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अशोक के सप्त स्तंभ-लेख (Seven Pillar-Edicts)

स्तंभ लेखों की संख्या 7 है, जो 6 भिन्न-2 स्थानों में पाषाण-स्तंभों पर उत्कीर्ण पाये गये हैं। ये इस प्रकार हैं-

दिल्ली टोपरा स्तंभ-लेख-

यह सर्वाधिक प्रसिद्ध स्तंभ लेख है। मध्यकालीन इतिहासकार शम्स-ए-सिराज के अनुसार मूलतः यह उत्तर प्रदेश के सहारनपुर (खिज्राबाद) जिले में टोपरा नामक स्थान पर गङा था। कालांतर में फिरोज शाह तुगलक (1351-88 ई.)द्वारा दिल्ली लाया गया था।

फिरोजशाह तुगलक कौन था?

उसने इसे फिरोजाबाद में कोटला के ऊपर स्थापित करवाया था। इसे फिरोजशाह की लाट, भीमसेन की लाट, दिल्ली शिवालिक की लाट, सुनहरी लाट आदि नामों से भी जाना जाता है। इस पर अशोक के सातों लेख उत्कीर्ण हैं, जबकि अन्य पर केवल 6 ही लेख मिलते हैं। सर्वप्रथम जेम्स प्रिंसेप ने इसका वाचन कर अंग्रेजी में अनुवाद किया था।

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दिल्ली टोपरा स्तंभ लेख पर चौहान शासक विग्रहराज-iv (बीसलदेव) का भी नाम मिलता है।

दिल्ली मेरठ स्तंभ-लेख-

यह भी पहले मेरठ में था तथा बाद में फिरोज तुगलक द्वारा दिल्ली में लाया गया।

लौरिया अरराज-

(बिहार के चंपारन जिले में स्थित)

रमपुरवा-

(चंपारन, बिहार)

प्रयाग या इलाहाबाद स्तंभ लेख-

यह पहले कौशांबी में था, तथा बाद में अकबर द्वारा लाकर इलाहाबाद के किले में रखवाया गया। यहां से अशोक के अलावा समुद्रगुप्त का अभिलेख (प्रयाग प्रशस्ति ), जहांगीर का अभिलेख, बीरबल का अभिलेख भी मिला है।

अकबर के शासनकाल की प्रमुख घटनायें क्या – क्या थी?

7 राजाज्ञाओं का जो 6 स्थानों से पाषाण-स्तंभों पर उत्कीर्ण की गई हैं, का हिन्दी अनुवाद निम्नलिखित है-

राजाज्ञा-1.

देवानंप्रिय प्रियदर्शी राजा कहता है- मैंने अपने अभिषेक के 26 वें वर्ष बाद यह धर्मलिपि लिखवायी । धर्म की तीव्र कामना, कठोर परीक्षा, अत्यधिक आज्ञा पालन, अत्यधिक भय, अत्यधिक उत्साह के बिना इस लोक तथा परलोक के सुख की प्राप्ति कठिन है।

परंतु मेरे प्रयत्नों से लोगों का धर्मानुराग और प्रेम बढता गया और प्रतिदिन बढता ही जायेगा।मेरे उच्च, छोटे या मध्यम अधिकारी स्वयं धर्म का पालन करते हैं, और चंचल मनवालों को धर्मपालन की प्रेरणा के उपयुक्त होने के कारण, उनसे भी धर्मपालन कराते हैं। सीमांत प्रदेशों के महामात्र भी ऐसा ही कराते हैं। इन सबके लिये आज्ञा है कि धर्मानुसार लोगों का पोषण करो, धर्मानुसार शासन का विधान करो, धर्म के द्वारा उन्हें सुख पहुँचाओं और धर्मानुसार शासन करो।

राजाज्ञा- 2.

देवानंप्रिय प्रियदर्शी राजा कहता है- धर्म श्रेष्ठ है। पर धर्म क्या है? पापों का अभाव, अच्छा काम, दया, दान सत्य, पवित्रता। मैंने कई प्रकार से चक्षुदान (ज्ञान दृष्टि) किया है। दोपायों, चौपायों, पक्षियों तथा जलचरों पर अनेक प्रकार के उपकार मेरे द्वारा किये गये। यहां तक कि उन्हें जीवनदान भी दिया गया है। मैंने दूसरे बहुत से पुण्य कर्म किये। यह धर्म लिपि लिखवायी गयी कि वे मेरा अनुकरण करें तथा यह चिरस्थायी रहे। इसके अनुसार चलने वाला शुभ कार्य करेगा।

राजाज्ञा-3.

देवानंप्रिय प्रियदर्शी कहता है- मनुष्य केवल अपने अच्छे काम ही देखता है, (यह अपने से कहता है) – मैंने यह अच्छा काम किया है। वह अपना पाप कभी नहीं देखता (और अपने से यह नहीं कहता) – मैंने यह पाप किया है अथवा यह वास्तव में बुरा काम है। पर यह (ऐसी वस्तु है) जिसमें आत्म निरीक्षण कठिन है। फिर भी देखना चाहिए (और अपने से कहना चाहिए)- ये (विषय विकार) प्रचंडता, क्रूरता, क्रोध, घमंड, ईर्ष्या आदि दुर्गुण उत्पन्न करते हैं, तथा उनके कारण मेरा पतन हो सकता है। यह भी सदा ध्यान रखना चाहिए, कि इस लोक और परलोक में भी लाभ होगाय़

राजाज्ञा-4.

……………मैंने अपने अभिषेक के 26 वें वर्ष बाद यह धम्मलिपि लिखवायी। लाखों लोगों के ऊपर रज्जुकों को नियुक्त किया है। मैंने उन्हें न्यायिक अनुसंधान तथा दंड में स्वतंत्र बना दिया। जिससे वे अपना कर्तव्य विश्वास के साथ और निडर होकर पूरा करें, जनपदों के लोगों का हित और सुख उत्पन्न करें तथा उनका उपकार करें। वे सुख और दुख के कारणों को जानेंगे और जनपदों के लोगों तथा धर्मयुक्त जनों को प्रेरणा प्रदान करेंगे। जिससे उन्हें इस लोक और परलोक में सुख मिल सके।

रज्जुक मेरी आज्ञा पालन को तत्पर हैं। और चूँकि रज्जुक मेरी आज्ञा का पालन करना चाहते हैं। अतः (निम्न) कर्मचारी भी मेरी इच्छाओं का पालन करेंगे। वे भी कुछ को उपदेश देंगे जिससे रज्जुक मुझे प्रसन्न करने का प्रयत्न करेंगे। जिस प्रकार (माता-पिता) संतान को योग्य धाय को सौंपकर आश्वस्त होते हैं (यह सोचकर कि) योग्य धाय मेरी संतान को सुख देने की चेष्टा करती है- इसी प्रकार रज्जुक जनपदों के हित सुख के लिये नियुक्त किये गये हैं, जिससे वे निर्मय और निःसंकोच होकर प्रसन्न मन से अपने कर्त्तव्य का पालन करें। इस कारण मैंने न्यायिक अनुसंधान और दंड के बारे में उन्हें स्वतंत्र कर दिया है।

यह वांछनीय है – क्या है? व्यवहार समता और दंड समता। मैंने यह आदेश दिया हैः जो कैद है, जिन्हें सजायें दी जा चुकी हैं तथा जिन्हें मृत्युदंड दिया गया है, उन्हें तीन दिनों की छूट दी गयी है। या तो (उनके) संबंधी (इस बीच) उनके प्राण बचाने के लिये कुछ (रज्जुकों से )दंड कम करा लें, अथवा (आध्यात्मिक) विनाश से बचने के लिये वे परलोक का विचार कर दान दे सकें तथा व्रत रख सकें। मेरी इच्छा है, कि कारावास की अवधि में भी वे परलोक में सुख के लिये प्रयत्न कर सकें और अनेक प्रकार के धार्मिक आचरणों, आत्मसंयम और उदारता की मनुष्यों में अभिवृद्धि हो।

अशोक के वृहद शिलालेख कौन-कौन से हैं ?

राजाज्ञा-5.

देवानांप्रिय प्रियदर्शी कहता है-अपने अभिषेक के 26 वें वर्ष मैंने निम्नलिखित जीवों का वध निषिद्ध किया- शुक, सारिका, अरुन, चक्रवाक, हंस, नंदिमुख, गेलाट, जतूका, अंबाक-पिलिका, कच्छयी, अस्थि हीन, मत्स्य, वेद-वेयक, गंगा-पपुटक, संकुजमछ, कछुआ और साही, खरगोश जैसी गिलहरी, बारासिंहें, साँङ, घर के कीट, गेंडा, श्वेत कपोत, ग्राम कपोत और ऐसे सभी चौपाये जो खाये न जाते हों और अन्य किसी काम न आते हों।

अशोक के लघु शिलालेख।

गर्भिणी अथवा स्तनंधय शिशुवाली भेङ, बकरी और सूकरी तथा उनके 6 माह के छोटे बच्चे, मुर्गों को बधिया न किया जाय। जिस भूसें में कीङे पङ गये हो उसे न खिलाया जाये। व्यर्थ या जीव जन्तुओं को मारने के लिये वन न जलाये जायें।

एक जीव को दूसरे जीव को न खिलाया जाये। तीनों ऋतुओं की पूर्णिमा, और तैष की पूर्णिमा के दिन आस-पास मछली न मारी जाये और न बेची जाये। अर्थात् (पखवारे के) 14 वें और (अगले पखवारे के ) पहले दिन और उपवासों के दिन।

इन दिनों में नागवन या मीनाशयों में अन्य जीव भी न मारे जायें। प्रत्येक पक्ष के आठवें, चौदहवें और पन्द्रहवें दिन तिष्य और पुनर्वसु के दिन, तीनों ऋतुओं की पूर्णिमा को तथा दूसरे त्योंहारों पर बैलों, मेढों, सूअरों तथा अन्य जानवरों को बधिया न किया जाये। तिष्य, पुनर्वसु, ऋतुओं की पूर्णिया को, प्रत्येक ऋतु की पूर्णिमा वाले पक्ष में घोङों और बैलों को न दागा जाये। 26 वर्ष पहले अपने अभिषेक के बाद के समय में मेरे द्वारा 25 बार बंदी मुक्त कराये गये।

राजाज्ञा- 6.

देवानंप्रिय प्रियदर्शी राजा कहता है- अपने अभिषेक के 12 वर्ष बाद मैंने लोगों के हित और सुख की वृद्धि के लिये ये धम्मलिपियां लिखवायी, जिससे उस (आचरण) को छोङकर (अधिकारी) इसे तथा धर्म की वृद्धि को पोषित करें। (यह देखकर कि) जनता का सुख और हित इसमें है मैं उनकी परीक्षा करता हूँं उनकी भी जो मेरे पास हैं और उनकी भी जो दूर हैं, जैसे मैं अपने संबंधियों की परीक्षा करता हूँ। क्यों? जिससे मैं (प्रजा में से) कुछ लोगों को सुख पहुंचा सकूं और मैं इसके अनुसार ही आचरण करता हूँ। इस तरह मैं सभी वर्गों (के अधिकारियों) की परीक्षा करता हूँ। मैंने सभी संप्रदायों का बहुविध आदर किया है, पर (दूसरे संप्रदाय) स्वयं आगे बढने को मैं मुख्य चीज समझता हूँ। यह धम्मलिपि मेरे अभिषेक के 26 वें वर्ष लिखवायी गयी।

अशोक के शिलालेखों के विषय।

राजाज्ञा-7.

देवानंप्रिय प्रियदर्शी राजा ऐसा कहता है- प्राचीन काल में भी राजा सोचते थे, कि मनुष्यों में धर्म कैसे बढे? पर धर्म की उचित वृद्धि नहीं हो सकी। इस पर देवानंप्रिय ऐसा कहता है – मेरे मन में यह विचार आया- प्राचीन राजाओं की इच्छा थी, कि प्रजा में धर्म की समुचित वृद्धि हो पर प्रजा में धर्म की समुचित वृद्धि नहीं हुई। तो लोगों को धर्म के अनुकूल कैसे बनाया जाय, लोगों में धर्म की समुचित वृद्धि कैसे हो? मैं किस प्रकार उनमें धार्मिक वृद्धि का उत्थान कर सकता हूँ। इस पर प्रियदर्शी कहता है- मेरे मन में यह विचार आया कि मैं धर्म का आदेश कराऊँ तथा लोगों को धर्म संबंधी शिक्षा देने की आज्ञा दूं जिसको सुनकर मनुष्य उसका पालन करेंगे।

अशोक की धार्मिक नीति।

धर्म की उन्नति के साथ-2 उनकी महान् उन्नति होगी। इस उद्देश्य से मैने धर्म पर कितने ही प्रज्ञापन निकलवाने तथा अनेक प्रकार से लोगों को धार्मिक शिक्षा दिलवायी। बहुत से लोगों पर मैंने अपने अधिकारी व्युक्त नियुक्त किये हैं। वे धर्म का प्रचार और उपदेश करेंगे। लाखों आदमियों के ऊपर रज्जुक नियुक्त किये गये हैं। उन्हें भी आदेश दिया गया है- धर्मनिष्ठ लोगों में इस तरह उपदेश करो।

देवानंप्रिय प्रियदर्शी कहता है- सङकों के किनारे मैंने वटवृक्ष लगवाये हैं। उनसे मनुष्यों और पशुओं को छाया मिलेगी। आम्रवाटिकायें लगवायी है, 8-8 कोस पर कुएं खुदवाये हैं, तथा विश्रामगृह बनवाये हैं। मैंने मनुष्यों तथा पशुओं के आराम के लिये स्थान-स्थान पर बहुत से आरामगाह बनवाये हैं।पर यह सब कोई बङी चीज नहीं है। ऐसे सांसासिक सुख बढाने का कार्य तो मेरे समान कई पूर्ववर्ती राजाओं ने भी किये थे। यह सब मैंने इसलिये किया कि लोगों में भी धर्म के ऐसे आचरण करने की प्रवृत्ति बढे।

प्रियदर्शी राजा कहता है- मैंने विविध धर्मकार्यों के लिये धर्ममहामात्र नियुक्त किये। वे साधुओं और गृहस्थियों के सभी संप्रदायों के लिये नियुक्त किये गये हैं। वे संघ के कार्य की व्यवस्था करेंगे। इसी प्रकार मैंने यह व्यवस्था की कि वे ब्राह्मणों, आजीवकों, निर्ग्रंथों तथा विविध संप्रदायों की व्यवस्था करेंगे।

कई महामात्र मनुष्यों की विविध श्रेणियों और बहुत से नियत कार्यों के लिये हैं, परंतु मैंने धर्ममहामात्रों की नियुक्ति केवल इन तथा सब संप्रदायों के लिये किया हा।

देवानंप्रिय कहता है- ये तथा दूसरे मुख्य कर्मचारी मेरे तथा रानियों के द्वारा किये गये दान का ठीक-2 प्रबंध करते हैं, और यहां तथा जनपदों में, मेरे समस्त अन्कःपुर में उन्होंने की प्रकार के संतोषजनक कार्य किये हैं। मैंने यह प्रबंध किया है कि वे मेरे पुत्रों तथा अन्य देवीकुमारों द्वारा दिये गये दान का इस प्रकार वितरण करें कि धर्म की उन्नति हो तथा लोग धर्म का पालन करें। और इस प्रकार के लोगों में धर्म की उन्नति और धर्म का पालन बढेगा जिससे दया, दान, सत्य, पवित्रता, नम्रता तथा भलाई की वृद्धि होगी।

देवानांप्रिय राजा यह कहता है- मैंने जितने अच्छे कार्य किये, लोगों ने उनका अनुसरण किया और वे (भविष्य में भी) वैसे ही करेंगे। इन कामों से उनकी उन्नति हुई और माता-पिता तथा गुरुजनों की सेवा, वृद्धों के अनुसरण और ब्राह्मणों और श्रमणों, दीन-दुखियों तथा दासों और मृत्यों के साथ भी सदाचरण बढा है।

देवानंप्रिय राजा कहता है- मनुष्यों में यह धार्मिक उन्नति दो कारणों से हुई-धर्म नियमन तथा निषेध, और इस विषय में नियमन का उतना महत्त्व नहीं जितना निषेध का।

धर्म निषेध वे हैं, जो मैंने लागू किये अर्थात् इन-2 प्राणियों का वध नहीं होगा और अनेक धार्मिक नियम हैं। परंतु निषेध द्वारा, जैसे सब प्राणियों की हिंसा का निषेध और जीवमात्र की हत्या न करने से, धर्म की अधिक वृद्धि हुई है। यह लेख लिखवाया गया, जिससे मेरे पुत्र और पौत्र इन कार्यों को तब तक करते हैं, जब तक सूर्य और चंद्र कायम रहें, और इस प्रकार मेरा अनुसरण करें।

इस प्रकार मेरा अनुसरण करने से इस लोक और परलोक का सुख मिलना निश्चित है। यह धर्म लिपि मैंने अपने अभिषेक के 28 वर्ष बाद लिखवायी है।

इसके विषय में देवानंप्रिय कहता है, कि यह धर्म लिपि जहाँ-2 शिलास्तंभ या शिलाफलक हों वहाँ-2 खुदवायी जाय, जिससे यह चिरस्थायी रहे।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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