्थन प्राप्त था, जबकि राजपूतों,सिक्खों तथा जाटों ने मराठों का साथ नहीं दिया।

पानीपत के तृतीय युद्ध 1761 ई. में मराठों के पराजय की सूचना बालाजी बाजीराव को एक व्यापारी द्वारा कूट संदेश के रूप में पहुंचायी गई, जिसमें कहा गया कि दो मोती विलीन हो गये, बाइस सोने की मुहरें लुप्त हो गई और चाँदी तथा ताँबे की तो पूरी गणना ही नहीं की जा सकती।

माधवराव प्रथम(1761-1772ई.)-

पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की हार तथा बालाजी की अकस्मात मृत्यु (23जून,1761ई.) के बाद उसका पुत्र माधव राव प्रथम पेशवा बना।

नया पेशवा केवल 17 वर्षीय अल्पवयस्क था अतः पेशवा परिवार के सबसे बङे जिम्मेदार सदस्य उसके चाचा रघुनाथ राव को उसका रीजेन्ट बनाया गया।किन्तु इस काल में पेशवा तथा उसके चाचा रघुनाथ राव के बीच गंभीर मतभेद पैदा हो गये जिसके कारण दोनों के मध्य युद्ध हुआ।

उसने 1763 ई. में निजाम को पराजित किया।1771 ई. में मैसूर के हैदर अली को पराजित किया तथा नजराना देने के लिए बाध्य किया, रुहेलों को हराकर तथा राजपूत राज्यों और जाटों को अधीन लाकर उत्तर भारत पर अपने अधिकार का फिर से दावा किया।

1763ई. में राक्षस-भुवन की संधि माधवराव प्रथम तथा निजाम के मध्य हुई।इस संधि का मराठा इतिहास में इसलिए महत्त्व है क्योंकि इस संधि से मराठों तथा निजाम के संबंधों में ठहराव आ गया।

1771 ई. में मराठा सरदार महादजी सिंधिया ने निर्वासित मुगल बादशाह शाह आलम को दिल्ली की गद्दी पर पुनः स्थापित किया अब बादशाह उनका पेंशन भोगी बन गया।

नवंबर,1772 ई. में माधवराव की अकाल (क्षय रोग से ) मृत्यु हो गई और मराठा राज्य पुनः गहरे संकट में  आ गया।

माधवराव नारायण(1774-1796ई.)-

1774 ई. में पेशवा नारायण राव की हत्या के बाद उसके पुत्र माधवराय नारायण  को पेशवा बनाया गया।

नाना फङनवीस के अंतर्गत एक काउंसिल ऑफ रीजेन्सी का गठन किया गया। वास्तविक प्रशासन अब इसी परिषद के हाथों में निहित था।माधव राव नारायण के शासनकाल में प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध हुआ।

बाजीराव द्वितीय (1796-1818 ई.)-

माधवराव नारायण की मृत्यु के बाद राघोबा का पुत्र बाजीराव द्वितीय पेशवा बना।

वह एक अकुशल शासक था। जिसने अपनी स्थिति बचाए रखने के लिए एक अधिकारी का दूसरे अधिकारी से मतभेद प्रारंभ कराया। इससे मराठा बंधुओं पर गहरा धक्का लगा।

1802 ई. में बेसीन की संधि के तहत सहायक संधि स्वीकार कर लेने से मराठा अधिकारियों में मतभेद प्रारंभ हो गया। सिंधिया तथा भोंसले ने इस संधि का कङा विरोध किया।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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