मध्यकालीन भारतइतिहासमुगल कालशेर शाह सूरी

शेरशाह सूरी कौन था

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शेरशाह सूरी( 1540-1545ई. )-

शेरशाह का जन्म 1472ई.(कानूनगो के अनुसार 1486ई.) में बैजवाङा (होशियारपुर) नामक स्थान पर हसन की अफगान पत्नी के गर्भ से हुआ था। शेरशाह के बचपन का नाम फरीद था। उसका प्रारंभिक जीवन बङा ही कष्टपूर्वक व्यतीत हुआ। शेरशाह का पिता हसन खाँ लोहानी ने उसे एक शेर मारने के उपलक्ष्य में शेरखाँ की उपाधि दी तथा अपने पुत्र जलाल खाँ का संरक्षक नियुक्त कर दिया। शेरखाँ ने चंदेरी के युद्ध में मुगलों की ओर से लङा था। और उसी समय उसने कहा था कि – “अगर भाग्य ने मेरी सहायता की तो मैं सरलता से मुगलों को एक दिन भारत से बाहर खदेङ दूँगा।”

मुहम्मद शाह (बहार खाँ लोहानी) की मृत्यु के बाद शेरखाँ ने उसकी विधवा दूदू बेगम से विवाह कर लिया। इस प्रकार एक तरह से वह दक्षिण बिहार का शासक बन गया। शेरखाँ ने अपने प्रबंधन (दक्षिण बिहार के ) काल में योग्य एवं विश्वास पात्र व्यक्तियों को भर्ती किया। 1529 ई. में शेरखाँ ने  महमूद लोदी की ओर से घाघरा के युद्ध में भाग लिया था। किन्तु अफगानों की पराजय हुई। 1529 ई. में बंगाल के शासक नुसरतशाह को पराजित करने के उपरांत शेरखाँ ने हजरते-आला की उपाधि ग्रहण की। 1530ई. में चुनार के शक्तिशाली किले पर अधिकार कर लिया, वरन् बहुत अधिक संपत्ति भी प्राप्त की थी। शेरखाँ ने दोहरिया के युद्ध ( 1532 ) में महमूद लोदी का साथ दिया था, परंतु वह कोई महत्त्वपूर्ण योगदान नहीं था। शेरखाँ सोचता था  कि महमूद लोदी के पतन के बाद ही वह अफगानों के नेता के रूप में उभर सकता है ।इसलिए उसने  सदैव पूरी इच्छा शक्ति के साथ अफगानों का साथ नहीं दिया।

1534ई. में शेरखाँ ने सूरजगढ के युद्ध में बंगाल के अयोग्य शासक महमूदशाह को 13 लाख दीनार देने के लिए विवश किया।

चौसा के युद्ध (1539ई.) में हुमायूँ को पराजित करने के बाद उसने शेरशाह की उपाधि धारण की अपने नाम का खुतबा पढवाया तथा सिक्का चलाया। शेरशाह ने 1540ई. में हुमायूँ को कन्नौज ( बिलग्राम ) के युद्ध में  परास्त कर दिल्ली का सिंहासन प्राप्त किया।

स प्रकार उसने 1540ई. में उत्तर भारत में सूरवंश अथवा द्वितीय अफगान साम्राज्य की स्थापना की। शेरशाह ने सिंहासन पर अधिकार कर लेने के बाद उत्तर पश्चिम की ओर मुगलों के वफादार गक्खरों पर आक्रणण किया। और उसे जीत लिया। किन्तु शेरशाह पूर्णरूप से गक्खरों को न समाप्त कर सका और वे बाद तक शेरशाह का विरोध करते रहे।

शेरशाह ने अपनी उत्तरी-पश्चिमी सीमा की सुरक्षा के लिए वहाँ रोहतासगढ नामक एक सुदृढ किला बनवाया और हैबात खाँ तथा खवास खाँ के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना को नियत किया।

1542ई. में शेरशाह ने मालवा पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया। 1543ई. में रायसीन पर आक्रमण कर वहाँ के राजपूत शासक पूरनमल को विश्वासघात करके मार डाला। इस आक्रमण के दौरान स्त्रियों ने जौहर किया। रायसीन की घटना शेरशाह के चरित्र पर एक कलंक माना जाता है क्योंकि उसने धोखे से अनेक राजपूत स्त्री, बच्चों को मौत के घाट उतार दिया। इस घटना से कुतुबखाँ ने इतनी शर्म अनुभव की कि उसने आत्महत्या कर ली।

1544ई. में शेरशाह ने मारवाङ के शासक मालदेव पर आक्रमण किया। इस युद्ध में शेरशाह ने कूटनीति का सहारा लिया। इस युद्ध में राजपूत सरदार जयता और कुप्पा ने अत्यंत वीरता का प्रदर्शन किया और अफगान सेना के छक्के छुङा दिया।

शेरशाह मारवाङ के युद्ध में राजपूतों के शार्य से इतना प्रभावित हुआ कि उसने कहा -” मैं मुट्ठी  भर बाजरे के लिए लगभग हिन्दुस्तान का माम्राज्य खो चुका था।”

1545 ई. में शेरशाह ने कीरतसिंह की एक नाचने-गाने वाली दासी को हथियाना चाहता था। जिसे कीरतसिंह ने देने से इंकार कर दिया था। इसके अतिरिक्त कीरतसिंह ने रीवां के राजा वीरभान बघेला को शरण दी थी।

इस अभियान के दौरान जब वह उक्का नामक आग्नेयास्त्र चला रहा था। उसी दौरान किले की दीवार से एकगोला आकर पास रखे बारूद के ढेर पर गिरा और उसमें आग लग जाने से उसकी मृत्यु हो गयी। शेरशाह ने मारवाङ को छोङकर अन्य राजपूत राजाओं को उनके राज्य से  वंचित नहीं किया वरन् उन्हें अधीनता स्वीकार कराके उनके राज्य वापस कर दिये। शेरशाह ने बंगाल जैसे दूरस्थ एवं धनी सूबे में विद्रोह की आशंका को समाप्त करने के  लिए सम्पूर्ण बंगाल को सरकारों में बाँटकर प्रत्येक को एक शिकदार के नियंत्रण में दे दिया।

शिकदारों की देखभाल के लिए एक असैनिक अधिकारी अमीन-ए-बंगला अथवा अमीर-ए-बंगाल को नियुक्त किया। और सबसे पहले यह पद काजीफजीलात नामक व्यक्ति को दिया गया।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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