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नाना फङनवीस कौन था

नाना फङनवीस

नाना फङनवीस

नाना फङनवीस कौन था (Nana Fadnavis)

नाना फङनवीस का जन्म 12फरवरी,1742 ई. को एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था तथा उसके जन्म का नाम बालाजी था। इनके पिता का नाम जनार्दन था, अतः महाराष्ट्र की परंपरा के अनुसार उसे बालाजी जनार्दन कहकर पुकारते थे। पेशवा माधवराव प्रथम ने नाना को फङनवीस(पेशवाई के आय-व्यय का हिसाब रखने वाला) पद पर नियुक्त किया।

वित्तीय प्रबंध के लिए उत्तरदायी होने के कारण नाना का महत्त्व बढता गया। नाना शरीर से दुर्बल था तथा सैन्य संचालन में अयोग्य था, अतः उसे सैनिक अभियानों में नहीं भेजा जाता था। पेशवा नारायणराव की हत्या के बाद पूना में राघोबा के विरुद्ध क्षोभ तथा क्रोध की अग्नि प्रज्वलित हो गयी था।

अतः नाना फङनवीस, सखाराम बापू, मोरोबा आदि नेताओं ने बाराभाई समिति का गठन किया। तत्पश्चात् राघोबा को पेशवा पद से अलग करने की घोषणा की गई। नारायणराव की विधवा पत्नी गंगाबाई को, जो उस समय गर्भवती थी, राज्य की अधिकारिणी बनाया गया। सखाराम बापू को प्रमुख कार्यभारी तथा नाना को उसका सहायक बनाया गया।

नाना फङनवीस समस्त सत्ता अपने हाथ में केन्द्रित करना चाहता था। अतः धीरे-2 उसने बाराभाई समिति के सभी सदस्यों को पदच्युत कर शासन की समस्त शक्ति अपने हाथ में केन्द्रित कर ली। नाना की यह प्रवृति मराठा राज्य के लिए बङी घातक सिद्ध हुई, क्योंकि पेशवा धीरे-2 शक्तिहीन हो रहा था।

नाना फङनवीस स्वयं सैन्य संचालन कर नहीं सकता था। नाना के समक्ष प्रमुख समस्या मराठा संघ की एकता बनाये रखते हुए राघोबा पर नियंत्रण रखना तथा अंग्रेजों के बढते हुए प्रभाव को रोकना था। नारायणराव के मरणोपरांत उत्पन्न पुत्र माधवराव द्वितीय को पेशवा घोषित करने के बाद उसके पालन-पोषण तथा उसे शासन संचालन की शिक्षा देने का दायित्व भी नाना का ही था।

18अप्रैल,1774 को गंगाबाई के पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम माधवराव द्वितीय रखा गया और उसे पेशवा घोषित कर दिया गया। इस अवसर पर राघोबा के पक्षपाती सरदारों ने कुछ समझौता करना चाहा,किन्तु नाना, राघोबा से कोई समझौता करना नहीं चाहता था, बल्कि उसने राघोबा के विरुद्ध एक सेना भेज दी।

दिसंबर,1774 में थाना के निकट राघोबा पराजित हुआ और सूरत की ओर भाग गया। सूरत में राघोबा ने अंग्रेजों से संधि कर ली, जिसके फलस्वरूप आंग्ल-मराठा युद्धों का सूत्रपात हुआ। नाना ने भी कूटनीति से निजाम और हैदरअली को अपनी ओर मिलाकर अंग्रेज विरोधी गुट बना लिया। किन्तु वॉरेन हेस्टिंग्ज ने निजाम को इस गुट से अलग कर दिया।

अंग्रेजों के साथ हुए इस पूरे संघर्षकाल में नाना,महादजी के साथ सहयोग करता रहा। किन्तु सालबई की संधि के संबंध में नाना व महादजी में तीव्र मतभेद उत्पन्न हो गये। सालबाई की संधि की शर्तों को तय करने में महादजी को श्रेय दिया जाता था और उससे महादजी को एक स्वतंत्र शासक की स्थिति प्राप्त होती थी। इससे नाना फङनवीस की अधिकार लालसा तथा महत्त्वाकांक्षा को भारी धक्का लगा। अतः मृत्युपर्यन्त नाना फङनवीस इसी प्रयत्न में लगा रहा कि महादजी का प्रभाव न बढने दिया जाय, यद्यपि उसकी यह नीति भी मराठा राज्य के लिए घातक सिद्ध हुई।

नाना फङनवीस की मैसूर के प्रति नीति-

अंग्रेजों के साथ हुए संघर्ष के समय नाना ने मैसूर के शासक हैदरअली का सहयोग लिया था। हैदरअली की मृत्यु के बाद महादजी टीपू के प्रति भी मैत्रीपूर्ण नीति चाहता था,किन्तु नाना ने टीपू की शक्ति को कुचलने में अंग्रेजों को सहयोग देने की नीति अपनाई। अतः टीपू ने अंग्रेजों के साथ मंगलौर की संधि करने के बाद मराठों पर आक्रमण किया।

इस अवसर पर नाना फङनवीस ने अंग्रेजों से सैनिक सहायता माँगी, किन्तु कार्नवालिस ने नाना फङनवीस को सैनिक सहायता देने से इंकार कर दिया। लेकिन जब कार्नवालिस ने टीपू के विरुद्ध सैनिक अभियान करने से पूर्व मराठों की सहायता माँगी, तब महादजी के मना करने के बाद अंग्रेजों ने टीपू से जो संधि की, उसके अनुसार मराठों को कुछ क्षेत्र उपलब्ध हुए। किन्तु इसके परिणाम मराठों के लिए बङे हानिकारक सिद्ध हुए। क्योंकि दक्षिण में अब शक्ति-संतुलन बिगङ चुका था। और मराठों को भविष्य में अंग्रेजों से अकेले ही सामना करना पङा।

मराठा संघ और नाना फङनवीस-

मराठा संघ के सरदारों के पारस्परिक द्वेष व फूट के कारण मराठा संघ के अस्तित्व को खतरी उत्पन्न हो गया। अतः नाना फङनवीस को चाहिए था कि सभी सरदारों से , विशेषकर महादजी के साथ सहयोग करे। लेकिन नाना ने ऐसा करने के बजाय प्रत्येक मराठा सरदार को संदेह की दृष्टि से देखा।

1792 में जब महादजी उत्तर भारत से पूना के लिए रवाना हुआ तो नाना फङनवीस को संदेह हुआ कि महादजी पूना पर नियंत्रण स्थापित करना चाहता है। अतः नाना फङनवीस ने कार्नवालिस से सैनिक सहायता की माँग की, लेकिन कार्नवालिस ने इंकार कर दिया। महादजी 1792 से 1794 तक पूना में रहा, लेकिन नाना ने कभी भी महादजी से मराठा संघ की समस्याओं की चर्चा नहीं की। नाना साहब का एकमात्र उद्देश्य यही रहा कि पूना में महादजी का महत्त्व न बढने दिया जाये।

नाना राघोबा के साथ भी कोई समझौता नहीं चाहता था। राघोबा का तो वह इतना विरोधी था कि 1795 में माधवराव द्वितीय की मृत्यु के बाद मृत पेशवा की इच्छा के बावजूद राघोबा के पुत्र बाजीराव द्वितीय को पेशवा बनाने को तैयार नहीं हुआ। इसका कारण यह था कि 1762-63 में राघोबा ने नाना फङनवीस के पद से हटवा दिया था। अतः स्पष्ट है कि नाना में प्रतिशोध की भावना प्रबल थी और वह अपने विरोधियों को कभी क्षमा नहीं करता था, नाना की इस नीति के कारण विभिन्न मराठा सरदार पेशवा के नियंत्रण से मुक्त होने की सोचने लगे,जिससे मराठा संघ की एकता को खतरा उत्पन्न हो गया।

पेशवा और नाना फङनवीस-

माधवराव द्वितीय का पालन-पोषण नाना की देखरेख में हुआ था, किन्तु नाना ने कभी भी इस बात का प्रयत्न नहीं किया कि पेशवा को सैनिक एवं प्रशासनिक शिक्षा दी जाय जिससे पेशवा अपने पद का उत्तरदायित्व ही नहीं संभाल सका। नाना को इस बात भय था कि यदि पेशवा अपने पद के उत्तरदायित्व को संभालने के योग्य बन गया तो शासन की बागडोर उसके हाथों से छिन जायेगी ।

पेशवा से मिला तो नाना फङनवीस के कठोर नियंत्रण में, ताकि पेशवा पर महादजी का प्रभाव स्थापित न हो जाये। पेशवा की समस्त दिनचर्या ही नाना द्वारा नियंत्रित थी। ऐसी परिस्थितियों में पेशवा में मराठा संघ के नेतृत्व की योग्यता का विकास होना संभव नहीं था। 1795 में मराठों ने निजाम को खरदा के युद्ध में पराजित किया था। इस अवसर पर पेशवा युद्ध स्थल में मौजूद था तथा उसने गुप्तचरों द्वारा इसकी सूचना दी गई तो नाना ने पेशवा को बुरी तरह फटकारा और उसे अपमानित किया। इसके बाद नाना ने पेशवा के चारों ओर गुप्तचरों का जाल बिछा दिया। अपना अपमान देखकर पेशवा को इतनी आत्मग्लानी हुई कि अक्टूंबर, 1795 ई. में उसने छत से कूदकर आत्महत्या कर ली।

पेशवा के उत्तराधिकार का प्रश्न-    1795 में पेशवा माधवराव द्वितीय की निःसंतान मृत्यु हो गई। किन्तु अपनी मृत्यु से पूर्व उसने बापूराम फङके के सामने बाजीराव द्वितीय को अपना उत्तराधिकारी बनाने की इच्छा व्यक्त की थी। किन्तु नाना तो राघोबा के किसी पुत्र को पेशवा बनाने को तैयार ही नहीं था।

नाना फङनवीस चाहता था कि बाजीराव के छोटे भाई चिमाजी को माधवराव की पत्नी के गोद दे दिया जाय और उसे पेशवा बना दिया जाय। किन्तु महादजी के उत्तराधिकारी दौलतराव सिंधिया ने बाजीराव का पक्ष लिया। चिमाजी इस समय अल्पवयस्क था और उसे पेशवा बनाने से शासन सत्ता नाना के हाथों में ही रहती। नाना ने अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए धर्मशास्र तथा सामाजिक नियमों को भी तिलांजलि दे दी।

चिमाजी, माधवराव के चाचा थे, अतः माधवराव की पत्नी यशोदाबाई के श्वसुर थे। इसीलिए श्वसुर को गोद लिया जाना धर्मशास्र के विरुद्ध था। थोङे दिनों के बाद बाजीराव ने नाना फङनवीस को आश्वासन दिया कि वह नाना को अपना मुख्यमंत्री बना देगा तो नाना ने बाजीराव का पक्ष ग्रहण कर लिया। सिंधिया इस कार्यवाही से क्रुद्ध हो उठा और उसने चिमाजी का पक्ष ग्रहण कर लिया।

नाना फङनवीस ने अपने पद पर कार्य करते हुए नौ करोङ रुपये की संपत्ति एकत्रित कर ली थी, जिसकी वह किसी तरह रक्षा करना चाहता था। पेशवा बनने के बाद बाजीराव ने अपने वचन को भंग करते हुए 1797 के अंत में नाना को बंदी बना लिया, किन्तु 1798 में उसे छोङ दिया। इस समय नाना का स्वास्थ्य ठीक नहीं था और धीरे-2उसका चलना फिरना भी बंद हो गया। अंत में 13 मार्च,1800 को नाना की मृत्यु हो गयी।

अंग्रेजों के प्रति नाना फङनवीस की नीति-  सालबाई की संधि  के पूर्व नाना फङनवीस का रुख स्पष्टतः अंग्रेज विरोधी था। किन्तु सालबाई की संधि के बाद मराठा संघ में अपने प्रभाव को सर्वोपरि बनाये रखने के लिये अंग्रेजों से मैत्री चाहता था। महादजी मराठों के प्रभाव को सर्वोपरि बनाये रखने के लिए अंग्रेजों से मैत्री चाहता था।

महादजी मराठों के प्रभाव को उत्तर भारत में फैलाना चाहता था, जबकि नाना का कार्यक्षेत्र दक्षिण भारत तक सिमित था। नाना ने अंग्रेजों को टीपू के विरुद्ध सैनिक सहायता दी थी, जिसका परिणाम मराठों के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ और जब महादजी 12 वर्ष के बाद पूना लौटकर आया, तब महादजी की सैन्य शक्ति से आतंकित होकर कार्नवालिस से भी सहायता मांगी।

इसका स्पष्ट अभिप्राय यह है कि वह अंग्रेजों की सहायता से अपनी सत्ता सुरक्षित रखना चाहता था। 1798 में वह जब पुनः नाना फङनवीस पद पर नियुक्त हुआ, तब भी उसने इस बात का प्रयत्न किया कि अंग्रेज और निजाम उसके पद की सुरक्षा की गारंटी दें। इस प्रकार सालबाई की संधि के बाद उसका यही प्रयत्न रहा कि वह अंग्रेजों का सहयोग व समर्थन प्राप्त करता रहे। 1798 में नाना की फङनवीस पद पर नियुक्ति पर स्वयं वेलेजली ने प्रसंन्नता व्यक्त की थी। अतः यह निर्विवाद सत्य है कि नाना, महादजी की इच्छा के विरुद्ध अंग्रेजों से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाये रखना चाहता था तथा सत्ता सुरक्षित रखने के लिए उसने मराठा संघ के हितों को भी तिलांजली दे दी थी।

नाना फङनवीस का मूल्यांकन-  18वीं शताब्दी में मराठों को अंग्रेजों व मैसूर राज्य से निरंतर संघर्ष करना पङता था। इसलिए मराठों का नेतृत्व ऐसे किसी व्यक्ति के पास होना चाहिए था, जो सैन्य संचालन में दक्ष हो। दुर्भाग्यवश नाना फङनवीस को सैनिक ज्ञान बिल्कुल नहीं था।

फिर भी उसने कभी भी किसी कुशल सैन्य संचालन पर विश्वास नहीं किया। पेशवा नारायणराव की मृत्यु से उत्पन्न संकट में नाना फङनवीस की महत्त्वपूर्ण भूमिका उभर कर सामने आयी थी, किन्तु 1782के बाद तो नाना में वैसी योग्यता के चिन्ह मात्र भी दिखाई नहीं दिये।

वस्तुतः मराठा संघ के पतन के लिए नाना फङनवीस की नीतियां काफी अंशों तक उत्तरदायी थी। वह बढते हुए अंग्रेजों के खतरे को समझ ही नहीं सका। उसने पेशवा माधवराव द्वितीय पर कठोर नियंत्रण रखकर मराठा संघ को अत्यंत दुर्बल अवस्था में लाकर छोङ दिया। उसने महादजी को कभी महत्त्व नहीं दिया जबकि महादजी मराठा संघ का सर्वाधिक योग्य सरदार था। वस्तुतः उसने मराठा राज्य में किसी नेता को उभरने ही नहीं दिया।

फिर भी अपने व्यक्तित्व और नीति निपुणता के कारण वह अर्द्ध शताब्दी तक मराठा राज्य में छाया रहा। नाना के जीवनी-लेखक श्री हर्डीकर ने उसकी तुलना एक वट वृक्ष से की है, जिसकी विशाल और सघन छाया में लोग विश्रांति,शांति और सुख प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु जो अपने आसपास किसी भी अन्य वृक्ष को पनपने नहीं देता।

दुर्भाग्य से नाना फङनवीस का काल मराठा राज्य के पतन का काल था तथा पतन के लिए सभी आवश्यक परिस्थितियों का निर्माण हो चुका था। मराठा सरदार आदर्शहीन व सिद्धांतहीन हो चुके थे तथा राज्यहित की भावना नष्ट हो चुकी थी। फलस्वरूप मराठा संघ की एकता नष्ट हो गयी। पारस्परिक संघर्ष इतना तीव्र हो गया कि राज्य की नींवे बिल्कुल खोखली हो गयी।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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