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सुभाष चंद्र बोस एवं आजाद हिन्द फौज

17 जनवरी,1941 को सुभाष चंद्र बोस(Subhash Chandra Bose) कलकत्ता से अचानक गायब हो गये, वे पेशावर काबुल होते हुए रूस पहुँचे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय रूस पर जर्मनी (Germany)द्वारा आक्रमण किये जाने के कारण रूस मित्र राष्ट्रों में शामिल हो गया, इसलिए सुभाष को रूस से जर्मनी जाना पङा।

जर्मनी में सुभाष ने हिटलर से मुलाकात कर भारतीय स्वतंत्रता हेतु सहयोग मांगा।जर्मनी में ही भारतीयों द्वारा सुभाष चंद्र बोस को प्रसिद्ध नेता जी की उपाधि प्रदान की गयी।

जर्मनी मेें सुभाष चंद्र बोस द्वारा फ्री इंडिया सेंटर की स्थापना की गई। इसी संस्था द्वारा सुभाष ने पहली बार जयहिंद का नारा दिया।

फरवरी,1943 को सुभाष चंद्र बोस ने अपने सहयोगी आबिद हुसैन के साथ जर्मन यू बोट द्वारा जर्मन के कील नामक स्थान से रवाना हुए। रास्ते में जर्मन बोट को छोङकर हवाई जहाज से 13 जून,1943 को टोकियो पहुँचे।

रास बिहारी बोस जापान में रह रहे भारतीय अप्रवासी थे, इन्होंने 28 से 30 मार्च 1942 के बीच राजनीतिक समस्याओं पर विचार-विमर्श हेतु टोकियो में भारतीयों का एक सम्मेलन आयोजित किया।

टोकियो सम्मेलन में रास बिहारी बोस ने जापान में रह रहे भारतीय सेना के अफसरों द्वारा भारत की मुक्ति के लिए भारतीय राष्ट्रीय सेना के गठन पर विचार किया ।

इसी सम्मेलन में रास बिहारी बोस ने इंडिया इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना की।ब्रिटिश भारतीय सेना के एक अधिकारी मोहन सिंह के दिमाग में सर्वप्रथम आजाद हिन्द फौज की स्थापना का विचार आया।

ब्रिटिश भारतीय सेना के वे सिपाही जिन्होंने जापान के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था, को लेकर मोहन सिंह ने मलाया में आजाद हिन्द फौज का 15 दिसंबर,1941 को गठन किया।

प्रारंभ में आजाद हिन्द फौज का गठन लगभग 50,000 अधिकारियों और सिपाहियों द्वारा किया गया।

जून,1942 को रास बिहारी द्वारा बैंकाक(मलेशिया) में इंडिया इंडिपेंडेंस लीग का एक और सम्मेलन बुलाया गया, जिसमें सुभाष चंद्र बोस को लोग और आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व सौंपने का निर्णय किया गया।

आजाद हिन्द फौज के प्रथम सेनापति सुभाष चंद्र बोस थे।

7 जुलाई, 1943 को रास बिहारी बोस ने आजाद हिन्द फौज की कमान सुभाष चंद्र बोस को सौंप दी। सुभाष I.N.A(Indian National Army)के सर्वोच्च सेनापति (कमांडर) घोषित किये गये।

21 अक्टूबर, 1943 को सुभाष ने सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार का गठन किया, जिसके मंत्रियों में एच.सी.चटर्जी (वित्त) एम.ए.अय्यर(प्रचार) तथा लक्ष्मी स्वामिनाथन(स्त्रियों के विभाग) आदि शामिल थे।

सुभाष चंद्र बोस ने अस्थायी सरकार का मुख्यालय रंगून बनाया, जर्मनी तथा जापान ने अस्थायी सरकार का समर्थन किया।

सुभाष चंद्र बोस ने लक्ष्मीबाई का नाम रानी झांसी रेजिमेंट महिलाओं के लिए स्थापित किया। आजाद हिन्द फौज के तीन और ब्रिगेड का नाम क्रमशः सुभाष ब्रिगेड,नेहरू ब्रिगेड, गांधी ब्रिगेड रखा गया।

मलेशिया में सैनिकों का आह्वान करते हुए सुभाष चंद्र बोस ने कहा कि बहुत त्याग किया है, किन्तु अभी प्राणों की आहुति देना शेष है, आजादी को आज हम अपने शीश फल चढा देने वाले पागल पुजारी की आवश्यकता है, जो अपना सिर काटकर स्वाधीनता की देवी को भेंट चढा सके, तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा।

दिल्ली चलो, का नारा भी सुभाष चंद्र बोस ने ही दिया था।

6 नवंबर,1943 को जापानी सेना ने आजाद हिन्द फौज को अंडमान और निकोबार द्वीप सौंप दिये।

18 मार्च,1944 को आजाद हिन्द फौज के तीन ब्रिगेड जापानी सेना के नेतृत्व में भारत को आजाद कराने के उद्देश्य से वर्मा की सीमाओं को पार कर उत्तर पूर्व भारत के क्षेत्र कोहिमा और नागालैण्ड पर घेरा डाल दिया।यह घेरा करीब 1 वर्ष तक चला।

6 जुलाई, 1944 को सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिन्द रेडियो के एक प्रसारण में महात्मा गांधी के नाम एक विशेष प्रसारण में कहा कि भारत की स्वाधीनता का आखिरी युद्ध शुरू हो गया है। राष्ट्रपिता भारत की मुक्ति के इस पवित्र युद्ध में हम आप का आशीर्वाद और शुभकामनाएँ चाहते हैं।

पहली बार सुभाष द्वारा गांधीजी के लिए राष्ट्रपिता शब्द प्रयोग किया गया।

मई, 1945 में ब्रिटिश सेना द्वारा रंगून पर पुनः अधिकार कर लिये जाने के बाद आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों को जापानी सेना के साथ आत्मसमर्पण करना पङा।

18 अगस्त,1945 को ताइकु हवाई अड्डे (ताईवान) पर हुई हवाई दुर्घटना में सुभाष चंद्र बोस मारे गये।

आजाद हिन्द फौज पर मुकदमा

1945 में आजाद हिन्द फौज में सिपाहियों द्वारा समर्पण के बाद सरकार ने उन पर निष्ठा की शपथ (सरकार के प्रति) तोङने के आरोप में लालकिले में मुकदमा चलाने का निर्णय लिया।

सरकार के इस निर्णय के विरुद्ध समूचे देश में आंदोलन शुरू हो गये, कांग्रेस ने I.N.A. (Indian National Army) के सिपाहियों को बचाने के लिए आजाद हिन्द बचाव समिति की स्थापना की।

बचाव पक्ष के वकीलों के विरुद्ध में मूलाभाई देसाई प्रमुख थे, उनका सहयोग करने के लिए तेज बहादुर सप्रू, काटजू, जवाहर लाल नेहरू ने भी अदालत में बहस की।

आजाद हिन्द फौज के सिपाही सरदार गुरू बख्श सिंह, श्री प्रेम सहगल, साह नवाज पर मुकदमा चलाया गया संक्षिप्त मुकदमें के बाद इन्हें फांसी की सजा सुनाई गई।

सरकार के इस निर्णय ने समूचे देश को स्तब्ध कर दिया, लोगों के हस्ताक्षरों सभाओं के दौर ने वायसराय को अपना विशेष अधिकार प्रयोग कर तीनों की फांसी माफ करने को विवश होना पङा।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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