मध्यकालीन भारतइतिहासविजयनगर साम्राज्य

विजयनगर साम्राज्य की शासन व्यवस्था में राज्य को कितने प्रांतों में बांटा गया था

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प्रशासन की सबसे छोटी इकाई उर या ग्राम थी। प्रांतों का विभाजन करने में सैनिक दृष्णिकोण का ध्यान रखा जाता था। सामान्यतः प्रांतों पर राजपरिवार के व्यक्तियों ( कुमारों या राजकुमारों ) को ही गर्वनर के रूप में नियुक्त किया जाता  था। कुछ प्रांतों पर कुशल और अनुभवी दण्डनायकों को भी गवर्नर के रूप में नियुक्त किया जाता था। गवर्नर को सिक्के प्रसारित करने, नये कर लगाने तथा पुराने करों को माफ करने, भूमिदान देने आदि का अधिकार प्राप्त था। संगम युग में गवर्नरों के रूप में शासन करने वाले राजकुमारों ने उरैयर उपाधि धारण की। प्रांत में कानून एवं व्यवस्था बनाए रखना प्रांतीय गवर्नरों का सबसे प्रमुख उत्तरदायित्व था।

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प्रांतीय प्रशासन-

विजयनगर जैसे विशाल साम्राज्य पर प्रशासन के लिए उसे अनेक प्रांतों में विभाजित किया  गया था ।

जैसे-

  • प्रांत – राज्य कहलाते थे।
  • मंडल ( कमिश्नरी ) – प्रांतों के अंतर्गत आते थे।
  • कोट्टम या वलनाडु – जिले कहलाते थे।
  • नाडु ( परगना या तहसील ) – कोट्टम या वलनाडु के अंतर्गत आते थे।
  • मेलाग्राम ( पचास ग्राम ) – नाडुओं के अंतर्गत आते थे।
  • स्थल एवं सीमा – कुछ गाँवों के समूह होते थे।

नायंकर व्यवस्था-

विजयनगर साम्राज्य की प्रांतीय प्रशासन व्यवस्था के संदर्भ में नायंकर व्यवस्था उसका एक बहुत महत्त्वपूर्ण अंग थी। इसे विजयनगर साम्राज्य की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता बताया गया है। चोल युग और विजयनगर युग के राजतंत्र के बीच सबसे बङा अंतर यही नायंकर व्यवस्था है। इस व्यवस्था की उत्पत्ति और इसके स्वरूप के विषय में अनेक विवाद है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार विजयनगर साम्राज्य में सेनानायकों को नायक कहा जाता था।

कुछ अन्य इतिहासकारों का कहना है कि नायक वस्तुतः भू- सामंत थे, जिन्हें वेतन के बदले अथवा अधीनस्थ सेना के रख-रखाव के लिए विशेष भू-खंड अमरम प्रदान की जाती थी। अमरम भूमि का उपभोग करने के कारण इन्हें अमरनायक भी कहा जाता था। 16 वी. शता. तक इन नायकों की संख्या लगभग 200 थी और इन नायकों को सबसे अधिक तमिलनाडु में नियुक्त किया गया था।

अमरम भूमि का उपभोग करने के संबंध में नायकों के दो प्रमुख उत्तरदायित्व थे-

  1. इससे प्राप्त आय के एक अंश को उन्हें केन्द्रीय खजाने में जमा करना पङता था।
  2. उन्हें इसी भूमि की आय से राजा की सहायता के लिए एक सेना रखनी पङती थी।

नायक की स्थिती प्रांतीय गवर्नर की तुलना में निम्न दृष्टयों से भिन्न होती थी-

  • प्रांतीय गवर्नर राजा का प्रतिनिधि होता था और वह राजा के नाम से शासन करता था, जबकि नायक केवल एक सैनिक सामंत होता था उसे सैनिक एवं वित्तीय दायित्वों की पूर्ति के लिए कुछ जिले या प्रदेश प्रदान किये जाते थे।
  • गवर्नर की तुलना में नायकों को अपने अमरम प्रांत में कहीं अधिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। राजा सामान्यतः नायंकार प्रदेशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता था।
  • नायकों का स्थानांन्तरण नहीं होता था जबकि गवर्नर प्रशासकीय आवश्यकता के अनुरूप स्थानांन्तरित या पदच्युत भी किया जा सकता था। गवर्नरों को प्रायः दण्डनायक कहा जाता था और अधिकांशतः वे ब्राह्मण हुआ करते थे।
  • नायकों के पद धीरे-2 आनुवांशिक हो गये जबकि गवर्नर आनुवांशिक नहीं थे।

नायक केन्द्र या सम्राज्य की राजधानी में दो प्रकार के अधिकारियों को नियुक्त करता था। उनमें से एक केन्द्र में नियुक्त नायक की सेना का सेनापति होता था और दूसरा स्थानपति नामक अधिकारी राजदरबार ( विजय नगर ) में नायक के एजेन्ट के रूप में कार्य करता था। विजयनगर काल में नायंकर व्यवस्था का सर्वाधिक प्रचलन तमिलनाडु में देखने को मिलता है। नायंकार व्यवस्था में सामंतवादी लक्षण बहुत अधिक थे। जो विजयनगर साम्राज्य के विनाश का कारण बनी। कृष्णदेवराय की मृत्यु के बाद अच्युतदेवराय के शासन काल में नायकों की उच्छृखंलता को रोकने के लिए महामंडलेश्वर या विशेष कमिश्नरों की नियुक्ति की गई।

स्थानीय प्रशासन-

चोल तथा चालुक्य शासन काल की तरह विजयनगर काल में भी सभा और नाडु प्रचलित रही।

ग्राम सभाएं –

  • इस काल में किसी-2 प्रदेश में सभा और महासभा को अन्यत्र उर और महाजन भी कहा जाता था।
  • प्रत्येक गाँव को अनेक वार्डों या मुहल्लों में बाँटा गया था। सभा के विचार विमर्श में गाँव या क्षेत्र विशेष के लोग भाग लेते थे।
  • इन ग्रामीण सभाओं को नई भूमि या अन्य प्रकार की सम्पत्ति को उपलब्ध करने व गाँव की सार्वजनिक जमीन को बेचने का अधिकार था। ये ग्राम सभाएं राजकीय करों को भी एकत्रित  करती थी।
  • ग्राम सभाएँ कुछ दीवानी मुकदमों का फैसला करती थी और फौजदारी के कुछ छोटे-2 मामलों में अपराधी को दण्ड दे सकती थी।
  • बह्मदेय ग्राम की सभा उर कहलाती थी। यद्यपी विजयनगर कालीन बैठकें करती थी।

नाडु-

  • यह गाँव की एक बङी राजनीतिक इकाई थी। इसकी सभा को नाडु तथा इसके सदस्यों को नात्तवार कहा जाता था। इसके अधिकार ग्राम सभा की भाँति होते थे परंतु इसका अधिकार क्षेत्र काफी बङा होता था। ये स्थानीय संस्थाएं शासकीय नियंत्रण के बाहर नहीं होती थी। नियमानुसार व्यवस्था न कर पाने पर इन्हें दण्डित किया जा  सकता था।
  • विजयनगर सम्राटों ने नायंकार और आयंगार व्यवस्था का विकास ही विजयनगर काल में स्थानीय संस्थाओं के पतन के लिए पर्याप्त रूप से उत्तरदायी था।
आयंगार व्यवस्था-

विजयनगर काल में ग्रामीण प्रशासन एक स्वतंत्र इकाई के रूप में प्रत्येक ग्राम को संगठित किया जाता था। जिस पर शासन के लिए बारह शासकीय व्यक्तियों को नियुक्त किया जाता था। इस बारह शासकीय अधिकारियों के समूह को आयंगार कहा जाता था। इन अधिकारियों की नियुक्ति सरकार द्वारा की जाती थी।

आयंगारों के पद आनुवांशिकक होते थे। आयंगार अपने पदों को बेच या गिरवी भी रख सकते थे। उन्हें वेतन के बदले लगान और कर मुक्त भूमि ( मान्यम्  भूमि ) प्रदान की जाती थी। इन आयंगारों की बिना जानकारी के सम्पत्ति का हस्तांतरण और भूमि अनुदान नहीं किया जा सकता था। इन बारह आयगार ग्रामीण कर्मचारियों में कर्णिकम् गाँव का एकाउन्टेन्ट या प्रधान लिपिक होता था। तलारी ग्राम का पुलिस कर्मी या चौकीदार होता था।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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