मध्यकालीन भारतउत्तर भारत और दक्कन के प्रांतीय राजवंश

विजयनगर साम्राज्य की सामाजिक व्यवस्था

विजयनगर साम्राज्य में सामाजिक व्यवस्था सैद्धांतिक रूप से शास्त्रीय परंपराओं पर आधारित था। यह भारतीय इतिहास का अंतिम साम्राज्य था जो वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित सुरक्षित और संबंधित  करना अपना कर्त्तव्य समझता था। सम्राट समाज के सभी वर्गों की रक्षा करना अपना कर्त्तव्य समझते थे। चारों वर्णों में ब्राह्मण सर्वप्रमुख थे परंतु वर्णाश्रम व्यवस्था के दूसरे अंग क्षत्रियों के संबंध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती।

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ब्राह्मणों को अनेक विशेषाधिकार प्राप्त थे जिसमें सबसे महत्वपूर्ण विशेषाधिकार यह था कि उन्हें मृत्यु दंड नहीं दिया जा सकता था। विजयनगर की सेना एवं शासन व्यवस्थामें उन्हें ऊंचे पद प्राप्त थे। मध्य वर्गों में शेट्टी या चेट्टी नामक एक बहुत बङा समूह था। इनकी अनेक शाखाएं या उपशाखाएं थी। इनका विजयनगर युग में बहुत प्रभाव था। अधिकांश व्यापार इन्हीं के हाथों में था। चेट्टि बहुत अच्छे लिपिक एवं कार्यों में दक्ष थे। चेट्टियों के ही समतुल्य व्यापार करने वाले तथा दस्तकार वर्ग के लोगों को वीरपांचाल कहा जाता था।

कैकोल्लार ( जुलाहे )  कंबलत्तर अर्थात चपरासीी तथा शस्त्रवाहन, नाई और आंध्र क्षेत्र में रेड्डी कुछ महत्त्वपूर्ण समुदायों में माने जाते थे। इस काल में उत्तर भारत से बहुत बङी संख्या में लोग दक्षिण में अाकर बस गये थे। इन्हें बडवा कहा जाता था। इन उत्तर भारतीय नवागंतुको ने पुराने दक्षिणवासियों के व्यापार को हथिया लिया। इस काल की सामाजिक स्थिति की दूसरी महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि नीची जाति के कुछ वर्गों ने ऊंची जाति के लोगों के विशेषाधिकारों को हङप लिया। इसने नये सामाजिक तनाव को जन्म दिया।

जिन निचली जातियों को उच्च जातियों के विशेषाधिकार प्रदान किये गये वे सत्-शूद्र या अच्छे शूद्र कहलाए थे। इसी प्रकार का संघर्ष वेलंगै अर्थात् दक्षिण वर्गीय इङ्गगै अर्थात् वाम- वर्गीय नामक दो औद्यौगिक वर्गों के बीच हुआ। इस काल में कुछ साम्प्रदायिक तनावों विशेषतः जैन एवं वैष्णव सम्प्रदायों के मध्य  का भी उदय हुआ। छोटे सामाजिक समूहों में लोहार, स्वर्णकार, पीतल का काम करने वाले, बढई, मूर्तिकार और जुलाहे आदि प्रमुख समुदाय थे। जुलाहों का मंदिर के प्रशासन एवं स्थानीय करों के आरोपण में बहुत बङा योगदान था।

दास प्रथा-

विजयनगर में दास प्रथा प्रचलित थी। विदेशी यात्रियों के विवरण और समकालीन अभिलेख पुरुष एवं महिला दासों का उल्लेख करते हैं। मनुष्यों के क्रय-विक्रय को बेस – वाग कहा जाता था। निकोली कोण्टी ने लिखा है कि विजयनगर साम्राज्य में विशाल संख्या में दास हैं। जो कर्जदार अपना ऋण अदा नहीं कर पाते हैं उन्हें सर्वत्र ऋणदाता द्वारा अपनी सम्पत्ति बना लिया जाता है।

स्त्रियों   की स्थिति-

विजयनगर युगीन समाज में स्त्रियों की बङी सम्माजनक स्थिति थी। कुछ स्त्रियाँ महान विदुषियाँ और प्रसिद्ध साहित्यकार थी। संगीत और नृत्य उनकी शिक्षा के प्रमुख अंग थे। स्त्रियाँ मल्लयोद्धा, ज्योतिषी, भविष्यवक्ता,अंगरक्षिकाएं, सुरक्षा कर्मी, लेखाधिकारी, लिपिक एवं संगीतकार होती थी तथा यहाँ तक कि वे युद्ध क्षेत्र में भी जाती थी। सम्पूर्ण भारतीय इतिहास में विजयनगर साम्राज्य एकमात्र साम्राज्य था, जिसने विशाल संख्या में स्त्रियों को विभिन्न राजकीय पदों पर नियुक्त किया । कन्यादान को आदर्श विवाह माना जाता था। राजपरिवार एवं सामंतों  के अतिरिक्त अन्य वर्गों में एक पत्नीत्व की प्रथा थी। मंदिरों में देवपूजा के लिए रहने वाली स्त्रियों की देवदासी कहा जाता था। इन्हें आजीविका के लिए या तो भूमि दे दी जाती थी अथवा नियमित वेतन दिया जाता था। विजयनगर के सामाजिक जीवन में गणिकाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान था। समकालीन साहित्य में चारों वर्णों के साथ इन गणिकाओं का भी उल्लेख है। ये गणकाएं दो वर्गों में विभाजित थी-

  1. एक वे जो मंदिरों से संबद्ध थी
  2. जो स्वतंत्र जीवन यापन करती थी।

इस वर्ग की स्त्रियाँ पर्याप्त रूप से शिक्षित होती थी। इन गणिकाओं का समाज में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। सार्वजनिक उत्सवों पर समस्त गणिकाएं अनिवार्यतः उत्सव में भाग लेती थी। समाज में पर्दा प्रथा प्रचलित थी। इस काल में विधवाओं का जीवन बहुत हेय और अपमानजनक माना जाता था।

सती प्रथा-

विजयनगर साम्राज्य में सतीप्रथा को सहगमन अर्थात् मृतपति के साथ महाप्रयाण कहा जाता था। 1354ई. में विजयनगर के एक अभिलेख में मालागौडा नामक महिला का अपने पति की मृत्यु के बाद सती या सहगमन करके स्वर्गारोहण का उल्लेख है।

इस काल में स्त्रियों द्वारा  अपने पति की मृत्यु के बाद सती होना मुक्ति का प्रतीक माना जाता था। परंतु सती प्रथा स्वैच्छिक होती थी।

बार्बोसा, नूनिज,सीजर फ्रेडरिक, पियत्रो देलावाले और अन्य विदेशी यात्रियों ने इस कुप्रथा ( सती प्रथा ) का आँखों देखा वर्णन किया है।

डुआर्ट बार्बोसा ने लिखा है कि यह प्रथा लिंगायतों, चेट्टियों और ब्राह्मणों में प्रचलित नहीं थी। लिंगायत सम्प्रदाय की विधवाओं को जीवित दफना दिया जाता था। राज्य व्यावहारिक रूप से सती प्रथा का प्रश्रय नहीं देता था। सती प्रथा को मानने वाली स्त्रियों की स्मृति में  सती स्मारक  सतीकल या महासतीकल अथवा महासती गुल्ल स्थापित किये जाते थे।

वस्त्राभूषण-

सामान्य वर्ग के पुरुष धोती और सफेद सूती रेशमी कमीज पहनते थे। कन्धे पर दुपट्टा डालने का भी प्रचलन था। जाति एवं व्यावसायिक आधार पर परिधानों में बङी विषमता थी राजपरिवार के पुरुष एवं स्त्रियाँ दोनों कीमती एवं जरीदार कपङे पहनते थे। राजपरिवार की स्त्रियाँ ( एक प्रकार का पेटीकोट ) दुपट्टा और चोली पहनती थी। युद्ध में वीरता दिखाने वाले पुरुषों के लिए गंडपेद्र नामक पैर में धारण करने वाले कङे को सम्मान का प्रतीक माना जाता था। प्रारंभ में इसे युद्ध में वीरता का प्रतीक माना जाता था, परंतु बाद में इसे सम्मान का प्रतीक माना जाने लगा।

शिक्षा और मनोरंजन-

विजयनगर नरेशों ने चोलों और पल्लवों की भाँति अपनी प्रजा की शिक्षा के लिए विद्यालयों एवं महाविद्यालयों की स्थापना नहीं की, फिर भी उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से शिक्षा को प्रोत्साहन दिया।

उन्होंने मठों और असंख्य अग्रहारों की स्थापना करके शिक्षा और ज्ञान को प्रोत्साहन दिया। मंदिर, मठ एवं अग्रहार विद्या के केन्द्र थे।

प्रत्येक अग्रहार में ज्ञान की किसी विशेष शाखा में पारंगत ब्राह्मण होते थे। अग्रहारों में मुख्यतः  वेदों की शिक्षा दी जाती थी। इतिहास,काव्य, नाटक, आयुर्वेद तथा शास्त्र एवं पुराण अध्ययन के लोकप्रिय विषय थे। समकालीन वैष्णव संतों ने उदारवादी शिक्षा के विस्तार में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। तुलुव वंश ने भी विद्या एवं ज्ञान को पर्याप्त प्रश्रय दिया।

मनोरंजन के क्षेत्र में नाटक और यक्षज्ञान ( जिसमें  मंच पर संगीत एवं वाद्यों द्वारा अभिनय किया जाता था। ) इस काल में बहुत लोकप्रिय थे।

बोमलाट एक छाया – नाटक था जिसका आयोजन मण्डपों में किया जाता था।

शतरंज एवं पासा खेल बहुत लोकप्रिय था। कृष्णदेवराय स्वयं बङे शतरंज प्रेमी थे।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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