जैन धर्मइतिहासप्राचीन भारत

सल्लेखना क्या है

जैन दर्शन के सल्लेखना शब्द में दो शब्द सत् तथा लेखना आते हैं, जिनका शाब्दिक अर्थ है अच्छाई का लेखा-जोखा करना। जैन दर्शन में सल्लेखना शब्द उपवास द्वारा प्राणत्याग के संदर्भ में आया है। अर्थात उपसर्गे दुर्भिक्षे  जरसि रुजाया  च निष्प्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनाभार्याः।

अर्थात घोर एवं इनका कोई उपसर्ग, दुर्भिक्ष, वृद्धावस्था एवं रोग की स्थिति आ जाये तथा इनका प्रतिकार संभव न हो तो धर्म साधन के लिए सल्लेखनापूर्वक शरीर छोङ देने की ज्ञानियों ने प्रेरणा दी। सुख पूर्वक शोकरहित होकर मृत्यु का वरण ही सल्लेखना है।

सल्लेखना (समाध या संथारा) मृत्यु को निकट जानकर अपनाये जाने वाली जैन प्रथा है। इसमें व्यक्ति को जब यह लगता है कि वह मौत के करीब है तो वह खुद ही खाना – पीना त्याग देता है।

दिगंबर जैन शास्त्र के अनुसार इस प्रथा को समाधि या सल्लेखना कहा जाता है। तथा श्वेतांबर साधना में इस प्रथा को संथारा कहा जाता है।

सल्लेखना को जीवन की अंतिम साधना भी माना जाता है। जिसके आधार पर व्यक्ति मृत्यु को पास देखकर सबकुछ त्याग देता है। ऐसा नहीं है कि संथारा लेने वाला व्यक्ति का भोजन जबरन बंद करा दिया जाता है। संथारा में व्यक्तिको जब यह लगने लगता है कि अब मैं कमजोर हो गया हूँ तथा मेरा शरीर भोजन पचाने में निस्हाय है तो वह स्वयं ही धीरे-2 भोजन कम कर देता है।

ई.पू.तीसरी सदी मेें सम्राट चंद्र गुप्त मौर्य ने श्रवण बेलगोला (कर्नाटक) में सल्लेखना विधि द्वारा ही अपने शरीर का त्याग किया। अशोक के स्तंभ लेखों में भयंकर अपराधियों को भी यह प्रक्रिया अपनाने की व्यवस्था प्रशासनिक तौर पर की गई।

दिल्ली के पुराने किले में स्थित सम्राट मृत्यु दंड प्राप्त कैदियों को मृत्यु दंड की तिथि निर्धारित हो जाने पर तीन दिन की विशेष मोहल्लत देता था ताकि वे अपना परलोक सुधारने के लिए दान दे सकें, उपवास करके आत्मसुद्धि कर सके एवं धर्म ध्यान कर सके। वे अपराध बोध से ग्रस्त होकर शरीर त्याग न करें।

आधुनिक काल में सल्लेखना को राष्ट्रपिता गांधी तथा विनोबा भावे जैसे महापुरुषों द्वारा व्यापक समर्थन मिला।

सल्लेखना को निष्प्रतीकारमण वयकुण्ठ (नष्ठ हो जाना) भी कहा जाता है।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

Related Articles

error: Content is protected !!