आधुनिक भारतइतिहास

पिट्स इंडिया एक्ट(Pitts India Act )1784क्या था

पिट्स इंडिया एक्ट

पिट्स इंडिया एक्ट

पिट्स इंडिया एक्ट

पिट्स इंडिया एक्ट – 1774 से 1783 के बीच विभिन्न घठनाओं ने रेगुलेटिंग एक्ट को स्पष्ट कर दिया था। मद्रास व बंबई की प्रेसीडेन्सियों पर बंगाल सरकार का पर्याप्त नियंत्रण न होने के कारण कंपनी को अनावश्यक युद्धों में उलझना पङा थ। सर्वोच्च न्यायालय से संबंधित दोषों को 1781 के एक अधिनियम द्वारा दूर कर दिया गया। किन्तु प्रशासन संबंधी दोषों को 1781 के एक अधिनियम द्वारा दूर कर दिया गया। किन्तु प्रशासन संबंधी दोष अभी भी विद्यमान थे।

1781-82 में इंग्लैण्ड की संसद ने वॉरेन हेस्टिंग्ज को वापस बुलाना चाहा,किन्तु कंपनी के हिस्सेदारों की सभा ने इसका सफलतापूर्वक विरोध किया। इससे कंपनी पर संसद का अपर्याप्त नियंत्रण भी स्पष्ट हो गया। अतः रेग्युलेटिंग एक्ट में संशोधन करने की आवश्यकता महसूस की गई। इस संबंध में डूंडास का भारत बिल तथा फाक्स का ईस्ट इंडिया बिल अस्वीकृत हो चुके थे। अतः प्रधानमंत्री यंग पिट्ट ने एक विधेयक प्रस्तुत किया, जो 1784 में पारित कर दिया गया। यह अधिनियम पिट्स इंडिया एक्ट के नाम से प्रसिद्ध हुआ।


पिट्स इंडिया एक्ट के द्वारा कंपनी के शासन में निम्न व्यवस्थाएँ की गई-

  • कंपनी शासन पर प्रभावी नियंत्रण रखने के लिए इंग्लैण्ड में छःकमिश्नरों का एक बोर्ड गठित किया गया, जिसे बोर्ड ऑफ कंट्रोल कहा गया। इस बोर्ड में सेक्रेटरी ऑफ स्टेट तथा वित्त मंत्री के अतिरिक्त चार अन्य सदस्य रखे गये, जिनकी नियुक्ति ब्रिटिश ताज द्वारा होती थी। सदस्यों के वेतन आदि का खर्चा भारत के राजस्व से वसूल करने का निर्णय लिया गया।
  • संचालकों द्वारा भेजे जाने वाले प्रस्तावित आदेश तथा अन्य पत्र भारत भेजने से पूर्व बोर्ड ऑफ कंट्रोल द्वारा अनुमोदित होने चाहिए।बोर्ड किसी भी आदेश या पत्र के प्रारूप में संशोधन कर सकता था अथवा उस प्रारूप के स्थान पर नया प्रारूप तैयार कर सकता था। संचालकों द्वारा प्रस्तावित आदेश या पत्र बोर्ड द्वारा अस्वीकार भी किये जा सकते थे। बोर्ड को संचालकों की अनुमति के बिना भी आदेश या पत्र भेजने का अधिकार था।
  • संचालकों में से तीन सदस्यों की गुप्त समिति गठित की गई। जिसे बोर्ड ऑफ द्वारा गुप्त मामले प्रेषित किये जाते थे, जो अन्य संचालकों को नहीं बताये जाते थे।
  • भारत के गवर्नर-जनरल की कौंसिल के समान ही बंबई व मद्रास प्रेसीडेन्सियों के लिए भी तीन सदस्यों की कौंसिल बनाई गई। मद्रास तथा बंबई की सरकारों को पूर्ण रूप से बंगाल सरकार के अधीन कर दिया गया। यदि उन्हें कोई आदेश सीधे संचालकों से प्राप्त हो, जो बंगाल सरकार के आदेशों के विपरीत हों, तब भी वे आदेश पहले बंगाल सरकार को भेजने होंगे तथा फिर बंगाल सरकार के आदेशानुसार ही कार्य करना होगा।
  • गवर्नर-जनरल तथा गवर्नरों की नियुक्ति संचालक करते थे, किन्तु उन्हें वापस बुलाने का अधिकार ब्रिटिश ताज को सौंपा गया। गवर्नर-जनरल की नियुक्ति के लिए संचालकों को ताज की पूर्व स्वीकृति लेनी आवश्यक थी।
  • प्रथम बार कंपनी के भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजी राज्य के प्रदेश कहा गया। गवर्नर-जनरल तथा उसकी कौंसिल बोर्ड ऑफ कंट्रोल की बिना अनुमति के अथवा कम से कम गुप्त समिति की पूर्वानुमति के भारत में किसी शक्ति के विरुद्ध युद्ध की घोषणा नहीं कर सकेगी।इस एक्ट में यह घोषणा की गई थी कि, भारत में राज्य विस्तार और विजय की योजनाओं को चलाना,ब्रिटिश राष्ट्र की नीति,मान और इच्छा के विरुद्ध है।
  • बंबई व मद्रास प्रेसीडेन्सियाँ पूर्णतया गवर्नर-जनरल तथा उसकी कौंसिल के अधीन होगी। बंगाल तथा इंग्लैण्ड के अधिकारियों की आज्ञाओं का अल्लंघन करने पर प्रेसीडेन्सियों के गवर्नर को निलंबित किया जा सकता था।

पिट्स इंडिया एक्ट का महत्त्व-

यद्यपि एस एक्ट ने कंपनी के मूलभूत संविधान में कोई परिवर्तन नहीं किया, फिर भी इस एक्ट का अत्यधिक महत्त्व है, क्योंकि इसके द्वारा पहली बार कंपनी के भारतीय राज्यों को अंग्रेजी राज्य का अंग माना गया और उन पर नियंत्रण रखने के लिए बोर्ड ऑफ कंट्रोल की स्थापना की गई। गुप्त समिति का गठन करके कंपनी के कार्यों में कार्यकुशलता उत्पन्न की गई।

पिट्स इंडिया एक्ट के द्वारा गवर्नर-जनरल का बंबई व मद्रास सरकारों पर नियंत्रण निश्चित एवं वास्तविक बन गया तथा कंपनी के समस्त सैनिक व असैनिक मामलों पर ब्रिटिश संसद का नियंत्रण स्थापित किया गया । इस प्रकार रेग्युलेटिंग एक्ट द्वारा ब्रिटिश संसद का जो अनिश्चित नियंत्रण स्थापित हो गया था, उसे अब वास्तविक बना दिया गया। इस एक्ट द्वारा कंपनी की विदेश नीति को भी एक नई दिशा दी गयी।

अब कंपनी के कार्यों को दो भागों में बाँट दिया गया। राजनीतिक व शासन संबंधी कार्यों पर नियंत्रण के लिए बोर्ड ऑफ कंट्रोल की स्थापना की गई। तथा व्यापारिक कार्यों पर नियंत्रण संचालकों पर छोङ दिया गया।बोर्ड ऑफ कंट्रोल के छः सदस्यों में से एक सेक्रेटरी ऑफ स्टेट तथा दूसरा वित्त मंत्री होता था।

अतः वोर्ड ऑफ कंट्रोल का वास्तविक कार्य सरकार के इन दो सदस्यों द्वारा ही किया जाता था,अन्य चार सदस्य बोर्ड के कार्यों में बहुत ही कम रूचि लेते थे।बोर्ड ऑफ कंट्रोल संचालकों द्वारा नियुक्त किसी भी कर्मचारी को वापस बुला सकता था। इसका परिणाम यह निकला कि संचालक अब ऐसे किसी व्यक्ति को नियुक्त नहीं करते थे, जिसे बोर्ड ऑफ कंट्रोल नहीं चाहता था

अतः स्वाभाविक ही था कि भारत के गवर्नर-जनरल संचालकों के आदेशों की अपेक्षा बोर्ड ऑफ कंट्रोल के आदेशों को अधिक महत्त्व देते थे। इस प्रकार कंपनी की नीतियों का संचालन पूरी तरह से ब्रिटिश सरकार के अधीन हो गया। अल्बर्ट ने ठीक ही लिखा है कि पिट्ट ने कंपनी के संविधान में भारी परिवर्तन किये बिना ही भारत की ईस्ट इंडिया कंपनी पर सरकार का नियंत्रण स्थापित कर दिया।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

Related Articles

error: Content is protected !!