इतिहासमध्यकालीन भारतमुगल कालशेर शाह सूरी

शेरशाह कालीन प्रशासन

शेरशाह एक व्यवस्था सुधारक के रूप में जाना जाता है, व्यवस्था -प्रवर्तक के रूप में नहीं। साम्राज्य निर्माता एवं प्रशासक के रूप में उसे अकबर का पूर्वगामी माना जाता है।

केन्द्रीय प्रशासन –

शेरशाह का केन्द्रीय प्रशासन अत्यंत केन्द्रीकृत था। शासक स्वयं शासन का प्रधान था। और सम्पूर्ण शक्तियाँ उसी में केन्द्रित थी। शासन को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए निश्चय ही मंत्रियों को नियुक्त किया गया था, किन्तु वे मुगलकालीन मंत्रियों की तरह विस्तृत अधिकार-सम्पन्न नहीं होते थे। मंत्री स्वयं निर्णय नहीं लेते थे, बल्कि केवल आदेशों का ही पालन करते थे। इस प्रकार यह एक तरह से सरकारी कर्मचारी के रूप में थे।

मंत्री-

शेरशाह ने सल्तनत कालीन व्यवस्था के आधार पर चार विभागों की व्यवस्था की थी, जो निम्नलिखित हैं-

  1. दीवाने वजारत- यह लगान और अर्थव्यवस्था का प्रधान था, राज्य के आय-व्यय की देखभाल करना तथा अन्य मंत्रियों के कार्यों की देखभाल करना भी उनका दायित्व था।
  2. दीवाने आरिज- यह सेना के संगठन, भर्ती , रसद, शिक्षा और नियंत्रण की देखभाल करता था। परंतु यह न तो सेनापति और न ही सैनिकों की भर्ती करता था।यह सारा दायित्व शेरशाह स्वयं पूरा करता था।
  3. दीवाने रसालत-यह विदेशमंत्री की भाँति कार्य करता था अन्य राज्यों से पत्र- व्यवहार और उनसे सम्पर्क रखना इसका मुख्य उत्तरदायित्व था। यह कभी-2 राज्य की और से दिये जाने वाले दान की देखभाल भी करता था।
  4. दीवाने इंशा- इसका कार्य सुल्तान के आदेशों को लिखना, उसका लेखा रखना तथा राज्य के विभिन्न भागों में उसकी सूचना पहुँचाना था।

डा. ए.एल.श्रीवास्तव के अनुसार दीवाने-काजी और दीीवाने वरीद नामक दो अधिकारी ङी मंत्रिपद के ही समान थे। दीवाने-काजी न्याय कार्य करता था, जबकि दीवााने-बरीद राज्य के गुप्तचर विभाग और डाक-व्यवस्था की देखभाल करता था।

प्रांतीय शासन-

शेरशाह ने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य को 47 सरकारों में विभाजित किया था।

सूबा या इक्ता-

शेरशाह के प्रांतीय प्रशासन के बारे में बहुत कम पता लगता है।

डा. ए.एल.श्रीवास्तव -“ शेरशाह के समय में एक तो उन हिन्दू राजाओं के राज्य थे, जिन्हें आधिपत्य स्वीकार कराने के बाद वापस कर दिया गया था। इसके अतिरिक्त ऐसे सूबे थे जिन्हें इक्ता पुकारा जाता था। जिसमें फौजी गवर्नर या सूबेदारों की नियुक्ति की गयी थी।” शेरशाह ने बंगाल सूबे के लिए को 19 सरकारों में बाँट दिया गया था। प्रत्येक सरकार को एक सैनिक अधिकारी (शिकदार) के नियंत्रण में छोङ दिया गया था। उसकी सहायता के लिए एक असैनिक अधिकारी अमीर-ए-बंगाल की नियुक्ति होती थी। यह प्रबंध विद्रोह की आशंका को समाप्त करने के लिए किया गया था।

कानूनगो के अनुसार- “शेरशाह की प्रांतीय व्यवस्था का आदर्श बंगाल था।”

सरकारों (जिलों) का प्रशासन-

प्रत्येक इक्ता या सूबा अनेक सरकारों में बँटा होता था। प्रत्येक सरकार में दो प्रमुख अधिकारी होते ते-

  1. शिकदार-ए-शिकदारान-शिकदार का पद अधिक सम्मानित था। वह एक सैनिक अधिकारी होता था। उसका कार्य सरकार में शांति-व्यवस्था स्थापित करना तथा अधीनस्थ शिकदारों के कार्यों की देखभाल करना था।
  2. मुन्सिफ-ए-मुंसिफान-जबकि मुंसिफ-ए-मंसिफान मुख्यतया एक न्यायिक अधिकारी था. वह दीवानी के मुकदमें का फैसला करता था तथा अपने अधीनस्थ मुंसिफों के कार्यों की देखभाल करना।

परगने का शासन-

प्रत्येक सरकार अनेक परगनों में बँटा होता था। जिसमें एक शिकदार, एक मुन्सफ, एक फोतदार तथा दो कारकून होते थे।

  • शिकदार के साथ एक सैनिक दस्ता होता था और उसका कार्य परगने में शांति व्यवस्था बनाये रखना होता थात।
  • मुंसिफ का कार्य-दीवानी मुकदमों का निर्णय करना तथा भूमि की नाप एवं लगान की व्यवस्था करना था। इसके अतिरिक्त फोतदार, खंजाची तथा कारकूनों का कार्य हिसाब-कतिताब रखाना था।

गाँव-

शेरशाह ने गाँव की परंपरागत व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं किया। गाँव के परंपरागत चौकीदार, पटवारी तथा प्रधान को सरकार स्वीकर करती थी। ग्राम पंचायत ही गाँव की सुरक्षा, शिक्षा और सफाई आदि का प्रबंध करती थी।

भू-राजस्व व्यवस्था-

केन्द्रीय सरकार की आय का मुख्य स्त्रोत लगान, लावारिस संपत्ति, व्यापारिक कर, टकसाल, नमक कर आदि थे। शेरशाह की वित्त व्यवस्था के अंतर्गत राज्य का मुख्य स्त्रोत भूमि पर लगने वाला कर था जिसे लगान कहा जाता था। शेरशाह की लगान व्यवस्था मुख्यरूप में रैय्यतवाङी थी जिसमें किसानों से प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित किया गया था। शेरशाह ने उत्पादन के आधार पर भूमि को तीन श्रेणियों में विभाजित किया-

  1. अच्छी
  2. मध्यम
  3. खराब।

शेरशाह ने लगान निर्धारण के लिए मुख्यतः तीन प्रकार की प्रणालियाँ अपनायी-

  1. गलाबख्शी अथवा बटाई
  2. नश्क या मुक्ताई अथवा कनकूत
  3. नकदी अथवा जब्ती ( जमई)।
  4. शेरशाह ने भूमि कर निर्धारण के लिए राई (फसलदारों की सूची) को लागू करवाया।

शेरशाह ने भूमि की किस्म एवं फसलों के आधार पर उत्पादन का औसत निकलवाया और उसके बाद उत्पादन का 1/3 भाग कर के रूप में वसूल किया जाता था। शेरशाह द्वारा प्रचलित तीनों प्रणालियों में जब्ती या जमई (जिसे मापन पद्धति भी कहा जाता था) व्यवस्था किसानों में अधिक प्रिय थी। जबकि उन्हें तीनों से किसी भी प्रणाली को अपनाने की छूट थी। शेरशाह द्वारा प्रचलित रैय्यतवाङी लगान व्यवस्था मुल्तान को छोङकर राज्य के सभी भू भागों में लागू थी। मुल्तान में शेरशाह ने राजस्व निर्धारण और संग्रह के लिए पहले से चली आ रही बटाई ( हिस्सेदारी ) प्रथा को ही चलने दिया और उत्पादन का 1/4लगान वसूल किया जो अन्यंत्र नहीं प्रचलित था। शेरशाह के समय लगान नकद या जिन्स (अनाज) दोनोंरूपों में देने की छूट थी।

शेरशह ने कृषि योग्य भूमि और परती भूमि दोनों की नाप करवायी। इस कार्य के लिए उसने अहमद खाँ की सहायता ली थी। जिसने हिन्दू ब्राह्मणों  की मदद से यह काम पूरा किया। शेरशाह ने भूमि की माप से लिए सिकंदरी गज (39अंगुल या 32इंच) एवं सन् की  डंडी का प्रयोग करवाया। शेरशाह ने सम्पूर्ण  साम्राज्य के उत्पादन का 1/3 भाग कर के रूप में लिया। जबकि मुल्तान से उपज का 1/4 हिस्सा लगान के रूप में वसूला जाता था।

मालगुजारी (लगान) के अतिरिक्त किसानों को जरीबाना ( सर्वेक्षण- शुल्क ) एवं महासिलाना ( कर-संग्रह शुल्क) नामक कर भी देने पङते थे, जो क्रमशःभू-राजस्व का 2.5 प्रतिशत एवं 5 प्रतिशत होता था। किसानों को सरकार की ओर से पट्टे दिये जाते थे जिससे उनको वर्ष में निश्चित लगान देना पङता था। किसान कूबलियत-पत्र द्वारा पट्टे को स्वीकार करता था।

न्याय व्यवस्था-

शेरशाह एक न्याय प्रिय शासक था। वह सम्राज्य का सबसे बङा न्यायाधीश था। वह प्रत्येक बुधवार की शाम को स्वयं न्याय करने बैठता था। शेरशाह ने सुल्तान-उल-अदल की उपाधि धारण कर रखी  थी। उसकी न्यायप्रियता बहुत निष्पक्ष तथा कठोर थी। उसका कहना था कि- न्यायकार्य धार्मिक कार्यो में सर्वश्रेष्ठ है और इसे सभी काफिर और मुसलमान बादशाह स्वीकार करते हैं।

शेरशाह की न्याय के प्रति दृढता के बारे में अब्बास खाँ सरवानी ने कहा है कि शेरशाह के राज्य में एक जरा – शीर्ण वृद्ध अपने सिर पर स्वर्णाभूषण भरे टोकरे को लेकर निकल पङी, परंतु किसी चोर को उसके पास पहुंचने की हिम्मत नहीं हुई। शेरशाह के काल में लगान संबंधि मुकदमें का निर्णय मुंसिफ ( परगने में ) तथा मुंसिफ-ए-मुंसिफान ( सरकारों में ) करते थे।

फौजदारी मुकदमों का निर्णय क्रमशः शिकदार और शिकदार-ए-दारान करते थे। काजी असैनिक मुकदमों का निर्णय करते थे। गाँव के मुकदमें ग्राम पंचायतों द्वारा निर्णीत होते थे।

शेरशाह की न्याय व्यवस्था अत्यंत कठोर थी जिसमें कैद, कोङे से पीटना, अंग-विच्छेद तथा जुर्माना आदि थे। शेरशाह के समय कोई पृथक पुलिस व्यवस्था नहीं थी। साम्राज्य के विभिन्न अधिकरी अपने – 2 श्रेत्रों में शांति व्यवस्था स्थापित करते थे। शेरशाह ने पुलिस व्यवस्था के संदर्भ में स्थानीय उत्तरदायित्व के सिद्धांत पर कार्य किया। अर्थात् जो अधिकारी जिस क्षेत्र में नियुक्त होता था उस क्षेत्र की शांति-व्यवस्था का उत्तरदायित्यव उसी का होता था। गाँ वों में कानून-व्यवस्था स्थापित  करने का काम चौधरी और मुकद्दम नामक स्थानीय मुखिया करते थे।

सङकें एवं सराएँ-

शेरशाह ने अनेक सङकों का निर्माण कराया एवं पुरानी सङकों की मरम्मत करायी। उसके द्वारा बनावाई गयी 4 सङकें अत्यंत प्रसिद्ध हैं, जो निम्नलिखित हैं-

  1. बंगाल नें सोनारगांव से शुरू होकर देल्ली, लाहौर होती हुई पंजाब में अटक तक जाती थी।
  2. आगरा से बुरहानपुर तक।
  3. आगरा से जोधपुर होती हुई चित्तौङ तक।
  4. लाहौर से मुल्तान तक।

शेरशाह ने 1700 सरायों का निर्माण कराया। जिसमें हिन्दुओं और मुसलमानों के ठहरने के लिए अलग-2 व्यवस्था होती थी। प्रत्येक रसाय की देखभाल एक शिकदार नामक अधिकार करता था।

कानूनगो ने इन सरायों को “साम्राज्य रूपी शरीर की धमनियाँ कहा है।”

मुद्रा व्यवस्था-

शेरशाह की मुद्रा व्यवस्था अत्यंत विकसित थी उसने पुराने घिसे पुटे सिक्कों के स्थान पर शुद्ध चाँदी का रुपया (180ग्रेन) और ताँबे का दाम(380 ग्रेन) चलाया। इसके अतिरिक्त उसने दाम के आधे, चौथाई और सोलहवें भाग के भी अनेक सिक्के चलाये। शेरशाह के समय में 23 टकसालें थी। शेरशाह के सिक्कों पर शेरशाह का नाम और पद अरबी या नागरी लिपि में अंकित होता था।

शेरशाह द्वारा रुपये के बारे में स्मिथ ने लिखा है-यह रुपया वर्तमान ब्रिटिश मुद्रा – प्रणाली का आधार है। 

शेरशाह ने राजधानी दिल्ली में दान का लंगर स्थापित करवाया जिसमें लगभग 500अशरफी प्रतिदन खर्च होती थी। शेरशाह ने अपने राजनीतिक उद्येश्य के लिए कभी-2धर्म का सहारा लिया। रायसीन के शासक पूरनमल के साथ उसका दुर्व्यवहार एवं जोधपुर में उसने हिन्दू मंदिरों को तोङकर उसके स्थान पर मस्जिदें बनवायी। शेरशाह के काल में ही जायसी ने अपने पद्मावत की रचना की।

Note :  शेरशाह ने सैनिकों को नकद वेदन दिया यद्यपि सरदारों को जागीरें दी जाती थी। बेईमानी को रोकने के लिए उसने घोङों को दागने की प्रथा तथा सैनिकों का हुलिया लिखे जाने की प्रथाओं को अपनाया था। शेरशाह के समय में 16 सैनिक-चौकियों का विवरण मिलता है। 

भवन या इमारतें –

एक प्रसिद्ध भवन निर्माता के रूप शेरशाह द्वारा निर्मित सासाराम के मकबरे को पूर्वकालीन स्थापत्य शैली की पराकाष्ठा तथा नवीन शैली के प्रारंभ का द्योतक माना जाता है। शेरशाह ने अपने साम्राज्य की उत्तर-पश्चिमी सीमा की सुरक्षा के लिए रोहतासगढ नामक किला बनवाया। इसके अतिरिक्त उसने दिल्ली का पुराना किला बनवाया।

शेरशाह ने कन्नौज नगर को बर्बाद कर शेरसूर नामक नगर बसाया। कनिंघम ने शेरशाह के मकबरे को ताजमहल से भी सुंदर कहा है।

कानूनगो ने उसके बारे में कहा है- वह बबाहर से मुस्लिम और अंदर से हिन्दू था।

अब्बास खाँ ने शेरशाह की प्रशंसा करते हुए कहा है कि – बुद्धिमता और अनुभव में वह दूसरा हैदर था। 

कानूनगो ने शेरशाह के शासन प्रबंध की बङी प्रशंसा की है।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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