आधुनिक भारतइतिहासयूरोपीय कंपनियां

भारत में यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों के आगमन का क्रम क्या था

यूरोपीय वाणिज्यिक कंपनियां

मध्यकाल में भारत और यूरोप से व्यापारिक संबंध थे, ये व्यापार मुख्यतः भारत के पश्चिमी समुद्र तट से लाल सागर और पश्चिमी एशिया के माध्यम से होता था।

यह व्यापार मसालों और विलास की वस्तुओं से जुङा था, मसालों की आवश्यकता यूरोप में ठंडी के दिनों में मांस को सुरक्षित रखने और उसकी उपयोगिता को बढाने के लिए पङती थी।

भारत में यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों के आगमन का क्रम इस प्रकार था-

  1. पुर्तगीज
  2. डच
  3. अंग्रेज
  4. डेन
  5. फ्रांसीसी

भारत में पुर्तगीज सबसे पहले 1498ई. में आये और सबसे अंत में 1961ई. में वापस गये।

कंपनी तथा स्थापना वर्ष-

  1. एस्तादो द इंडिया(पुर्तगीज कंपनी)- 1498ई.
  2. वेरिंगिदे ओस्त इंडिशे कंपनी(डच ईस्ट इंडिया कंपनी)- 1602ई.
  3. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी- 1600ई.
  4. डेन ईस्ट इंडिया कंपनी-1616ई.
  5. कम्पने देस इंदेस ओरियंतलेस-1664ई.

पुर्तगीज राजकुमार हेनरी द नेविगेटर ने लंबी समुद्री यात्राओं को संभव बनाने के लिए दिक् सूचक यंत्र तथा नक्षत्र यंत्र के द्वारा गणनाएं करने वाली तालिकाएं और सारणियों का निर्माण कराया, जिससे समुद्र की लंबी यात्राएं और सारणियों का निर्माण कराया, जिससे समुद्र की लंबी यात्राएं संभव हुई।

1486ई.में पुर्तगाली नाविक बार्थोलोम्यो ने उत्तमाशा अंतरीप तथा वास्कोडिगामा ने भारत की खोज (1498) की।

पुर्तगाली-

प्रथम पुर्तगीज तथा प्रथम यूरोपीय यात्री वास्कोडिगामा 90 दिन की समुद्री यात्रा के बाद अब्दुल मनीक नामक गुजरती पथ-प्रदर्शक की सहायता से 1498ई. को कालीकट(भारत) के समुद्र तट पर उतरा।

कालीकट के शासक जमोरिन ने वास्कोडिगामा का स्वागत किया,लेकिन कालीकट के समुद्र तटों पर पहले से ही व्यापार कर रहे अरबों ने इसका विरोध किया।

वास्कोडिगामा ने भारत में कालीमिर्च के व्यापार से 60 गुना अधिक मुनाफा कमाया, जिससे अन्य पुर्तगीज व्यापारियों को भी प्रोत्साहन मिला।पुर्तगालियों के दो प्रमुख उद्देश्य थे- अरबों और वेनिश के व्यापारियों का भारत से प्रभाव समाप्त करना तथा ईसाई धर्म का प्रचार करना।

पुर्तगाली शासकों द्वारा पूर्वी व्यापार को विशेष प्रोत्साहन तथा शाही एकाधिकार प्रदान किया गया।

पुर्तगाली सामुद्रिक साम्राज्य को एस्तादो द इंडिया नाम दिया गया।

वास्कोडिगामा के बाद भारत आने वाला दूसरा पुर्तगाली यात्री पेड्रो अल्ब्रेज कैब्राल ( 1500 ई.) था।

वास्कोडिगामा दूसरी बार  भारत 1502 ई. में आया था।

पूर्वी जगत के कालीमिर्च और मसालों के व्यापार पर एकाधिकार प्राप्त करने के उद्देश्य से पुर्तगालियों ने 1503ई. में कोचीन (भारत) में अपने पहले दुर्ग की स्थापना की।

भारत में प्रथम पुर्तगाली वायसराय के रूप में फांसिस्को-डी-अल्मेङा(1505-1509) का आगमन हुआ।

1503ई. में अल्मेडा ने टर्की,गुजरात,मिस्र की संयुक्त सेना को पराजित कर दीव पर अधिकार कर लिया,दीव पर कब्जे के बाद पुर्तगाली हिन्दमहासागर में सबसे अधिक शक्तिशाली हो गये।

अल्फांसो डी अल्बुकर्क 1503ई. में भारत स्क्वैड्रन कमाण्डर के रूप में आया अल्फांसो डी अल्बुकर्क को भारत में पर्तगाली साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जाता है।

अल्बुकर्क ने 1510ई. में बीजापुर के शासक आदिलशाह युसुफ से गोआ को छीन लिया जो कालांतर में भारत में पुर्तगीज व्यापारिक केन्द्रों की राजधानी बनायी गई।

अल्बुकर्क ने 1511ई. में दक्षिण-पूर्वी एशिया की व्यापारिक मंडी मलक्का और हुरमुज पर अधिकार कर लिया।इसके समय में पुर्तगाली भारत में शक्तिशाली नौसैनिक शक्ति के रूप में स्थापित हुए।

अल्फांसों डी अल्बुकर्क ने भारत में पुर्तगालियों की संख्या में वृद्धि करने एवं उनकी स्थायी बस्तियां बसाने के उद्देश्य से निम्नवर्गीय पुर्तगालियों को भारतीय महिलाओं के साथ विवाह करने के लिए प्रोत्साहित किया।

अल्बुकर्क ने अपनी सेना में भारतीयों की भी भर्ती की।

भारत आये पुर्तगाली वायसराय नीनू डी कुन्हा (1529-38 ई.) ने 1530ई. में कोचीन की जगह गोवा को राजधानी बनाया।

डी कुन्हा ने सैनथोमा (मद्रास), हुगली (बंगाल) और दीव (काठियावाङ) में पुर्तगीज बस्तियों की स्थापना की।

पुर्तगीज वायसराय जोवा-जी-कैस्ट्रो ने पश्चिमी भारत  के चाऊल (1531),दीव(1532), सॉलसेट और बेसिन (1536) और बंबई पर अधिकार कर लिया।

पुर्तगीज पुर्वीतट के कोरोमंडल समुद्रीतट के मसुलीपट्टनम् बंदरगाह का पुर्तगाली प्रयोग करते थे।

बंगाल के शासक मसूदशाह द्वारा पुर्तगालियों ने 1534 में चटगाँव और सतगाँव में अपनी व्यापारिक फैक्ट्री खोलने की अनुमति प्राप्त की।

चटगाँव (बंगाल) के बंदरगाह को पुर्तगाली महान बंदरगाह की संज्ञा देते थे।

पुर्तगालियों ने हिन्दमहासागर से होने वाले व्यापार पर एकाधिपत्य प्राप्त कर यहाँ से गुजरने वाली अन्य जहाजों से कर की वसूली की।

कार्ट्ज- आर्मेडा काफिला पद्धति-

  • पुर्तगालियों ने कार्ट्ज- आर्मेडा काफिला पद्धति के द्वारा भारतीय तथा अरबी जहांजों को कार्ट्ज या परमिट के बिना अरब सागर में प्रवेश वर्जित कर दिया।

अरबी और भारतीय जहांजों को जिन्हें कार्ट्ज प्राप्त होता था,को कालीमिर्च और गोला बारूद ले जाने की अनुमति नहीं थी।

पुर्तगालियों ने काफिला प्रणाली के अंतर्गत छोटे स्थानीय व्यापारियों के जहांजों को समुद्री यात्रा के समय संरक्षण प्रदान किया। इसके लिए जहांजों को चुंगी देनी होती थी।

पुर्तगाली अधिकार वाले क्षेत्रों से व्यापार करने  के लिए मुगल सम्राट अकबर को भी पुर्तगालियों से कार्ट्ज या परमिट लेना पङा।

1632ई. में शाहजहाँ ने पुर्तगालियों के अधिकार से हुगली को छीन लिया था,औरंगजेब ने चटगांव के समुद्री लुटेरों का सफाया कर दिया था।

पुर्तगालियों ने भारत या पूर्व के साथ व्यापार में ुस्तु विविमय का सहारा नहीं लिया, यहां से वस्तुओं की खरीद में पुर्तगीज सोना,चांदी तथा अन्य अनेक बहुमूल्य रत्नों का प्रयोग करते थे।

पुर्तगाली मालाबार और कोंकण तट से सर्वाधिक कालीमिर्च का निर्यात करते थे. मालाबार तट से अदरख, दालचीनी, चंदन,हल्दी,नील आदि का निर्यात होता था।

उत्तर-पश्चिचम भारत से पुर्तगाली राफ्टा (वस्र), जिंस आदि  ले जाते थे।जटामांसी बंगाल से दक्षिण – पूर्वी एशिया से लाख,लौंग, कस्तूरी आदि का क्रय करते थे।

भारत से केवल कालीमिर्च के खरीद के लिए पुर्तगाली प्रतिवर्ष 1,70,000 क्रूजेडो भारत लाते थे।

पुर्तगाली गवर्नर अल्फांसो डिसूजा (1542-45ई.) के साथ प्रसिद्ध जेसुइट संत फ्रांसिस्को जेवियर भारत आया।

पुर्तगाली गोवा,दमन और दीव पर 1961ई. तक शासन करते रहे।

पुर्तगालियों के भारतीय व्यापार के पतन के निम्नलिखित कारण थे-

  1. भारतीय जनता के प्रति धार्मिक असहिष्णुता का भावना,
  2. गुप्त रूप से व्यापार करना तथा डकैती और लूटमार को अपनी नीति का हिस्सा बनाना,
  3. नये उपनिवेश ब्राजील की खोज,
  4. अन्य यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों से प्रतिस्पर्धा,
  5. अपर्याप्त व्यापारिक तकनीक,
  6. पुर्तगीज वायसरायों पर पुर्तगाली राजा का अधिक नियंत्रण।

पुर्तगालियों के भारत आगमन से भारत में तंबाकू की खेती,जहांज निर्माण (गुजरात और कालीकट) तथा प्रटिंग प्रेस की शुरुआत हुई।

1556ई. में गोआ में पुर्तगालियों ने भारत का प्रथम प्रिटिंग प्रेस स्थापित किया। भारतीय जङी-बूटियों और औषधिय वनस्पतियों पर यूरोपीय लेखक द्वारा लिखित पहले वैज्ञानिक ग्रंथ का 1563 में गोआ से प्रकाशन हुआ।

ईसाई धर्म का मुगल शासक अकबर के दरबार में प्रवेश फादर एकाबिवा और माँसरेत के नेतृत्व में हुआ।

पुर्तगालियों के साथ भारत में गोथिक स्थापत्यकला का आगमन हुआ।

डच-

1602 ई. में डच (हॉलैण्ड) संसद द्वारा पारित प्रस्ताव से एक संयुक्त डच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना हुई, इस कंपनी को डच संसद द्वारा 21वर्षों के लिए भारत और पूरब के देशों के साथ व्यापार करने,आक्रमण और विजयें करने के संबंध में अधिकार पत्र प्राप्त हुआ।

डच ईस्ट इंडिया कंपनी(Vereenigde Oost-Indische Compagnie VOC) की आरंभिक पूँजी जिससे उन्हें व्यापार करना था6,500,000 गिल्डर थी।

भारत में शीघ्र ही वेरिगदे ओस्त-इंडिसे कंपनी ने मसाला व्यापार पर एकाधिकार प्राप्त कर लिया।

भारत में डच फैक्ट्रियों की सबसे बङी विशेषता यह थी कि पुलीकट स्थित गेल्ड्रिया के दुर्ग के अलावा सभी डच बस्तियों में कोई भी किलेबंदी नहीं थी।

डच ईस्ट इंडिया कंपनी की भारत से अधिक रुचि इंडोनेशिया के मसाला व्यापार में थी।

डचों ने 1613ई. में जकार्ता को जीतकर बैटविया नामक नये नगर की स्थापना की, 1641 ई. में डचों ने मलक्का और 1658 ई. में सिलोन पर कब्जा कर लिया।

डचों ने 1605 ई. में मुसलीपट्टम् में प्रथम डच कारखानें की स्थापना की।

डचों द्वारा भारत में स्थापित कुछ अन्य कारखानों की स्थापना की गई जो इस प्रकार हैं-

  • पुलीकट– 1610 ई. में स्थापित।
  • करिकाल– 1645 ई. में स्थापित।
  • चिनसुरा– 1653 ई. में स्थापित।
  • कोचीन– 1663 ई. में स्थापित।
  • कासिम बाजार,पटना
  • बालासोर,नेगापट्टम- 1658 ई. में स्थापित।

डचों द्वारा भारत से नील,शोरा और सूतीवस्र का निर्यात किया जाता था।

डच लोग मसुलीपट्टनम से नील का निर्यात करते थे।मुख्यतः डच लोग भारत से सूती वस्र का व्यापार करते थे।

सूरत स्थित डच व्यापार निदेशालय डच ईस्ट इंडिया कंपनी का सर्वाधिक लाभ कमाने वाला प्रतिष्ठान था।

बंगाल में प्रथम डच फैक्ट्री पीपली में स्थापित की गई लेकिन शीघ्र ही पीपली की जगह बालासोर में फैक्ट्री की स्थापना की गई।

1653ई. में चिनसुरा अधिक शक्तिशाली डच व्यापार केन्द्र बन गया।यहाँ पर डचों ने गुस्तावुल नाम के किले का निर्माण कराया।

बंगाल से डच मुख्यतः सूती वस्र,रेशम,शोरा और अफीम का निर्यात करते थे।

डचों द्वारा कोरोमंडल तटवर्ती प्रदेशों से सूती वस्र का व्यापार किया जाता था। मालाबार के तटवर्ती प्रदेश से डच मसालों का व्यापार करते थे।

डचों ने पुलीकट में अपने स्वर्ण निर्मित पैगोडा सिक्के का प्रचलन करवाया।

डचों ने भारत में पुर्तगालियों को समुद्री व्यापार से एक तरह से निष्कासित कर दिया, लेकिन अंग्रेजों के नौसैनिक शिक्ति के सामने डच नहीं टिक सके।

डचों और अंग्रेजों के बीच 1759ई. में लङे गये बेदरा के युद्ध में भारत ने अंग्रेजी नौसेना की सर्वश्रेष्ठता को सिद्ध करते हुए डचों को भारतीय व्यापार से अलग कर दिया।

भारत में डचों की असफलता के प्रमुख कारण थे-इसका सरकार के सीधे नियंत्रण में होना, कंपनी के भ्रष्ट एवं अयोग्य पदाधिकारी और कर्मचारी।

भारत में डचों के आगमन के परिणाम स्वरूप यहाँ का सूतीवस्र उद्योग निर्यात की सर्वोच्च स्थिति में पहुंच गया।

भारतीय वस्रों के यूरोप में निर्यात का इतना गहरा प्रभाव पङा कि इंग्लैण्ड आगे चल कर वस्रोद्योग का महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गया।

अंग्रेज-

उन यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों में जिन्होंने भारत में आकर अपनी व्यापारिक गतिविधियाँ आरंभ की उनमें अंग्रेज सर्वाधिक सफल रहे। अंग्रेजों की सफलता का कारण था इनका भारत सहित समूचे एशियाई व्यापार के स्वरूप को समझना तथा व्यापार विस्तार में राजनैतिक सैनिक शक्ति का सहारा लेना।

1599 ई. में जॉन मिल्डेनहाल नामक ब्रिटिश यात्री थल मार्ग से भारत आया।

अन्य संबंधित महत्त्वपूर्ण लेख-

1599ई. में इंग्लैण्ड में एक मर्चेण्ट एडवेंचर्स नामक दल ने अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी अथवा दि गवर्नर एण्ड कंपनी ऑफ मर्चेंट्स ऑफ ट्रेडिंग इन टू द ईस्ट इंडिया की स्थापना की।

दिसंबर, 1600 ई. में ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ टेलर प्रथम ने ईस्ट इंडिया कंपनी को पूर्व  के साथ व्यापार के लिए पन्द्रह वर्षों के लिए अधिकार पत्र प्रदान किया।

कंपनी का प्रारंभिक उद्देश्य था भू-भाग नहीं बल्कि व्यापार

15 वर्ष बीतने ते बाद सम्राट जेम्स प्रथम ने कंपनी के व्यापारिक अधिकार को अनिश्चितकाल के लिए बढा दिया।अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी की प्रथम समुद्री यात्रा 1601 ई. में जावा,सुमात्रा तथा मोलक्को के लिए हुई।1604ई. में कंपनी भारत की ओर बढी।1608ई. में इंग्लैण्ड के राजा जेम्स प्रथम के दूत के रूप में कैप्टन हॉकिन्स सूरत पहुँचा, जहाँ से वह मुगल सम्राट जहाँगीर से मिलने आगरा गया।

हॉकिन्स फारसी भाषा का बहुत अच्छा ज्ञाता था,जहाँगीर उससे बहुत अधिका प्रभावित था।

सम्राट जहाँगीर हॉकिन्स के व्यवहार से प्रसन्न होकर उसे आगरा में बसने तथा 400 की मनसब एवं जागीर प्रदान की।

शीघ्र ही पुर्तगालियों द्वारा जहाँगीर का कान भरे जाने के कारण सम्राट ने अंग्रजों को सूरत से निकल जाने का आदेश दिया।

सूरत में हॉकिन्स ने कैप्टन मिडल्टन से मिलकर सूरत के व्यापारियों से प्रतिशोध लेने की प्रतिज्ञा की, लेकिन सूरत के व्यापारियों ने कैप्टन बेस्ट के अधीन दो अंग्रेजी जहाजों को सूरत में रहने की अनुमति प्रदान कर दी।

1612 ई. में कैप्टन बेस्ट ने एक समुद्री ने एक समुद्री युद्ध में पुर्तगालियों को पराजित कर दिया।

6 फरवरी,1613ई. को जारी एक शाही फरमान (जहांगीर की और से) द्वारा अंग्रेजों को सूरत में व्यापारिक कोठी स्थापित करने तथा मुगल राजदरबार में एक एलची रखने की अनुमति प्राप्त की गई।

टॉमस एल्टवर्थ के अधीन सूरत में व्यापारिक कोठी की स्थापना की।

सर टॉमस रो ब्रिटेन के राजा जेम्स प्रथम के दूत के रूप में 18सितंबर 1615 ई. को सूरत पहुंचा, 10जनवरी 1616 ई. को रो अजमेर में जहांगीर के दरबार में उपस्थित हुआ।

टॉमस रो मुगल दरबार में 10जनवरी,1616 से 17 फरवरी 1618ई. तक रहा।

इस बीच रो ने मुगल दरबार से साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों में व्यापार करने तथा दुर्गीकरण की अनुमति प्राप्त की।

1619ई. तक अहमदाबाद,भङौच,बङौदा तथा आगरा में कंपनी के व्यापारिक कारखाने स्थापित हो गये।सभी व्यापारिक कोठियों का इस समय नियंत्रण सूरत से होता था।

दक्षिण में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना पहला कारखाना 1611ई.में मसुलीपट्टम और पेटापुली में स्थापित किया। यहां से स्थानीय बुनकरों द्वारा निर्मित वस्रों को कंपनी खरीद कर फारस और बंतम को निर्यात करती थी।

1632ई. में अंग्रेजों ने गोलकुण्डा के सुल्तान से एक सुनहरा फरमान प्राप्त कर 5 सौ पेगोडा वार्षिक कर अदा करने के बदले गोलकुंडा राज्य में स्थित बंदरगाहों से व्यापार करने का एकाधिकार प्राप्त किया।

1639 ई. में फ्रांसिस डे नामक अंग्रेज को चंदगिरि के राजा से मद्रास पट्टे पर प्राप्त हो गया।यहीं पर फोर्ट सेंट जार्ज नामक किले की स्थापना की। 1641ई. में कोरोमंडल तट पर फोर्ट सेंट जार्ज कंपनी का मुख्यालय बन गया।

1661ई. में पुर्तगालियों ने अपनी राजकुमारी कैथरीन ब्रेगांजा का विवाह ब्रिटेन के राजकुमार चार्ल्स द्वितीय से करके बंबई को दहेज के रूप में दिया।

राजकुमार चार्ल्स ने 1668ई. में बंबई को दस पौंड के वार्षिक किराये पर ईस्ट इंडिया कंपनी को दे दिया।

1669 से 1677 तक बंबई का गवर्नर गेराल्ड औंगियार ही वास्तव में बंबई का महानतम् संस्थापक था। 1687ई. तक बंबई पश्चिमी तट का प्रमुख व्यापारिक केन्द्र बना रहा।

गेराल्ड औंगियार ने बंबई में किलेबंदी के साथ ही वहां गोदी का निर्माण कराया तथा बंबई नगर की स्थापना, एक न्यायालय और पुलिस दल की स्थापना की।

औंगियार ने बंबई के गवर्नर के रूप में यहां से ताँबे और चाँदी के सिक्के ढालने के लिए टकसाल की स्थापना की।

औंगियार के समय में बंबई की जनसंख्या 60,000 और राजस्व में तीन गुना वृद्धि हुई। इसका उत्तराधिकारी रौल्ट (1677-1682ई.) हुआ।

शाहजहां ने पुर्तगालियों से नाराज होकर अंग्रेजों को बंगाल में सीमित क्षेत्र में बाजार की अनुमति प्रदान की लेकिन एक अंग्रेज डॉक्टर गैब्रियल बफ्टन द्वारा शाहजहां की लङकी का सफलता पूर्वक इलाज करने के कारण अंग्रेजों को एक-दे जहांजों के साथ बिना चुंगी दिये व्यापार की अनुमति मिली।

1651ई. में ब्रिजमैन के नेतृत्व में बंगाल के हुगली नामक स्थान पर प्रथम अंग्रेज कारखाने की स्थापना हुई। हुगली के बाद कासिम बाजार,पटना,राजमहल में भी अंग्रेज कारखाने खोले गये।

1658ई. तक बंगाल,बिहार,उङीसा और कोरोमंडल की समस्त अंग्रेज फैक्ट्रियां फोर्ट जार्ज (मद्रास)के अधीन आ गई।

जहां 1633 से 1663ई. के बीच अंग्रेज फैक्ट्रियों का उद्देश्य मुगल संरक्षण में शांतिपूर्वक व्यापार करना था, वहीं 1683-85ई.में अंग्रेज व्यापारी, स्थानीय शक्तियों के साथ विवादों अन्य यूरोपियन कंपनियों के अधिकृत और अनधिकृत व्यापारियों तथ आपसी झगङों में व्यस्त हो गये।

17वी. शता.के उत्तरार्द्ध में अनेक कारणों से ईस्ट इंडिया कंपनी की नीति में परिवर्तन आया, अब वह सिर्फ व्यापारिक सुविधा को बहाल कर दिया।

बंगाल के सूबेदार शाहशुजा द्वारा दिये गये एक विशेष फरमान द्वारा 1651में अंग्रेजों को 3000 रु. वार्षिक कर देने पर बंगाल में व्यापार का विशेषाधिकार प्राप्त हुआ।

अगस्त 1682ई. में बंगाल के मुगल सुबेदार के यहां विलियम हैजेज के नेतृत्व में दूत मंडल पहुँचा, जो मुगल अधिकारियों द्वारा जबरदस्ती वसूल की जाने वाली व्यापारिक चुंगी से मुक्ति चाहता था।

विलियम हैजेज बंगाल का प्रथम अंग्रेज गवर्नर था।

मुगल सम्राट औरंगजेब और अंग्रेजों के बीच पहली भिङंत 1686ई. में हुगली में हुई।

अंग्रेजों ने हुगली का बदला बालासोर के मुगल किले पर धावा बोल कर अंग्रेजों को एक ज्वारग्रस्त द्वीप पर शरण लेनी पङी।

फरवरी,1690ई. में कंपनी के अधिकारियों (चॉरनाक के नेतृत्व में) और मुगल सरकार के बीच समझौता हो जाने पर जॉब चारनाक को बंगाल में कंपनी के एजेन्ट के रूप में नियुक्त किया गया।

10 फरवरी,1691ई. को जॉब चॉरनाक ने सुतनाटी में अंग्रेज फैक्ट्री की स्थापना की।

बर्दवान जिले के जमींदार शोभासिंह के विद्रोह से अंग्रेजों को सुतनाटी कारखाने की किलेबंदी करने की आवश्यकता महसूस हुई।

1698-99ई. में बंगाल के सुबेदार अजीमुश्शान की अनुमति के बाद कंपनी को 1200रु. देने पर सुतनाटी,गोवंदपुर और कालिकाता की जमींदारी प्राप्त हो गई।

कंपनी को कालिकाता,गोविंदपुर और सुतिनाटी गांव की जमींदारी जमींदार इब्राहिम खां से मिली।

कालिकाता,गोवंदपुर और सुतिनाटी को मिलाकर ही आधुनिक कलकत्ता की नींव जॉब चॉरनाक ने डाली।कालांतर में कलकत्ता में फोर्ट विलियम की नींव पङी।

1700ई. में स्थापित फोर्ट विलियम का प्रथम गवर्नर सर चार्ल्सआयर को बनाया गया तथा इसी समय बंगाल को मद्रास से स्वतंत्र प्रेसीडेंसी बना दिया गया।

औरंगजेब ने 1701ई. में भारत में रहने वाले सभी यूरोपियनों को गिरफ्तार करने का आदेश दिया। पटना और कासिम बाजार के अंग्रेज कंपनी कर्मचारी बंदी बना दिये गये।

1707ई. में औरंगजेब की मृत्यु के बाद कंपनी की स्थिति में कुछ सुधार हुआ।

बंगाल के अंग्रेजों के बारे में शाइस्ता खां ने कहा कि यह एक कुत्सित या नीच,झगङालू लागों और बेईमान व्यापारियों की कंपनी है।

1634ई. में ब्रिटिश संसद द्वारा पारित एक प्रस्ताव द्वारा ब्रिटेन की सभी प्रजा को भारत में व्यापार करने का अधिकार मिल गया।

इस अधिकार पत्र के बाद इंग्लैण्ड में एक अन्य प्रतिद्वन्दी कंपनी इंग्लिश कंपनी ट्रेंडिंग इन द ईस्ट का जन्म हुआ।

इस कंपनी ने व्यापारिक विशेषाधिकार प्राप्त करने के लिए विलियम नौरिस को औरंगजेब के दरबार मे भेजा था।

नई और पुरानी ईस्ट इंडिया कंपनी को आपस में विलय करने का निर्णय 22जुलाई,1702ई. को लिया गया। दोनों कंपनियों का विलय अर्ल आफ गोडोलफिन के निर्णय के अनुसार 1708-9ई. में कर दिया गया।

संयुक्त कंपनी का नाम द यूनाइटेड कंपनी ऑफ मर्चेन्टस ऑफ इंग्लैण्ड ट्रेडिंग टू दी ईस्ट इंडीज रखा गया।

ईस्ट इंडिया कंपनी के इतिहास की महत्तवपूर्ण घटना 1717ई. में घटी।जान सुर्मन के नेतृत्व में एक ब्रिटिश दूत मंडल कुछ और व्यापारिक रियासतें प्राप्त करने के उद्देश्य से मुगल बादशाह फर्रुखसियर के दरबार में पहुंचा।

ब्रिटिश दूतमंडल में एडवर्ड स्टिफेन्सन, विलियम हैमिल्टन(सर्जन) तथा ख्वाजा सेहूर्द (आर्मिनियन दुभाषिया) शामिल थे।

सर्जन हेमिल्टन ने बादशाह को एक भयानक बीमारी से मुक्ति दिलायी,परिमामस्वरूप खुश होकर फर्रुखसियर ने बंगाल,हैदराबाद और गुजरात के सूबेदारों के नाम तीन फरमान जारी किये।

बंगाल में 3000रु. वार्षिक कर अदा करने पर कंपनी को उसके समस्त व्यापार में सीमा शुल्क से मुक्त कर दिया गया। इस फरमान द्वारा कंपनी को कलकत्ता के आस-पास के 38 गांवों को खरीदने का अधिकार मिल गया।

फर्रुखसियर द्वारा दिये गये फरमान द्वारा बंबई में ढले सिक्कों को समूचे मुगल साम्राज्य में चलाने के लिए छूट मिल गई।

सूरत में फरमान द्वारा 10,000 रु. वार्षिक देय पर कंपनी के समस्त व्यापार को आयात-निर्यात कर से मुक्त कर दिया गया।

फर्रुखसियर द्वारा कंपनी को प्रदत्त फरमान कालांतर में दूरगामी परिणामवाला सिद्ध हुआ।

और्म महोदय ने इस फरमान को कंपनी का महाधिकारपत्र (मैग्नाकार्टा) की संज्ञा दी।

बंगाल के नवाब मुर्शीद कुली खाँ ने फर्रुखसियर द्वारा दिये गये फरमान के बंगाल में स्वतंत्र प्रयोग को नियंत्रित करने का प्रयास किया।

मराठा सेनानायक कान्होंजी आंगरिया ने पश्चिमी चट पर अंग्रेजों की स्थिति को काफी कमजोर बना दिया था।

डेन-

डेनमार्क की ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना 1616ई. में हुई, इस कंपनी ने 1620ई. में त्रैंकोबार(तमिलनाडु) तथा 1676ई. में सेरामपुर डेनो का प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था।

1845ई. में डेन लोगों ने अपनी भारतीय वाणिज्यिक कंपनी को अंग्रेजों को बेच दिया।

फ्रांसीसी-

अन्य यूरोपीय कंपनियों की तुलना में फ्रांसीसी भारत में देर से आये।लुई चौदहवें फ्रांस के मंत्री कॉलबर्ट द्वारा 1664ई. में फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना हुई,जिसे कंपने देस इण्दसे औरियंटलेस(compagine des indes orientals) कहा गया।

अन्य संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्य-

फ्रांस की व्यापारिक कंपनी को राज्य द्वारा विशेषाधिकार तथा वित्तीय संसाधन प्राप्त था। इसीलिए इसे एक सरकारी व्यापारिक कंपनी कहा जाता था।

1667ई. में फ्रेंसिस कैरी के नेतृत्व में एक अभियान दल भारत के ले रवाना हुआ।जिसने 1668ई. में सूरत में अपने पहले व्यापारिक कारखाने की स्थापना की।

1669 में मर्कारा ने गोलकुंडा के सुल्तान से अनुमति प्राप्त कर मसुलीपट्नम में दूसरी फ्रेंच फैक्ट्री की स्थापना की।

1672ई. में एडमिरल डेला हे ने गोलकुंडा के सुल्तान को परास्त कर सैनथोमी को छीन लिया।

1673ई. में कंपनी के निदेशक फ्रेंसिस मार्टिन ने वलिकोण्डापुर के सूबेदार शेरखां लोदी से पर्दुचुरी नामक एक गांव प्राप्त किया, जिसे कालांतर में पांडिचेरी के नाम से जाना जाता है।

1674ई. में बंगाल के सूबेदार शाइस्ता खां द्वारा फ्रांसीसियों को प्रदत्त स्थान पर 1690-92ई. को चंद्रनगर की स्थापना की।

डचों ने अंग्रेजों की सहायता से 1693ई. में पांडिचेरी को छीन लिया,लेकिन 1697ई. में संपन्न रिजविक की संधि के बाद पांडिचेरी पुनः फ्रांसीसियों को प्राप्त हो गया।

1701ई. में पांडिचेरी को पूर्व में फ्रांसीसी बस्तियों का मुख्यालय बनाया गया और मार्टिन को भारत में फ्रांसीसी मामलों का महानिदेशक नियुक्त किया गया।

पांडिचेरी के कारखाने में ही मार्टिन ने फोर्ट लुई का निर्माण कराया।मार्टिन ने भारतीय व्यापारियों और राजाओं के साथ निष्पक्षता एवं न्यायपूर्ण व्यवहार करके उनका व्यक्तिगत विश्वास,सम्मान और आदर प्राप्त किया।1706ई. में मार्टन की मृत्यु के बाद फ्रांसीसी बस्तियों एवं व्यापार के स्तर में कमी आई।

1731ई. में चंद्रनगर के प्रमुख के रूप में फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले की नियुक्ति के बाद ही एक बार फिर फ्रांसीसियों में उत्साह दिखा।

1706 से 1720 ई. के बीच फ्रांसीसी प्रभाव की भारत में गिरावट आई।परिणामस्वरूप 1720ई. में कंपनी का इंडीज की चिरस्थायी कंपनी के रूप में पुनर्निर्माण हुआ।

फ्रांसीसियों ने 1721ई. में मारीशस,1724ई. में मालाबार में स्थित माही तथा 1739ई. में करिकाल पर अधिकार कर लिया।

भारत में फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना व्यापारिक उद्देश्य से की गई थी, राजनीतिक युद्ध इनके लक्ष्यों में नहीं था।फ्रांसीसियों ने किलेबंदी अंग्रेजों और डचों से सुरक्षा के लिए तथा सिपाहियों की भर्ती प्रतिरक्षा के लिए किया था।

1742ई. के बाद फ्रांसीसी भी व्यापारिक लाभ कमाने की तुलना में राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति की दिशा में सक्रिय हो गये।परिणामस्वरूप अंग्रेज और फ्रांसीसियों में युद्ध प्रारंभ हो गया।

अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच लङे गये युद्ध को कर्नाटक का युद्ध के नाम से जाना गया।कोरोमंडल समुद्र तट पर स्थित क्षेत्र जिसे कर्नाटक या कर्णाटक कहा जाता था।पर अधिकार को लेकर इन दोनों कंपनियों में लगभग बीस वर्ष तक संघर्ष हुआ।

कोरोमंडल समुद्रतट पर स्थित किलाबंद मद्रास और पांडिचेरी क्रमशः अंग्रेजों और फ्रांसीसियों की सामरिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण बस्तियाँ थी।

तत्कालीन कर्नाटक दक्कन के सूबेदार के नियंत्रण में था,  जिसकी राजधानी आरकाट थी।

प्रथम कर्नाटक युद्ध(1746-48ई.)-

इस युद्ध का तात्कालिक कारण था अंग्रेज कैप्टन बर्नेट के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना द्वारा कुछ फ्रांसीसी जहांजों पर अधिकार कर लेना।

बदलें में फ्रांसीसी गवर्नर(मारीशस)ला बूर्दने के सहयोग से डूप्ले ने मद्रास के गवर्नर मोर्स को आत्म समर्पण के लिए मजबूर कर दिया,इस समय अंग्रेज फ्रांसीसियों के सामने बिल्कुल असहाय थे।

प्रथम कर्नाटक युद्ध के समय ही कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन ने महफूज खां के नेतृत्व में दस हजार सिपाहियों की एक सेना का फ्रांसीसियों पर आक्रमण के लिए भेजा, कैप्टन पैराडाइज के नेतृत्व में फ्रांसीसी सेना ने सेंटथोमे के युद्ध में नवाब को पराजित किया।

जून,1748ई. में अंग्रेज रियर-एडमिरल बोस्काबेन के नेतृत्व में एक जहांजी बेङा ने पांडिचेरी को घेरा,परंतु सफलता नहीं मिली।

यूरोप में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच ऑस्ट्रिया में लङे जा रहे उत्तराधिकार युद्ध की समाप्ति हेतु 1749ई. में ऑक्सा-ला-शैपेल नामक संधि के सम्पन्न होने पर भारत में भी इन दोनों कंपनियों के बीच संघर्ष समाप्त हो गया।मद्रास पुनःअंग्रेजों को मिल गया।

द्वितीय कर्नाटक युद्ध(1749-54ई.)-

इस युद्ध के समय कर्नाटक के नवाबी के पद को लेकर संघर्ष हुआ,चांदा साहब ने नवाबी के लिए डूप्ले का सहयोग प्राप्तत किया, दूसरी ओर डूप्ले ने मुजफ्फरजंग के लिए दक्कन की सूबेदारी का समर्थन किया।

अंग्रेजों ने अनवरुद्दीन और नासिरजंग को अपना समर्थन प्रदान किया।

चांदासाहब ने 1749ई. में अंबुर में अनवरुद्दीन को पराजित कर मार डाला तथा कर्नाटक के अधिकांश हिस्सों पर अधिकार कर लिया लेकिन मुजफ्फर जंग दक्कन की सूबेदारी हेतु अपने भाई नासिर जंग से पराजित हुआ। लेकिन 1750में नासिर की मृत्यु के बाद मुजफ्फर दक्कन का सूबेदार बन गया।

इस समय दक्षिण भारत में फ्रांसीसियों का प्रभाव चरम पर था इसी बीच राबर्ट क्लाइव जो इंग्लैण्ड से मद्रास एक किरानी के रूप में आया था,1751ई. में 500 सिपाहियों के साथ धारवार पर धावा बोलकर कब्जा कर लिया।

शीघ्र ही फ्रांसीसी सेना को आत्मसमर्पण हेतु विवश होना पङा और चांदा साहब की हत्या कर दी गई।

फ्रांस स्थित अधिकारियों ने भारत में डूप्ले की नीति की आलोचना करते हुए उसे वापस इंग्लैण्ड बुला लिया तथा उसके स्थान पर गोदहे को 1अगस्त 1754ई. को गवर्नर बनाया गया।

डूप्ले के बारे में जे.और.मैरियत ने कहा कि डूप्ले ने भारत की पूंजी मद्रास में तलाश कर भयानक भूल की, क्लाइव ने इसे बंगाल में खोज लिया।

तृतीय कर्नाटक युद्ध(1757-63ई.)-

इस युद्ध का तात्कालिक कारण था क्लाइव और वाट्सन द्वारा बंगाल स्थित चंद्रनगर पर अधिकार।

इस युद्ध के अंतर्गत अंग्रेज और फ्रांसीसियों के बीच वांडिवाश नामक निर्णायक लङाई लङी गई।

22जनवरी,1760ई. को लङे गये वांडिवाश के युद्ध में अंग्रेजी सेना को आयरकूट ने तथा फ्रांसीसी सेना को लाली ने नेतृत्व प्रदान किया।इस युद्ध में फ्रांसीसी पराजित हुए, यही पराजय भारत में उनके पतन की शुरुआत थी।

16जनवरी,1761ई. को पांडिचेरी पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया।

भारत में फ्रांसीसी शक्ति की असफलता के प्रमुख कारण इस प्रकार थे-

  1. फ्रांसीसी सरकार का असहयोग।
  2. कंपनी का सामंती स्वरूप और अत्यधिक शाही नियंत्रण।
  3. इंग्लैण्ड की नौ-सैनिक सर्वोच्चता।
  4. फ्रांसीसी सेनापति डूप्ले,बुसी की तुलना में अंग्रेज सेनापति क्लाइव,लारेंस,आयरकूट आदि अधिक सूझबूझ वाले सेनापति थे।

Reference :  https://www.indiaolddays.com/

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