आधुनिक भारतइतिहास

रेग्युलेटिंग एक्ट(Regulating Act)क्या था

रेग्युलेटिंग एक्ट

इंग्लैण्ड में कंपनी का प्रबंध संचालक-समिति द्वारा किया जाता था। इन संचालकों का चुनाव कंपनी के उन हिस्सेदारों द्वारा किया जाता था, जिनके पास कम से कम 500पौण्ड के हिस्से होते थे। इंग्लैण्ड की संसद कंपनी के मामलों में प्रायः हस्तक्षेप नहीं करती थी। 1765 ई. में दीवानी का अधिकार प्राप्त करने के बाद कंपनी के कर्मचारी भारत में धनी बनकर इंग्लैण्ड लौटने लगे तथा वहाँ की राजनीति में हस्तक्षेप करना आरंभ कर दिया था। अतः इंग्लैण्ड में यह आम भावना थी कि कंपनी आर्थिक दृष्टि से मजबूत है।

कंपनी की आर्थिक स्थिति अत्यंत ही चिन्ताजनक थी। उसकी आर्थिक नींवें खोखली हो चुकी थी। स्थिति यहाँ तक पहुँच गई थी कि यदि कंपनी के लिए जल्दी से जल्दी धन न जुटाया गया तो कंपनी के अस्तित्व को ही खतरा उत्पन्न हो सकता था। कंपनी की आर्थिक स्थिति बिगङने के निम्न कारण थे-

  • कंपनी ने भारत में लगातार युद्ध किये थे तथा इन युद्धों में अत्यधिक मात्रा में धन खर्च हुआ था, किन्तु इन युद्धों के फलस्वरूप उसे कोई विशेष आर्थिक लाभ नहीं हुआ था।
  • यद्यपि कंपनी ने बंगाल,बिहार व उङीसा की दीवानी का अधिकार तो प्राप्त कर लिया था, किन्तु इस दीवानी से कंपनी को जो राजस्व प्राप्त होना चाहिए था, वह प्राप्त नहीं हो रहा था।
  • कंपनी के कर्मचारी अपने निजी व्यापार में लगे हुए थे। इस निजी व्यापार के कारण वे कंपनी के व्यापार की उपेक्षा कर रहे थे। अतः कंपनी को व्यापार से कोई लाभ प्राप्त नहीं हो रहा था।
  • कंपनी के हिस्सेदार ने कंपनी के लाभांश को बढाना आरंभ कर दिया। 1766 में यह लाभांश 6 प्रतिशत से बढाकर 10 प्रतिशत ही रहा। 1772 में इसे 12 प्रतिशत करना चाहा, किन्तु संसद के हस्तक्षेप के कारण 10 प्रतिशत ही रहा। 1772 में इसे 12 प्रतिशत कर दिया गया।
  • संसद के कुछ सदस्यों का विचार था कि कंपनी आर्थिक दृष्टि से मजबूत है, इसलिए कंपनी को क्राउन के अधीन कर दिया जाय। इस विचारधारा के प्रबंल होने के कारण कंपनी ने अपनी राजनीतिक उपलब्धियों को सुरक्षित करने के लिए राज्य को 1 फरवरी,1767 से 4 लाख पौण्ड वार्षिक देना स्वीकार किया। पहले यह समझौता दो वर्ष के लिए हुआ था, किन्तु 1769 में यह समझौता अगले पाँच वर्षों के लिए बढा दिया गया।

कंपनी की बिगङती हुई स्थिति के कारण कंपनी के लिए धन की व्यवस्था करना आवश्यक हो गया। कंपनी को इतनी विशाल राशि केवल इंग्लैण्ड की सरकार ही दे सकती थी। किन्तु कंपनी के संचालकों को इस बात की आशंका थी कि सरकार से ऋण माँगने पर कहीं कंपनी को क्राउन के अधीन न कर दिया जाय तथा इंग्लैण्ड के शेयर बाजार में शेयरी देने का आवेदन-पत्र भेजा गया। इस आवेदन-पत्र के संबंध में इंग्लैण्ड के विचारकों में तीव्र प्रतिक्रिया हुई।

कंपनी के आवेदन-पत्र पर विचार करने हेतु सरकार ने यह मामला दो समितियों-सीक्रेट समिति तथा सलेक्ट समिति को सौंपा। इन समितियों के सुझावों के आधार पर सरकार ने दो विधेयक तैयार किये। प्रथम विधेयक में कंपनी को 14 लाख पौण्ड ऋण देने की व्यवस्था की गई तथा दूसरे विधेयक में कंपनी पर कुछ सरकारी नियंत्रण रखने के लिए कंपनी की संचालक समिति तथा भारत में प्रशासन व्यवस्था में परिवर्तन करने की व्यवस्था की गई। दूसरे विधेयक को रेग्युलेटिंग एक्ट कहा जाता है, जिसे इंग्लैण्ड की संसद मे 1773 ई. में पास किया तथा 1774 ई. में लागू किया गया।

रेग्युलेटिंग एक्ट के उद्देश्य-

  • कंपनी पर क्राउन का नियंत्रण व अधिकार स्थापित करना।
  • कंपनी की संचालक समिति के संगठन में कुछ परिवर्तन करना।
  • कंपनी के राजनीतिक अस्तित्व को स्वीकार करके उसके व्यापारिक ढाँचे को राजनीतिक कार्यों के संचालन के योग्य बनाना।

रेग्युलेटिंग एक्ट की धाराएँ-

  • कंपनी के संचालकों के चुनाव में वही व्यक्ति मत देने का अधिकारी होगा, जिसके पास कंपनी के 1,000पौण्ड के शेयर होंगे। इससे पहले मताधिकार उन व्यक्तियों को था, जिनके पास कंपनी के 500 पौण्ड के शेयर थे।
  • संचालकों का कार्यकाल एक वर्ष के स्थान पर 4 वर्ष होगा और कुल सदस्यों का 1/4 भाग (6 सदस्य) प्रतिवर्ष चुने जायेंगे। एक ही सदस्य के दुबारा चुने जाने के पूर्व एक वर्ष का अवकाश होगा।
  • जिन व्यक्तियों के पास3,7 व 10 हजार पौण्ड मूल्य के शेयर थे, उन्हें क्रमशः 2,3,4 मत देने का अधिकार दिया गया।
  • भारत में कंपनी के लिए एक गवर्नर-जनरल ऑफ बंगाल की नियुक्ति की गई तथा उसकी सहायता के लिए चार सदस्यों की एक कौंसिल का निर्माण किया गया। गवर्नर-जनरल के लिए वारेन हेस्टिंग्ज के नाम का उल्लेख किया गया तथा कौंसिल के चार सदस्यों के लिए बारवेल,फ्रांसिस,क्लेवरिंग व मॉन्सन के नामों का उल्लेख किया गया। समिति के सदस्यों का कार्यकाल 5 वर्ष रखा गया तथा यह भी कहा गया कि कौंसिल के निर्णय बहुमत के आधार पर होंगे।
  • बंबई व मद्रास प्रांत के गवर्नर और कंपनी की शाखाओं को गवर्नर-जनरल के अधीन कर दिया गया।इन दोनों गवर्नरों को अपनी विदेश नीति (देशी राजाओं से युद्ध करने अथवा संधि करने में) बंगाल कौंसिल के निर्देशन में कार्य करने को कहा गया। किन्तु असाधारण स्थिति में ये दोनों स्वतंत्रतापूर्वक कार्य कर सकते थे तथा संचालक समिति से सीधे आदेश प्राप्त कर सकते थे।
  • बंगाल में एक सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई, जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा तीन अन्य न्यायाधीश नियुक्त किये गये। बंगाल,बिहार व उङीसा की समस्त अंग्रेज प्रजा पूरी तरह से इस न्यायालय के अधीन होगी। मुख्य न्यायाधीश के पद के लिए सर एलिंग इम्पे के नाम का उल्लेख किया गया।
  • गवर्नर-जनरल एवं उसकी कौंसिल को नियम बनाने तथा अध्यादेश प्रसारित करने का निर्देश दिया गया, किन्तु इन्हें लागू करने के पूर्व इनका सर्वोच्च न्यायालय की द्वारा पंजीकरण एवं प्रकाशित किया जाना आवश्यक था।
  • कंपनी के संचालकों व भारत में स्थित कंपनी के बीच जो भी पत्र-व्यवहार होगा, उसकी एक प्रति इंग्लैण्ड की सरकार के पास भेजी जायेगी।
  • कंपनी के कर्मचारियों द्वारा चलाया जाने वाला निजी व्यापार पूरी तरह से वर्जित कर दिया गया तथा ऐसा करना दंडनीय अपराध घोषित किया गया।

रेग्युलेटिंग एक्ट का महत्त्व-

यद्यपि रेग्युलेटिंग एक्ट गुण व दोषों से युक्त था, फिर भी उन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, जिसमें उसका निर्माण हुआ, सर्वथा सराहनीय था। सप्रे ने ठीक ही लिखा है कि , यह अधिनियम संसद द्वारा कंपनी के कार्यों में प्रथम हस्तक्षेप था, अतः उसकी नम्रतापूर्वक आलोचना की जानी चाहिए।यह एक्ट कंपनी की व्यवस्था को सुधारने की प्रथम प्रयास था और इस दृष्टि से कुछ दोष रह जाने स्वाभाविक थे। इस एक्ट द्वारा कंपनी के राजनीतिक लक्ष्य व अस्तित्व को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया। अतः यह अधिनियम कंपनी के संवैधानिक इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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