इतिहासदक्षिण भारतप्राचीन भारतबादामी का चालुक्य वंश

ऐहोल अभिलेख का हिन्दी भाषांतर

कर्नाटक राज्य के बीजापुर जिले में यह स्थान स्थित है। यहाँ से बादामी के चालुक्य शासक पुलकेशिन् द्वितीय का लेख मिलता है जो एक प्रशस्ति के रूप में है। इसकी स्थिति 634 ई. है। इसकी रचना जैन कवि रविकीर्त्ति ने की थी। इसकी रचना कालिदास तथा भारवि की शैली पर की गई है। इसमें पुलकेशिन् द्वितीय की उपलब्धियों का वर्णन मिलता है। हर्ष – पुलकेशिन् युद्ध का भी उल्लेख इस लेख में हुआ हैं। यह प्रशस्ति संस्कृत भाषा में लिखी गयी है।

प्राचीन कालीन स्थल – ऐहोल

पुलकेशिन द्वितीय के समय में चालुक्य तथा पल्लव संघर्ष

ऐहोल लेख का हिन्दी में अनुवाद

  1. जो जन्म, मरण तथा जरा से परे हैं, जिनके ज्ञान रूपी समुद्र में संसार एक द्वीप की भाँति है, ऐसे भगवान विष्णु की जय हो।
  2. स्थायी तथा अमीम चालुक्य वंश रूपी विशाल समुद्र की जय हो, जो पृथ्वी के मस्तक को विभूषित करने वाले पुरुष रत्नों की उद्गम स्थली है।
  3. दान तथा मान, वीर तथा विद्वान में विभेद न कर दोनों में समान वितरण करने वाला सत्याश्रय चिरविजयी बने।
  4. जिसके द्वारा इस वंश में उत्पन्न विजगीषु अनेक राजाओं के बीच पृथ्वीवल्लभ शब्द दीर्घकाल तक सार्थक बनाये रखा गया।
  5. अनेक शस्त्रों के प्रहार से पतित एवं भ्रांत अश्व, पदाति एवं गज सेना को नाचती हुई भयंकर तलवार की चंचलता किरणों की ज्वाला से सहस्त्रों युद्धों में जीत कर लक्ष्मी की स्वाभाविक चंचलता को अपने शौर्य से स्थिर करने वाला जयसिंहवल्लभ इस वंश का प्रसिद्ध राजा हुआ।
  6. उसका रणराग नामक पुत्र था, जो अपने दिव्य अनुभव से इस संसार का स्वामी था। उसके सुप्त शरीर की विशालता को देखकर संसार उसे अमानव (देवता) समझता था।
  7. चंद्रमा की कांति से युद्ध श्रीवल्लभ पुलकेशी उसका पुत्र था, जो वातापीपुर रूपी वधू का स्वामी थी।
  8. जिसने इस पृथ्वी पर त्रिवर्ग की पदवी धारण की, जिसे अन्य राजा प्राप्त करने में असमर्थ रहे। उसने अश्वमेघ यज्ञ की समाप्ति पर स्नान द्वारा समस्त लोगों को चकित कर दिया।
  9. उसका पुत्र कीर्तिवर्मन हुआ, जो नल, मौर्य और कदंब राजाओं के लिये कालरात्री के समान था। पर स्त्रियों की ओर से चित्त हो हटा लेने पर भी जिसकी बुद्धि को शत्रु की लक्ष्मी ने आकृष्ट कर लिया था।
  10. युद्ध में पराक्रम द्वारा जिसने शीघ्र ही संपूर्ण विजयश्री को प्राप्त कर लिया था। राजाओं के यशरूपी गंध से मत्त गज के समान जिसने कदंब वंश को कदंब वृक्ष की तरह समूल नष्ट कर दिया था।
  11. इंद्र की विभूति को प्राप्त करने की अभिलाषा रखने वाले कीर्तिवर्मा के बाद उसका छोटा भाई मंगलेश राजा हुआ, जिसकी अश्वसेना की टापों से उङी धूल ने पूर्वी समुद्र से पश्चिमी समुद्र तक वितान सा बना दिया था।
  12. शत्रुओं के हाथी रूपी अंधकार को सैकङों चमकती हुयी तलवार रूपी दीपों से नष्ट कर युद्ध मंडप में कलचुरि वंश की राजकन्या को परिग्रहीत किया।
  13. पुनः उसने रेवती द्वीप (गोआ) को विजित करने की इच्छा से अनेक पताकाओं से युक्त सेना के द्वारा घेर लिया। उसकी विशाल सेना का प्रतिबिम्ब समुद्र में पङता हुआ, ऐसा प्रतीत होता था मानों वरुण उसकी आज्ञा पाकर अपनी सेना लेकर आ गया हो।
  14. उसके छोटे भाई (कीर्तिवर्मा) का पुत्र पुलकेशी (द्वितीय) था, जो नहुष के अनुभव का तथा लक्ष्मी द्वारा अभिलषित था।पितृव्य मंगलेश की अपने प्रति ईर्ष्या को जानकर उसने अपनी व्यावसायिक बुद्धि को नहीं रोका।
  15. उसने अपनी संपूर्ण मंत्र शक्ति और उत्साह शक्ति के प्रयोग से मंगलेश के संपूर्ण बल को नष्ट कर दिया। मंगलेश को अपने पुत्र को राज्य दिलाने के प्रयास में अपना जीवन और राज्य गंवाना पङा।
  16. मंगलेश के अंत के साथ संपूर्ण जगत शत्रु रूपी अंधकार से व्याप्त हो गया। पुलकेशिन के प्रचंड प्रताप के प्रकाश से पुनः प्रभात का आगमन हुआ। गर्जन करते हुये मेघों से अथवा भ्रमरों के समूहों से आकाश कैसे आच्छन्न हो सकता है, जबकि उसकी नृत्य करती हुई पताका रूपी विद्युत अथवा वेगवान वायु चल रही हो।
  17. समय पाकर पुलकेशीन के राज्य को अधिगम करने की इच्छा से आप्यायिक और गोविन्द ने अपनी हस्तिसेना को भीमरथी के उत्तर में भेजा। इनमें से एक की सेना भय से निश्चेष्ट होकर भाग गयी तथा दूसरे ने उसकी कृपा के फल को प्राप्त किया।
  18. वरदा नदी की उत्तुंग तरंगों की रंगशाला में पलने वाले हंसों की पंक्तिरूपी मेखला से घिरी, इन्द्रलोक की समृद्धि से स्पर्धा करने वाली वनवासी नगरी को जिसकी विशाल सेनारूपी समुद्र ने आच्छादित कर लिया और देखते ही देखते स्थलदुर्ग को जलदुर्ग के समान ध्वंस कर दिया।
  19. प्राचीन उपार्जित संपत्ति के रहते हुये भी सप्त व्यसनों(ध्यूत, मांस, मदिरा, वेश्या, आखेट, चोरी तथा परस्त्री) को छोङने वाले गंग और आलुप राजा पुलकेशी के प्रभाव से उसकी दासता स्वीकार कर उसकी सेवा रूपी अमृत के पान से मत्त रहते थे।कोंकण में जिसकी प्रचंड सेनारूपी जल की तरंगों ने मौर्य रूपी लघु जलाशय को बहा दिया।
  20. उसने नगरियों के समुद्र में दूसरी लक्ष्मी के समान सुशोभित उस पुरी को सैकङों मदमस्त हाथियों के आकारवाली नौकाओंसे आक्रांत कर दिया। सेना रूपी मेघों से युक्त नवविकसित नील कमल के समान आकाश समुद्र जैसा और समुद्र आकाश जैसा हो गया।
  21. जिसके प्रताप से अवनत लाट, मालवा और गुर्जर ऐसे प्रतीत होते थे, मानों सामंतों की सेवा में दंड के प्रभाव से लग गये हों। पुलकेशिन द्वितीय की उपलब्धियाँ
  22. अपरिमित ऐश्वर्य से युक्त सामंतों की मुकुट-मणियों से सुशोभित चरण कमलवाला हर्ष भी युद्ध में हस्तिसेना के नष्ट हो जाने से भयभीत होकर हर्ष रहित (आनंद विहीन) हो गया।
  23. इस पृथ्वी पर पुलकेशी की विशाल सेना के शासन में विविध तटों वाली नर्मदा नदी तथा हाथियों से रहित पहाङों के समान शरीर की स्पर्धा करने वाले विन्ध्याचल का पार्श्ववर्ती भाग अपने तेज की महिमा से और अधिक सुशोभित हो गया
  24. अनेक प्रकार की शक्तियों से संयुक्त अपने गुणों में और कुलीनता में इन्द्र की समता करने वाले पुलकेशी ने तीनों महाराष्ट्र प्रदेश के 99,000 गाँवों तक आधिप्तय स्थापित किया।
  25. वह त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, कर्म) को पूर्ण करने में गृहस्थ था। अनेक राजाओं के अभिमान को नष्ट करने वाले कोशल और कलिंग के राजा भी उसके समक्ष भयभीत हो जाते थे।
  26. उसने पिष्टपुर नगर को पीस दिया। उस दुर्गयुक्त नगर को दुर्गरहित कर दिया। उसकी चित्रवृत्ति ऐसी दुर्गम थी, जिसमें कलियुग की दुर्वृत्तियां प्रविष्ट नहीं हो सकती थी।
  27. उसने सुसज्जित (युद्ध के लिये) हाथियों के समूहों की घटा के समान बादलों से तथा अनेक प्रकार के शस्त्रों के द्वारा घायल घावों से निकलने वाले लालवर्ण के अंगराग के समान संध्याकालीन लालिमा से युक्त आकाश के समान दिखलाई देने वाली कोनाल झील को पुलकेशी ने विजित किया।
  28. अत्यन्त उद्धृत चंचल चंवर, ध्वजा और छत्रों से आच्छादित, शौर्य और उत्साह से आपूर्ण शत्रुओं का मर्दन करने वाले मौल आदि प्रकार के सैनिकों द्वारा काँचीपुर के प्रताप को अपनी सेना का जल चोलों को शीघ्रता से विजित करने के लिये उद्यत पुलकेशी के मदयुक्त हाथियों के सेतु से अवरुद्ध हो गयी तथा समुद्र से मिलने के लिये रोक दी गयी।
  29. पल्लवों रूपी ओस कणों के लिये दूसरे सूर्य के समान पुलकेशी, चोल, केरल और पाण्डयों की समृद्धि का हेतु बना।
  30. अत्साह, प्रभु और मंत्रशक्ति से युक्त पुलकेशी ने समस्त दिशाओं (राजाओं) को जीतकर, जीते हुये राजाओं को छोङकर, देवता और ब्राह्मणों की पूजा करके वातापी नगरी में प्रवेश किया। यह नगरी दूसरी पृथ्वी के समान चंचल जल से भरी हुयी परिखा से घिरी हुयी थी। जहाँ सत्याश्रय ने शान किया।
  31. महाभारत के युद्ध के 3735 वर्ष बाद।
  32. कलियुग के शक शासकों के संवत् 556 वर्ष बाद।
  33. तीनों समुद्र पर्यंत जिसका शासन था ऐसे सत्याश्रय की कृपा से यह पत्थर का जैन भवन अपने गौरव के लिये रविकीर्ति ने निर्मित कराया।
  34. तीनों लोकों के स्वामी जिनकी इस प्रशस्ति का कर्ता भी स्वयं रविकीर्ति ही था।
  35. विवेकी रविकीर्ति ने अपने अर्थविधान को स्थिर करने के लिये इस पत्थर के जैन मंदिर की योजना बनाई तथा कालिदास और भारवि जैसा यश अपनी कविता के द्वारा प्राप्त किया। कालिदास किसका दरबारी कवि था
References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
2. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास, लेखक-  वी.डी.महाजन 

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