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रणजीत सिंह और पंजाब(1792-1839ई.)

काबुल के शासक जमनशाह (अब्दाली का पुत्र) ने रणजीत सिंह को उसकी महत्त्वपूर्ण सैन्य सेवाओं के लिए 1798 में राजा की उपाधि प्रदान की और लाहौर की सूबेदारी सौंपी।

1799 से 1805 के बीच रणजीत सिंह ने भंगी मिसल के अधिकार से लाहौर और अमृतसर को छीन कर लाहौर को अपनी राजधानी बनाया।

1808 ई. में रणजीत सिंह ने सतलज नदी को पार कर फरीदकोट मुलेर कोटला और अंबाला पर कब्जा कर लिया।

अमृतसर की संधि-

अंग्रेजों तथा विरोधी सिक्ख राज्यों के भय के कारण रणजीत सिंह ने 1809 ई. में लार्ड मिंटो के दूत चार्ल्स मेटकाफ से अमृतसर की संधि कर ली।

अमृतसर की संधि द्वारा रणजीत सिंह के सतलज नदी के पूर्वी तट पर विस्तार को सीमित कर दिया गया तथा उत्तर में राज्य विस्तार की छूट दी गई, संधि के बाद रणजीत सिंह ने राज्य विस्तार की पूर्वी सीमा को सतलज तक स्वीकार कर लिया।

उत्तर-पश्चिम में अपने राज्य का विस्तार करते हुए रणजीत सिंह ने 1818 में मुल्तान,1819 ई. में कश्मीर तथा 1823 में पेशावर पर अधिकार कर लिया।

1809 में शाहशुजा (अब्दाली का पौत्र) जिसको उसके भाई ने अपदस्थ कर दिया था, लाहौर में निर्वासित जीवन कर रहा था।रणजीत सिंह ने उसे पुनः सत्तासीन करने में सहायता दी।

राजा रणजीत सिंह को अफगान शासक शाहशुजा से ही वह प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा प्राप्त हुआ जिसे नादिरशाह लाल किले से लूटकर ले गया था।

सिक्ख सेनापति हरिसिंह नलवा ने जमरूद तथा पेशावर को अफगानों के कब्जे से छीन लिया।

अफगानिस्तान में रूस के हस्तक्षेप से चिंतित ईस्ट इंडिया कंपनी ने दोस मुहम्मद को हटाकर शाहशुजा को काबुल का शासक बनाया,तभी एक त्रिपक्षीय संधि (1838 में शाहशुजा, रणजीत सिंह और अंग्रेज)की जिसके द्वारा ब्रिटिश सेना को पंजाब से गुजरने का अवसर प्राप्त हो गया।

27 जून, 1839को रणजीत सिंह की मृत्यु हो गई।

पंजाब का प्रशासन-

रणजीत सिंह महान विजेता होने के साथ-2 कुशल प्रशासक भी था, इसने ब्रिटिश एवं फ्रांसीसी सैन्य व्यवस्था के आधार पर एक कुशल,सुप्रशिक्षित एवं सुसंगठित सेना का गठन किया।

रणजीत सिंह ने यूरोपीय प्रशिक्षकों अलार्ड,बेंतुस, कोर्ट अविटेबिल के सहयोग से एक ऐसी सेना का गठन किया जिसमें यूरोपीय सैनिक एवं अधिकारियों के साथ-साथ सिक्ख, गोरखा, बिहारी उङिया,पठान,डोगरे,पंजाबी,मुसलमान आदि शामिल थे।

राजा रणजीतसिंह ने लाहौर में तोपनिर्माण का कारखाना खोला, जिसमें मुस्लिम तोपची नौकरी पर रखे गये।

रणजीत सिंह ने विभिन्न सिख मिसलों को संगठित करने के उद्देश्य से राज्य को सरकार-ए-खालसा नाम दिया तथा अपने द्वारा चलाये गये सिक्कों नानक शाही सिक्के का नाम दिया।

रणजीत सिंह के सर्वाधिक विश्वसनीय मंत्री हरि सिंह नौला,दीना नाथ(वित्तमंत्री) और फकीर अजीमुद्दीन थे।

रणजीत सिंह का कारदार नामक अधिकारी शासक की ओर से राजस्व संग्रहकर्ता, खजांची,लेखाकार, न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट उत्पाद तथा सीमाशुल्क अधिकारी और लोगों का सामान्य पर्यवेक्षक का कार्य करता था।

इतिहासकार हंटर महोदय ने रणजीतसिंह की फौज के बारे में कहा कि स्थिरता और धार्मिक जोश में ओलिवर कैम्पवेल के आयरन साइड्स(लौह सैनिक) के बाद इस सेना का कोई जोङा नहीं।

यूरोपीय (फ्रांसीसी) विक्टर जैक्वीमौ ने रणजीत सिंह को एक असाधारण पुरुष छोटे पैमाने पर एक बोनापार्ट कहा।

रणजीत सिंह भारत के प्रथम शासक थे जिन्होंने सहायक संधि को अस्वीकार कर अंग्रेजों के समक्ष समर्पण नहीं किया।

1839ई. में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद उसके अल्पायु पुत्र दिलीप सिंह के सिंहासनारोहण के बीच(1843 तक) तीन अयोग्य उत्तराधिकारी क्रमशः खङक सिंह, नौनिहाल सिंह और शेर सिंह ने शासन किया।

1843ई. में महाराजा रणजीत सिंह के अल्पायु पुत्र दिलीप सिंह राजमाता झिंदन के संरक्षण या प्रतिशासन में सिंहासनारूढ हुआ।

दिलीप सिंह के समय अंग्रेजों ने पंजाब पर आक्रमण किया परिणाम स्वरूप प्रथम आंग्ल – सिक्ख युद्ध प्रारंभ हुआ।

प्रथम आंग्ल- सिक्ख युद्ध (1845-46ई.)-

प्रथम आंग्ल-सिक्ख युद्ध के समय अंग्रेजी सेना ने लाहौर पर अधिकार कर लिया।लार्ड हार्डिंग्ज गवर्नर-जनरल तथा लार्ड गफ इस युद्ध के समय भारत के प्रधान सेनापति थे।

अंग्रेजी सेना ने सर ह्ूगफ के नेतृत्व में 13 दिसंबर,1845 को मुदकी नामक स्थान पर लाल सिंह के नेतृत्व वाली सिक्ख सेना को पराजित किया ।

सिक्ख सेनाओं को क्रमशः फिरोजशाह,ओलीवाल,सोवरांव में पराजित होने के बाद अंग्रेजों के साथ लाहौर संधि करने के लिए विवश होना पङा।

लाहौर की संधि 8 मार्च,1846

इस संधि की शर्तों के अनुसार-

  • सिक्खों ने सतलज नदी के दक्षिणी ओर के सभी प्रदेशों को अंग्रेजों को सौंप दिया।
  • लाहौर दरबार पर 1.5 करोङ रु. युद्ध हर्जाना थोपा गया,
  • सिक्ख सेना में कटौती कर 20,000 पैदल सेना और 12,000 घुङसवारों तक सीमित कर दिया गया,
  • एक ब्रिटिश रेजिडेंट को लाहौर में नियुक्त किया गया।
  • संधि के बदले अंग्रेजों ने दिलीप सिंह को महाराजा तथा रानी झिंदन को संरक्षिका और लालसिंह को वजीर के रूप में मान्यता प्रदान किया।

लाहौर के आकार को सीमित करने के उद्देश्य से अंग्रेजों ने कश्मीर को 50,000 रु. में गुलाब सिंह को बेच दिया।

16 दिसंबर,1846 को संपन्न एक अन्य संधि भैरोवाल की संधि की शर्तों के अनुसार दिलीप सिंह के वयस्क होने तक ब्रिटिश सेना का लाहौर प्रवास निश्चित कर दिया गया साथ ही लाहौर का प्रशासन आठ सिक्ख सरदारों की एक परिषद को सौंप कर महारानी झिंदन को 48,000 रु. वार्षिक की पेंशन पर शेखपुरा भेज दिया गया।

सर हेनरी लारेंस लाहौर में रेजिडेंट के रूप में नियुक्त हुआ।

द्वितीय आंग्ल-सिक्ख युद्ध(1848-49)-

इस युद्ध का तात्कालिक कारण था- मुल्तान के सूबेदार मूलराज का विद्रोह,मूलराज, शेरसिंह और छत्तर सिंह का नेतृत्व लार्ड गफ ने किया,सिक्ख सेना शेर सिंह के नेतृत्व में लङी, यह युद्ध अनिर्णीत समाप्त हुआ।

द्वितीय आंग्ल – सिक्ख युद्ध के समय भारत के गवर्नर -जनरल लार्ड डलहौजी थे। डलहौजी ने चिलियावाला युद्ध के परिणाम के बारे में कहा कि हमने भारी खर्च उठाकर एक ऐसी विजय प्राप्त की है, जो पराजय के बराबर है।

इस युद्ध के बाद डलहौजी ने गफ के स्थान पर चार्ल्स नेपियर को प्रधान सेनापित बनाया।नेपियर ने सिक्ख सेना को 21फरवरी, 1849 को गुजरात युद्ध में बुरी तरह पराजित किया।

गुजरात के युद्ध को तोपों का युद्ध के नाम से भी जाना जाता है।इस युद्ध को जीतने के बाद हेनरी लॉरेंस, लार्ड एलनबरो की इच्छा के विरुद्ध डलहौजी ने 30 मार्च, 1949 को चार्ल्स नेपियर के नेतृत्व में पंजाब को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया।

महाराजा दिलीप सिंह को अंग्रेजों ने 5लाख रुपये की वार्षिक पेंशन पर रानी झिंदन के साथ इंग्लैण्ड भेज दिया ।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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