इतिहासभक्ति आंदोलनमध्यकालीन भारत

वल्लभाचार्य से संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्य

न्य संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्य-

  1. भक्ति आंदोलन क्या था, इसके कारण तथा प्रमुख संत
  2. भक्ति आंदोलन में कबीर का योगदान
  3. चैतन्य महाप्रभु

वल्लभाचार्य (1479-1531ई.)- वल्लभाचार्य वैष्णव धर्म के कृष्ण मार्गी शाखा के  महान संत थे। इनका जन्म 1479ई. में वाराणसी में उस समय हुआ जब इनके पिता लक्ष्मण भट्ट तेलंगाना से अपने परिवार के साथ काशी की तीर्थयात्रा पर आये थे। ये ब्राह्मण परिवार के थे।

काशी में अपनी शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात बल्लभाचार्य अपने गृहनगर विजयनगर चले गये और कृष्ण देवराय के समय में इन्होंने वैष्णव सम्प्रदाय की स्थापना की। ये श्रीनाथ जी के नाम से भगवान श्री कृष्ण की पूजा करते थे। कबीर और नानक की तरह इन्होंने विवाहित जीवन को आध्यात्मिक उन्नति के लिए बाधक नहीं माना।

बल्लभाचार्य शुद्धाद्वैत में विश्वास करते थे। इन्होंने अनेक धार्मिक ग्रंथ लिखे जिनमें सुबोधिनी  और सिद्धांत रहस्य अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। इनके पुत्र विठ्ठल नाथ ने कृष्ण भक्ति को अधिक लोकप्रिय बनाया। अकबर ने उन्हें गोकुल और जैतपुर की जागीरें प्रदान की।

इनका दर्शन एक वैयक्तिक तथा प्रेममयी ईश्वर की अवधारणा पर केन्द्रित है। वे पुष्टिमार्ग और भक्तिमार्ग में विश्वास करते थे।

भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्णभक्ति शाखा के आधार स्तंभ एवं पुष्टिमार्ग के प्रणेता माने जाते हैं। जिनका प्रादुर्भाव ईः सन्1479, वैशाख कृष्ण एकादशी को दक्षिण भारत के कांकरवाड ग्रामवासी तैलंग ब्राह्मण श्री लक्ष्मणभट्ट जी की पत्नी इलम्मागारू के गर्भ से काशी के समीप हुआ। उन्हें ‘वैश्वानरावतार अग्नि का अवतार’ कहा गया है।

वे वेद शास्त्र में पारंगत थे। श्री रुद्रसंप्रदाय के श्री विल्वमंगलाचार्य जी द्वारा इन्हें ‘अष्टादशाक्षर गोपाल मन्त्र’ की दीक्षा दी गई। त्रिदंड सन्न्यास की दीक्षा स्वामी नारायणेन्द्र तीर्थ से प्राप्त हुई। विवाह पंडित श्रीदेव भट्ट जी की कन्या महालक्ष्मी से हुआ, और यथासमय दो पुत्र हुए- श्री गोपीनाथ व विट्ठलनाथ।

जीवन परिचय

श्री वल्लभाचार्य जी विष्णुस्वामी संप्रदाय की परंपरा में एक स्वतंत्र भक्ति-पंथ के प्रतिष्ठाता, शुद्धाद्वैत दार्शनिक सिद्धांत के समर्थक प्रचारक और भगवत-अनुग्रह प्रधान एवं भक्ति-सेवा समन्वित ‘पुष्टि मार्ग’ के प्रवर्त्तक थे। वे जिस काल में उत्पन्न हुए थे, वह राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक सभी दृष्टियों से बड़े संकट का था

पूर्वज और माता-पिता

श्री वल्लभाचार्य जी के पूर्वज आंध्र राज्य में गोदावरी तटवर्ती कांकरवाड़ नामक स्थान के निवासी थे। वे भारद्धाज गोत्रीय तैलंग ब्राह्मण थे उनके पिता श्री लक्ष्मण भट्ट दीक्षित प्रकांड विद्वान और धार्मिक महापुरुष थे। उनका विवाह विद्यानगर (विजयनगर) के राजपुरोहित सुशर्मा की गुणवती कन्या इल्लम्मगारू के साथ हुआ था; जिससे रामकृष्ण नामक पुत्र और सरस्वती एवं सुभद्रा नाम की दो कन्याओं की उत्पत्ति हुई थी।

जन्म

श्री लक्ष्मण भट्ट अपने संगी-साथियों के साथ यात्रा के कष्टों को सहन करते हुए जब वर्तमान मध्य प्रदेश में रायपुर ज़िले के चंपारण्य नामक वन में होकर जा रहे थे, तब उनकी पत्नी को अकस्मात प्रसव-पीड़ा होने लगी। सांयकाल का समय था। सब लोग पास के चौड़ा नगर में रात्रि को विश्राम करना चाहते थे; किन्तु इल्लमा जी वहाँ तक पहुँचने में भी असमर्थ थीं। निदान लक्ष्मण भट्ट अपनी पत्नी सहित उस निर्जंन वन में रह गये और उनके साथी आगे बढ़ कर चौड़ा नगर में पहुँच गये। उसी रात्रि को इल्लम्मागारू ने उस निर्जन वन के एक विशाल शमी वृक्ष के नीचे अठमासे शिशु को जन्म दिया। बालक पैदा होते ही निष्चेष्ट और संज्ञाहीन सा ज्ञात हुआ, इसलिए इल्लम्मागारू ने अपने पति को सूचित किया कि मृत बालक उत्पन्न हुआ है। रात्रि के अंधकार में लक्ष्मण भट्ट भी शिशु की ठीक तरह से परीक्षा नहीं कर सके। उन्होंने दैवेच्छा पर संतोष मानते हुए बालक को वस्त्र में लपेट कर शमी वृक्ष के नीचे एक गड़ढे में रख दिया और उसे सूखे पत्तों से ढक दिया। तदुपरांत उसे वहीं छोड़ कर आप अपनी पत्नी सहित चौड़ा नगर में जाकर रात्रि में विश्राम करने लगे।

दूसरे दिन प्रात:काल आगत यात्रियों ने बतलाया कि काशी पर यवनों की चढ़ाई का संकट दूर हो गया। उस समाचार को सुन कर उनके कुछ साथी काशी वापिस जाने का विचार करने लगे और शेष दक्षिण की ओर जाने लगे। लक्ष्मण भट्ट काशी जाने वाले दल के साथ हो लिये। जब वे गत रात्रि के स्थान पर पहुंचे, तो वहाँ पर उन्होंने अपने पुत्र को जीवित अवस्था में पाया। ऐसा कहा जाता है उस गड़ढे के चहुँ ओर प्रज्जवलित अग्नि का एक मंडल सा बना हुआ था और उसके बीच में वह नवजात बालक खेल रहा था। उस अद्भुत दृश्य को देख कर दम्पति को बड़ा आश्चर्य और हर्ष हुआ। इल्लम्मा जी ने तत्काल शिशु को अपनी गोद में उठा लिया और स्नेह से स्तनपान कराया। उसी निर्जन वन में बालक के जातकर्म और नामकरण के संस्कार किये गये। बालक का नाम ‘वल्लभ’ रखा गया, जो बड़ा होने पर सुप्रसिद्ध महाप्रभु वल्लभाचार्य हुआ। उन्हें अग्निकुण्ड से उत्पन्न और भगवान की मुखाग्नि स्वरूप ‘वैश्वानर का अवतार’ माना जाता है।

आरंभिक जीवन

वल्लभाचार्य जी का आरंभिक जीवन काशी में व्यतीत हुआ था, जहाँ उनकी शिक्षा-दीक्षा तथा उनके अध्ययनादि की समुचित व्यवस्था की गई थी। उनके पिता श्री लक्ष्मण भट्ट ने उन्हें गोपाल मन्त्र की दीक्षा दी थी और श्री माधवेन्द्र पुरी के अतिरिक्त सर्वश्री विष्णुचित तिरूमल और गुरुनारायण दीक्षित के नाम भी मिलते हैं। वे आरंभ से ही अत्यंत कुशाग्र बुद्धि और अद्भुत प्रतिभाशाली थे। उन्होंने छोटी आयु में ही वेद, वेदांग, दर्शन, पुराण, काव्यादि में तथा विविध धार्मिक ग्रंथों में अभूतपूर्व निपुणता प्राप्त की थी। वे वैष्णव धर्म के अतिरिक्त जैनबौद्ध, शैव, शाक्त, शांकर आदि धर्म-संप्रदायों के अद्वितीय विद्वान थे। उन्होंने अपने ज्ञान और पांडित्य के कारण काशी के विद्वत समाज में आदरणीय स्थान प्राप्त किया था।

वल्लभाचार्य के प्रमुख ग्रंथ

  • ब्रह्मसूत्र का ‘अणु भाष्य’ और वृहद भाष्य’
  • भागवत की ‘सुबोधिनी’ टीका
  • भागवत तत्वदीप निबंध
  • पूर्व मीमांसा भाष्य
  • गायत्री भाष्य
  • पत्रावलंवन
  • पुरुषोत्तम सहस्त्रनाम
  • दशमस्कंध अनुक्रमणिका
  • त्रिविध नामावली
  • शिक्षा श्लोक
  • 11 से 26 षोडस ग्रंथ, (1.यमुनाष्टक,2.बाल बोध,3.सिद्धांत मुक्तावली,4.पुष्टि प्रवाह मर्यादा भेद, 5.सिद्धान्त 6.नवरत्न, 7.अंत:करण प्रबोध, 8. विवेकधैयश्रिय, 9.कृष्णाश्रय, 10.चतुश्लोकी, 11.भक्तिवर्धिनी, 12.जलभेद, 13.पंचपद्य, 14.संन्सास निर्णय, 15.निरोध लक्षण 16.सेवाफल)
  • भगवत्पीठिका
  • न्यायादेश
  • सेवा फल विवरण
  • प्रेमामृत तथा
  • विविध अष्टक (1.मधुराष्टक, 2.परिवृढ़ाष्टक, 3. नंदकुमार अष्टक, 4.श्री कृष्णाष्टक, 5. गोपीजनबल्लभाष्टक आदि।)

अणुभाष्य

ब्रह्मसूत्र पर वल्लभाचार्य ने अणुभाष्य लिखा। अणु शब्द का प्रयोग आचार्य ने क्यों किया। ऐसी मान्यता है कि वल्लभाचार्य ने ब्रह्मसूत्र पर दो भाष्य लिखे थे, एक बृहदभाष्य (या भाष्य) और दूसरा अणु (छोटा) भाष्य। ऐसा प्रतीत होता है कि बृहदभाष्य अब उपलब्ध नहीं होता, किन्तु अणुभाष्य उसी का लघु संस्करण है। इसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है कि श्रीमद्भागवत पर भी वल्लभाचार्य ने एक बृहद टीका (सुबोधिनी) लिखी और एक लघु टीका (सूक्ष्म टीका, जो कि अब उपलब्ध नहीं होती)। एक ही ग्रन्थ की टीकाओं के एकाधिक संस्करण अन्य आचार्यों ने भी लिखे हैं। उदाहरणतया मध्वाचार्य ने ब्रह्मसूत्र पर ही चार टीकाएं लिखी थीं-

  1. भाष्य
  2. अणुभाष्य (अथवा अनुव्याख्यान)
  3. अनुव्याख्यान विवरण
  4. अणुव्याख्यान।

ये चारों ही संस्करण उपलब्ध हैं। अत: मध्वाचार्य का अनुकरण करके वल्लभाचार्य ने भी ब्रह्मसूत्र के भाष्य के दो संस्करण (एक बढ़ा और एक सूक्ष्म) लिखे हों तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। वल्लभाचार्य ने दार्शनिक समस्याओं के समाधान में अनुमान को अनुपयुक्त मानकर शब्द प्रमाण को वरीयता दी है। उनके मतानुसार ब्रह्म माया से अलिपत होने के कारण नितान्त शुद्ध है। वह सत्, चित्, आनन्द रस से युक्त है। ब्रह्म अपनी संधिनी शक्ति के सत् का, संचित् शक्ति द्वारा चित् का, और ह्लादिनी शक्ति द्वारा आनन्द का आवर्भाव करता है। वह पूर्ण पुरुषोत्तम शाश्वत तथा सर्वव्यापक होने के साथ साथ कर्ता और भोक्ता दोनों है। जगत् को वह अपने में से आविर्भूत करता है। और इस प्रकार वह जगत् का निमित्तकरण तथा उपादान कारण भी है। वह अविकृत परिणामवाद के अनुसार अपने को जगत् के रूप में आविर्भूत करता है, अत: उसके मूल स्वरूप में कोई परिवर्तन या विकार नहीं आता है।

ब्रह्म के तीन रूप

सृष्टि क्रम के संदर्भ में वल्लभाचार्य ने ब्रह्म के तीन रूप बताए हैं-

  1. आधिभौतिक-पर ब्रह्म
  2. आध्यात्मिक-अक्षर ब्रह्म
  3. आधिभौतिक-जगत् ब्रह्म।

ब्रह्म रमण करने की इच्छा से जीव और जड़ का आविर्भाव करता है। इस व्यापार में उसकी क्रीड़ा करने की इच्छा का ही प्राधान्य है, न कि माया का। जिस प्रकार एक ही सर्प कुण्डल आदि बनाकर अनेक रूपों में दिखाई पड़ता है, किन्तु सर्प और उसके कुण्डलादि रूप अभिन्न हैं, उसी प्रकार ब्रह्म अनेक रूपों में स्फुरित होते हुए भी शुद्ध अद्वैत रूप ही है।

ब्रह्म का दूसरा रूप अक्षर ब्रह्म है। वह भी सत्, चित् तथा आनन्दमय है, किन्तु परब्रह्म में आनन्द असीमित मात्रा में है, जबकि अक्षर ब्रह्म में वह सीमित होता है। यह अक्षर ब्रह्म ही अवतार के रूप में आविर्भूत होता है। अक्षर ब्रह्म एक प्रकार से आधिवैदिक परब्रह्म का आध्यात्मिक (कायिक) रूप है। कहीं कहीं अक्षर ब्रह्म को परब्रह्म का पुच्छ भी कहा गया है। अक्षर ब्रह्म के अतिरिक्त काल, कर्म और स्वभाव भी परब्रह्म के ही रूपान्तर हैं। सृष्टि के आरम्भ में, अक्षर ब्रह्म प्रकृति और पुरुष के रूप में आविर्भूत होता है। प्रकृति ही विभिन्न सोपानों में परिणत होती हुई जगत् का सृजन करती है। इसलिए प्रकृति को कारणों का कारण कहा जाता है। काल, कर्म और स्वभाव इस सृष्टि प्रक्रिया में अपनी अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं। यद्यपि अक्षर, काल, कर्म और स्वभाव सृष्टि से पूर्व विद्यमान रहते हैं, किन्तु इनकी गिनती उन 28 तत्वों में नहीं की जाती, जिनका उल्लेख तत्वार्थदीप में इस प्रकार किया गया है- सत्व, रजस्, पुरुष, प्रकृति, महत्, अहंकार, पंचतन्मात्र, पंचमहाभूत, पंचकर्मेन्द्रियां, पंचज्ञानेन्द्रियां तथा मनस्। यह ज्ञातव्य है कि नाम साम्य होने पर भी तत्वार्थदीप में गिनाए गए तत्व सांख्य के तत्वों से भिन्न हैं।

जीव ब्रह्म

वल्लभाचार्य के अनुसार जीव ब्रह्म ही है। यह भगवत्स्वरूप ही है, किन्तु उनका आनन्दांश-आवृत रहता है। जीव ब्रह्म से अभिन्न है, जब परब्रह्म की यह इच्छा हुई कि वह एक से अनेक हो जाये तो अक्षर ब्रह्म हज़ारों की संख्या में लाखों जीव उसी तरह से उद्भूत हुए, जैसे कि आग में से हज़ारों स्फुलिंग निकलते हैं। कुछ विशेष जीव अक्षर ब्रह्म की अपेक्षा सीधे ही परब्रह्म से आविर्भूत होते हैं। जीव का व्युच्चरण होता है उत्पत्ति नहीं। जीव इस प्रकार ब्रह्म का अंश है और नित्य है। लीला के लिए जीव में से आनन्द का अंश निकल जाता है, जिससे की जीव बंधन और अज्ञान में पड़ जाता है। जीव का जन्म और विनाश नहीं होता, शरीर की उत्पत्ति और नाश होता है। शंकर जीवात्मा को ज्ञानस्वरूप मानते हैं। वल्लभाचार्य के अनुसार वह ज्ञाता है। जीव अणु है किन्तु वह सर्वव्यापक और सर्वज्ञ नहीं है, चैतन्य के कारण वह भोग करता है। लीला के उद्देश्य से जगत् में वैविध्य लाने के लिए जीवों की तीन कोटियां बताई गई हैं-

  1. शुद्ध, जिस जीव में आनन्दांश का तिरोभाव रहता है, पर अविद्या से जिसका सम्बन्ध नहीं रहता, वह शुद्ध कहलाता है।
  2. संचारी, जब जीव का अविद्या से सम्बन्ध हो जाता है और वह जन्मादि क्रियाओं के बन्धन का विषय हो जाता है तो वह संचारी कहलाता है, संचारी जीव भी देव और आसुरभेद दो प्रकार के होते हैं।
  3. मुक्त, जो जीव ईश्वर के अनुग्रह से सच्चिदानंद रूप का प्राप्त करते हैं और ईश्वरमय हो जाते हैं, वे मुक्त कहलाते हैं।

पति रूप या स्वामी रूप में श्रीकृष्ण की सेवा करना जीव का धर्म है। जीवों का जीवत्व, ईश्वर की आविर्भाव एवं तिरोभाव क्रियाओं का परिणाम है। इन क्रियाओं के द्वारा ही ईश्वर की कुछ शक्तियां एवं गुण जीव में तिरोभूत और कुछ आविर्भूत हो जाते हैं। वल्लभाचार्य के मतानुसार जगत् नित्य है। वह ब्रह्म का आधिभौतिक रूप है। उसमें सत् तो विद्यमान है, किन्तु चित् और आनंद प्रच्छन्न या अदृश्य रहते हैं। जगत् ब्रह्म की आविर्भाव दशा है। अत: कारणरूप ब्रह्म और कार्य रूप जगत् में कोई भेद नहीं है। वल्लभाचार्य के अनुसार जगत् ब्रह्मरूप ही है। कार्यरूप जगत् कारणरूप ब्रह्म से आविर्भूत हुआ है। सृष्टि ब्रह्म की आत्मकृति है। ब्रह्म से जगत् आविर्भूत हुआ, फिर भी ब्रह्म में कोई विकृति नहीं आती। यही अविकृत परिणामवाद है। जगत् की न तो उत्पत्ति होती है और न ही विनाश। उसका आविर्भाव-तिरोभाव होता है।

जगत् और संसार

वल्लभाचार्य के मतानुसार जगत् और संसार में अंतर है। जगत् उसे कहते हैं, जो ईश्वर की इच्छा व विलास से आविर्भूत हो। इसके विपरीत, जीव अविद्या के प्रभाव से कल्पना तथा ममता द्वारा अर्थात् अविद्या के स्वरूपज्ञान, देहध्यास, इन्द्रियाध्यास, प्राणाध्यास तथा अंत:करणाध्यास- इन ‘पर्वी’ द्वारा जीवों की बुद्धि में जो द्वैतमूलक भ्रम उत्पन्न होता है, उससे जिस पदार्थ वर्ग की सृष्टि करता है वह संसार कहलाता है। ज्ञान होने पर संसार का नाश हो जाता है, किन्तु जगत् ब्रह्मरूप होने के कारण नष्ट नहीं होता। शुद्धाद्वैतवाद के अनुसार जगत् ब्रह्म और जीव के समान नित्य है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो विश्व दो प्रकार का होता है, एक पृथ्वी, सूर्य, चंद्र आदि से बना हुआ जड़ जगत्, जिसमें चेतन जीव रहते हैं और दूसरा जीवों के ममत्व से उत्पन्न हुआ संसार। ब्रह्म जगत् का निमित्त कारण शरीर और उपादान कारण दोनों है। ब्रह्म को समवायिकारण भी कहा गया है, क्योंकि वह सत्, चित् और आनंद रूप में सर्वव्यापक है।

मोक्ष और माया

अद्वैतवाद में माया को उपादान कारण माना गया है। वल्लभाचार्य ने माया के दो भेद बताये हैं- अविद्या माया और विद्या माया। अविद्या माया जीव में भ्रान्ति उत्पन्न करती है, जिससे कि वह अपने चित् रूप को भूल जाता है। विद्या माया अज्ञान नाशिनी होती है। मोक्ष प्राप्ति के संदर्भ में प्राय: तीन मार्गों का उल्लेख किया जाता है- कर्ममार्ग, ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग। वेदान्त के विभिन्न सम्प्रदायों में इनके सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद रहा है। शुद्ध द्वैतवाद के अनुसार अग्निहोत्र, दर्शपौर्णमास, पशुयाग, चातुर्मास्य और सोमयाग करने से मोक्ष प्राप्त होता है। किन्तु ऐसा मोक्ष देवयान मार्ग का अनुसरण करके ही प्राप्त होता है। जो व्यक्ति ज्ञान मार्ग का अनुसरण करता है यानी यह ज्ञान प्राप्त कर लेता है कि जगत् में जो कुछ है, वह सब ब्रह्म ही है, वह अक्षर ब्रह्म में विलीन होता है, न कि परब्रह्म में, क्योंकि ज्ञानमार्गी की सीमा अक्षर ब्रह्म तक ही है। ज्ञानमार्गी अक्षर ब्रह्म का ही अंतिम सत्ता समझता है। हाँ, यदि ब्रह्मज्ञान में भक्ति का सामंजस्य हो जाये तो व्यक्ति परब्रह्म में लीन हो सकता है। इससे भी उत्तम स्थिति वह है, जिसमें परब्रह्म अपनी ही इच्छा से किसी जीव का अपने अंदर से आविर्भाव करके उसके साथ स्वयं नित्यलीला करता है। यही भजनानंद या स्वरूपानंद की स्थिति है। शंकर ने मतानुसार जीव ब्रह्मक्य रूप मुक्ति का प्रतिपादन किया था, किन्तु वल्लभाचार्य के मतानुसार भगवद माहात्म्यज्ञानपूर्विका भक्ति ही मुक्ति का कारण है। यद्यपि भक्ति मुक्ति का साधन, परन्तु उसका महत्त्व मुक्ति से भी अधिक है। वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैतवाद को स्पष्ट रूप से समझने के लिए यह भी आवश्यक है कि वेदान्त के अन्य सम्प्रदायों और विशेष रूप से शंकर के सिद्धांतों के परिप्रेक्ष्य में उसकी सरसरी समीक्षा कर ली जाये।

Reference : https://www.indiaolddays.com/vallabhacharya/ ‎

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