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कुम्भा की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ

कुम्भा की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ – महाराणा कुम्भा केवल पराक्रमी योद्धा ही नहीं था, बल्कि सांस्कृतिक उपलब्धियों में भी सर्वोपरि था। कला एवं विद्या की अभिवृद्धि में विशेष अनुराग रखने के कारण उसने साहित्य, कला, नाट्यशास्र, भाषा, दर्शन आदि में नवचेतना का संचार किया।

इन विविध विद्याओं में जो उन्नति महाराणा कुम्भा के काल में हुई, वह कई शताब्दियों में नहीं की जा सकी। उसके समय के स्थापत्य के प्रतीक, उसके कला प्रेम का प्रमाण हैं। वह स्वयं उच्च कोटि का विद्वान और विद्वानों का आश्रयदाता था।

कुम्भा की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ : कुम्भा और स्थापत्य

इतिहास में महाराणा कुम्भा का जो स्थान एक विजेता के रूप में है उससे भी महत्त्वपूर्ण स्थान उसका स्थापत्य के संबंध में है। वस्तुतः महाराणा कुम्भा के समय में मेवाङ में जितना निर्माण कार्य हुआ उतना मेवाङ के किसी राणा के शासन काल में नहीं हुआ। कुम्भा स्थापत्य कला के प्रेमी थे।

वे भारत की गुप्तकालीन कला से प्रभावित थे, जो दुर्गों, मंदिरों, भवनों और जलाशयों के निर्माण के माध्यम से अभिव्यक्त की जाती थी। कुम्भा ने इस परंपरागत शैली में सामरिक आवश्यकता एवं सुरक्षा का अंश मिलाकर उसे विशेष रूप में पल्लवित एवं विकसित किया।

श्री डी.आर.भंडारकर के अनुसार कुम्भा ने मंदिरों के निर्माण में भी सुरक्षा और धार्मिक भावना का सामंजस्य उपस्थित कर एक नूतन चेतना को जन्म दिया।

जहाँ तक सामरिक स्थाप्त्य का प्रश्न है, दुर्ग-निर्माण का स्थान सर्वोपरि है। कुम्भा ने मेवाङ राज्य के विभिन्न भागों में दुर्गों का निर्माण कर मेवाङ की सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत बनाया। कविराजा श्यामलदास के अनुसार मेवाङ के 84 दुर्गों में से 32 दुर्ग महाराणा कुम्भा ने बनवाये थे।

इन 32 दुर्गों में कुम्भलमेर या कुम्भलगढ का दुर्ग सर्वाधिक प्रसिद्ध है। अपने राज्य के पश्चिमी सीमा और सिरोही के बीच के तंग रास्तों को सुरक्षित रखने के लिये नाकेबंदी की गयी तथा सिरोही के निकट बसन्ती दुर्ग का निर्माण करवाया। उपद्रवी मेरों को नियंत्रण में रखने के लिये मचान का दुर्ग बनवाया।

इसी दृष्टि से कोलन और बदनोर के निकट बैराट के दुर्गों का निर्माण करवाया। भीलों की शक्ति पर अंकुश रखने तथा उन पर राज्य का प्रभाव बनाये रखने के लिये भोमट के क्षेत्र में भी अनेक दुर्ग बनवाये। इन सभी दुर्गों के निर्माण से मेवाङ राज्य की पश्चिमी, उत्तरी और दक्षिणी सीमा सुरक्षित हो गयी।

कुम्भा ने नये दुर्ग निर्मित करवाने के अलावा पुराने दुर्गों को जीर्णोद्धार भी करवाया। आबू में अचलगढ नामक स्थान पर परमारों का प्राचीन दुर्ग था। इस दुर्ग की सामरिक उपयोगिता को देखते हुए इसे नवीन दुर्ग में परिवर्तित करवाया ताकि यहाँ से सीमान्त भागों को सैनिक सहायता पहुँचाई जा सके।

वास्तुकला की दृष्टि से इसमें स्वयं अपने निवास के लिये तथा सेना के रहने के लिये निवास स्थान बनवाये और इसके साथ-साथ गोदाम और कृत्रिम पानी की टंकियाँ बनवायी। बुर्जों और द्वारों का निर्माण इस प्रकार करवाया गया कि शत्रु उस पर आसानी से आक्रमण न कर सके। इस दुर्ग के निर्माण में कुम्भा ने सामरिक और राजकीय आवश्यकता को प्रधानता दी।

कुम्भलगढ का दुर्ग कुम्भा की युद्ध कला और स्थापत्य रुचि का महान चमत्कार कहा जा सकता है। अरावली पर्वत माला की पश्चिमी शाखा के एक छोर पर स्थित यह दुर्ग, एक ओर तो सैनिक उपयोगिता और निवास की आवयश्यकता की पूर्ति करता था तो दूसरी ओर कुम्भा की सामरिक योग्यता का ज्वलन्त उदाहरण भी प्रस्तुत करता है।

कहा जाता है कि कुम्भा ने अपनी पत्नी कुम्भलदेवी की स्मृति में इसका निर्माण करवाया था। इसका प्रमुख शिल्पी मंडन था। दुर्ग में लगभग 50 हजार व्यक्ति निवास कर सकते थे तथा इतने ही लोगों के लिये पानी की आवश्यकता को पूरा करने के लिये एक विशाल तालाब भी बनवाया।

दुर्ग के मध्यवर्ती ऊँचे स्थानों पर मंदिर, मकान और राजप्रासाद बनवाये गये तथा समतल भूमि खेती के लिये सुरक्षित रखी गयी ।दुर्ग को चारों तरफ से विशाल प्राचीरों और बुर्जियों से मजबूत बनाया गया । दुर्ग के सबसे ऊँचे भाग पर कुम्भा ने अपना निवास बनवाया था, जिसे कटारगढ के नाम से पुकारा जाता था।

दुर्ग को कई पहाङियों और घाटियों को मिलाकर ऐसा बनाया गया था जिससे इसकी सुरक्षा स्वाभाविक रूप से हो जाती थी। यद्यपि अपने राज्य की सुरक्षा के लिये सुदृढ दुर्गों के बनवाने में उसने अतुल धनराशि खर्ची की, लेकिन कटारगढ में बनाये गये स्वयं के महल पूर्ण सादगी लिये हुए हैं, जो कुम्भा के त्यागमय चरित्र का प्रमाण हैं।

दुर्ग की उपयोगिता का उल्लेख करते हुये डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने लिखा है कि, यह गढ राजपरिवार के लिये तथा आसपास की बस्ती के लिये सुरक्षा की व्यवस्था, महाराणा कुम्भा के बाद भी, सदियों तक करता रहा। सैनिक सुरक्षा के विचार से इस दुर्ग की उपयोगिता अत्यधिक थी और इस दृष्टि से यह अपने ढंग का हमारे देश का एक ही दुर्ग है।

दुर्गों के बाद चित्तौङ दुर्ग में कुम्भा द्वारा निर्मित विजयस्तंभ तो आज भी उस महान शासक का इतिहास बतला रहा है। वैसे कुम्भा ने कुम्भलगढ में भी विजयस्तंभ बनवाया था, लेकिन चित्तौङगढ का विजयस्तंभ अधिक प्रसिद्ध है। इसका निर्माण कार्य संभवतः 1448 ई. में प्रारंभ हुआ तथा 1459 ई. में यह बन कर तैयार हुआ।

इसकी निर्माण योजना में सूत्रधार जैता तथा उसके पुत्र नापा एवं पूँजा का विशेष योगदान रहा है। इसकी पुष्टि विजयस्तंभ की पहली व दूसरी मंजिल पर लगे शिलालेखों से होती है। यह स्तंभ नीचे से 30 फुट चौङा है तथा इसकी ऊँचाई 122 फुट है तथा इसके निर्माण में 90 लाख रुपये खर्च हुए। इसमें नौ मंजिलें हैं, जिन पर चढने के लिये घुमावदार सीढियाँ हैं। संपूर्ण विजयस्तंभ हिन्दू-देवताओं की अद्वितीय मूर्तियों से आच्छादित हिन्दू शैली के अलंकरण से सुसज्जित है।

विजयस्तंभ की मूर्तियों के प्रमुख विशेषता यह है कि शिल्पकारों ने प्रत्येक मूर्ति के नीचे उनके नाम भी खोद दिये हैं, जिसकी मूर्ति है। इससे मूर्ति के संबंध में सरलता से जानकारी उपलब्ध हो जाती है। विजयस्तंभ की मूर्तियाँ तत्कालीन जीवन के प्रत्येक पहलू पर प्रकाश डावती बैंष डॉ.गोपीनाथ शर्मा ने ठीक ही लिखा है कि, जीवन के व्यावहारिक पक्ष को व्यक्त करने वाला यह स्तंभ एक लोकजीवन का रंगमंच है।

कुछ विद्वानों के अनुसार विजयस्तंभ का निर्माण महमूद खिलजी पर विजय के प्रतीक स्वरूप किया गया था।

कुम्भा की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ

किन्तु उपेन्द्रनाथ डे की मान्यता है कि यह विजय स्तंभ न होकर विष्णु स्तंभ है। लेकिन इस मान्यता को कि कुम्भा ने महमूद खलजी को परास्त कर अपनी विजय की स्मृति में इसे बनवाया था, सर्वथा अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि कुम्भा ने महमूद खलजी को परास्त किया, जिसकी पुष्टि कुम्भलगढ प्रशस्ति तथा रणकपुर का शिलालेख वि.सं. 1426 से होती है।

डॉ.आर.पी.व्यास के अनुसार विजय स्तंभ केवल विजय स्मारक ही नहीं वरन् हिन्दू प्रतिमाशास्र की एक अनुपम निधि है।

कुम्भाकालीन स्थापत्य में मंदिरों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। यद्यपि ये मंदिर अपनी निर्माण शैली में, परंपरागत शैली से कोई भिन्न नहीं हैं, परंतु इनकी विशालता और तक्षण कला निश्चय ही विलक्षण है। ऐसे मंदिरों में चित्तौङ का कुम्भस्वामी (कुम्भाश्यामजी) मंदिर और श्रृंगार गौरी का मंदिर, एकलिंगजी में मीरा मंदिर सबसे पहले बने थे।

एकलिंगजी का मंदिर बहुत पुराना है किन्तु कुम्भा ने मूल मंदिर में एक विशाल मंडप और तोरण का निर्माण करवाया था। कुम्भा ने चित्तौङ, कुम्भलगढ और अचलगढ के प्रत्येक दुर्ग में कुम्भास्वामी के मंदिर बनवाये थे। कुम्भा के काल की सभी देव मूर्तियाँ आभूषणों तथा सर्वथा नवीन प्रसाधनों से युक्त हैं।

इन मंदिरों में कुम्भाकालीन जीवन की घटनाएँ और पौराणिक कथाएं अद्भुत सफाई और शक्ति एवं कौशल से उत्कीर्ण की गयी हैं। कलाकारों की ये अनुपम कृतियाँ अपनी सजीवता तथा सौन्दर्यपूर्ण कला की उत्तमता के विशिष्ट उदाहरण हैं। ये मंदिर महाराणा कुम्भा की भक्ति भावना को भी प्रदर्शित करते हैं।

कुम्भा का विद्यानुराग

महाराणा कुम्भा न केवल पराक्रमी योद्धा और स्थापत्य प्रेमी ही था, बल्कि वह एक विद्वान एवं विद्यानुरागी शासक था। वह एक कवि, नाटककार, टीकाकार तथा संगीताचार्य था। एकलिंग महात्म्य से विदित होता है कि वह वेद, स्मृति, मीमांसा, उपनिषद, व्याकरण, राजनीति और साहित्य में बङा निपुण था।

युद्धों एवं प्रशासनिक कार्यों में व्यस्त रहने के बावजूद वह उत्कृष्ट कविता की रचना भी कर लेता था। वह अपने समय का श्रेष्ठ संगीतज्ञ था। उसे संगीत कला का इतना व्यापक ज्ञान था कि कोई व्यक्ति उसकी समता नहीं कर सकता था। इसलिए लोग उसे अभिनव भरताचार्य के नाम से पुकारते हैं।

संगीत के क्षेत्र में स्वयं कुम्भा ने तीन ग्रन्थों की रचना की थी, जिनके नाम – संगीत रत्नाकर, संगीत मीमांसा और रसिकप्रिया हैं। कुम्भा ने संगीत के विख्यात ग्रन्थ संगीत रत्नाकर की टीका भी लिखी थी। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि कुम्भा द्वारा रचित रसिकप्रिया सुप्रसिद्ध ग्रन्थ गीतगोविन्द का भाषानुवाद है।

कुम्भा ने चंडी शतक की टीका लिखी थी। रसिकप्रिया का पूरक ग्रन्थ सुधा प्रबंध भी कुम्भा की रचना बतायी जाती है। इसी प्रकार कामराज-रतिसार नामक ग्रन्थ के सृजन का श्रेय भी कुम्भा की रचना बतायी जाती है। इसी प्रकार कामराज-रतिसार नामक ग्रन्थ के सृजन का श्रेय भी कुम्भा को दिया जाता है।

कुम्भा एक अच्छा नाटककार भी था और उसने चार नाटक भी लिखे थे। इन नाटकों से प्रमाणित होता है कि कुम्भा को मेवाङी भाषा के अलावा संस्कृत, मराठी और कन्नङ भाषाओं का भी पर्याप्त ज्ञान था।

कुम्भा स्वयं तो श्रेष्ठ विद्वान था ही, साथ ही विद्वानों और कलाकारों का आश्रयदाता भी था। कुम्भा ने अपनी देखरेख में विद्वानों से भवन निर्माण कला पर अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखवाये थे जिनमें से कुछ तो आज भी उपलब्ध हैं। मंडन नामक विख्यात शिल्पी ने देवमूर्ति-प्रकरण, प्रसाद मंडन, राजवल्लभ, रूपमंडल, वस्तु-मंडन, वास्तु-शास्र आदि ग्रंथों की रचना की थी।

मंडन के भाई नाथा ने वास्तु-मंजरी और मंडन के पुत्र गोविन्द ने उद्धार-धोरणी, कलानिधि और द्वार-दीपिका नामक ग्रन्थों की रचना की थी। कीर्तिस्तंभ की प्रशस्ति की रचना तीन कवियों – कवि, अत्रि और महेश ने की थी। कवि अत्रि काव्यशास्र का आलोचक भी था तथा उसे मीमांसा, न्याय और वेदान्त में विशेष योग्यता प्राप्त थी।

उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्र महेश ने कीर्तिस्तंभ प्रशस्ति को पूरा किया। इसके अलावा एकलिंग माहात्म्य का लेखक कान्ह व्यास कुम्भा का वैतनिक कवि था। कुम्भा के शासन काल में अनेक जैन विद्वान भी हुए जिन्होंने काव्य ग्रन्थों एवं धर्मग्रन्थों की रचना की। इसमें सोमसुन्दर, जयचंद सूरी तथा सोमदेव आदि उल्लेखनीय हैं।

कुम्भा की उपाधियाँ

कीर्तिस्तंभ प्रशस्ति तथा कुम्भलगढ प्रशस्ति से कुम्भा द्वारा धारण की गयी अनेक उपाधियों की जानकारी मिलती है। महाराजाधिराज, रायरायन, राणो रासो(अर्थात् साहित्यकारों का आश्रयदाता), महाराणा, राजगुरु, हालगुरु, परमगुरु आदि उपाधियाँ उसने धारण कर रखी थी।

राजगुरु का अर्थ है कि राजनीतिक सिद्धांतों में दक्षता, दानगुरु का तात्पर्य महान दानी, हालगुरु का अभिप्राय पहाङी दुर्गों का स्वामी तथा परमगुरु का अभिप्राय अपने समय के सर्वोच्च शासक से हो सकता है। रसिकप्रिया में भी कुम्भा की कुछ उपाधियों का उल्लेख मिलता है, जैसे छापगुरु (छापामार पद्धति में पारंगत), नरपति, अश्वपति और गणपति। इन सभी का अभिप्राय है कि कुम्भा विशाल सेना का स्वामी था।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : कुम्भा

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