आधुनिक भारतइतिहास

ब्रिटिश शासन का भारतीय कृषि पर प्रभाव

औपनिवेशिक काल से पूर्व भारतीय अर्थव्यवस्था कृषिजन्य अर्थव्यवस्था थी।लेकिन अंग्रेजों ने यहां के परंपरागत कृषि ढांचे को नष्ट कर दिया और अपने फायदे के लिए भू-राजस्व निर्धारण और संग्रहण के नये तरीके लागू किये गये।

प्लासी के युद्ध के पश्चात् बंगाल की दीवानी प्राप्त करने के बाद कंपनी के गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने 1772 में बंगाल में द्वैध शासन व्यवस्था को समाप्त कर फार्मिंग सिस्टम (इजारेदारी प्रथा) की शुरुआत भू-राजस्व की वसूली के लिए की।

फार्मिंग सिस्टम के अंतर्गत कंपनी किसी क्षेत्र या जिले के भू-क्षेत्र से राजस्व वसूली की जिम्मेदारी उसे सौंपती थी, जो सबसे अधिक बोली लगाता था।

क्लाइव के समय में भू-राजस्व का वार्षिक बंदोबस्त होता था जिसे हेस्टिंग्स ने बढकर पांच वर्ष का कर दिया।

फार्मिंग सिस्टम का भूमि को लगान वसूली हेतु ठेके पर दिये जाने की प्रथा का कालांतर में बंगाल पर बुरा प्रभाव पङा,किसानों का शोषण बढा और वे भुखमरी तक पहुंच गये।

गवर्नर जनरल कार्नवालिस के समय एक दस साला बंदोबस्त लागू किया गया, जिसे 1793 में स्थायी बंदोबस्त में परिवर्तित कर दिया गया।

बंगाल,बिहार,उङीसा में प्रचलित स्थायी भूमि बंदोबस्त जमींदारों के साथ किया गया, जिन्हें अपनी जमींदारी वाले भू – क्षेत्र का पूर्ण भू-स्वामी माना गया।

स्थायी भूमि बंदोबस्त या जमींदारी प्रथा –

इसके अंतर्गत समूचे ब्रिटिश भारत के क्षेत्रफल का लगभग 19प्रतिशत हिस्सा शामिल था। यह व्यवस्था बंगाल,बिहार,उङीसा तथा उत्तर प्रदेश के वाराणसी तथा उत्तरी कर्नाटक के क्षेत्रों में लागू था।

इस व्यवस्था के अंतर्गत जमींदार जिन्हें भू-स्वामी के रूप में मान्यता प्राप्त थी, को अपने क्षेत्रों में भू-राजस्व की वसूली कर उसका दसवां अथवा ग्यारहवां हिस्सा अपने पास रखना होता था और शेष हिस्सा कंपनी के पास जमा कराना होता था।

इस व्यवस्था के अंतर्गत जमींदार काश्तकारों से मनचाहा लगान वसूल करता था और समय से लगान न देने वाले काश्तकारों से जमीन भी वापस छीन ली जाती थी, कुल मिलाकर काश्तकार पूरी तरह से जमींदारों की दया पर होता था।

इस व्यवस्था के लाभ के रूप में कंपनी की आय का एक निश्चित हिस्सा तय हो गया, जिस पर फसल नष्ट होने का कोई असर नहीं पङता था।

दूसरा लाभ स्थायी भूमि बंदोबस्त से यह हुआ कि जमींदार के रूप में कंपनी को एक ऐसे वर्ग का सहयोग मिला जो लंबे समय तक कंपनी के प्रति निष्ठावान बना रहा।

स्थायी बंदोबस्त व्यवस्था के अंतर्गत जमींदारों की स्थिति अत्यधिक मजबूत हो गई क्योंकि उन्हें भूमि का पूर्णस्वामी स्वीकार कर लिया गया था साथ ही भूमि पर जनसंख्या का दबाव इतना बढ गया था कि लोगों के सामने खेती के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था।

रैय्यतवाङी व्यवस्था-

अंग्रेजों द्वारा भारत में भू-राजस्व वसूली हेतु लागू की गई यह दूसरी व्यवस्था थी जिसका जन्मदाता थामस मुनरो और कैप्टन रीड को माना जाता है।

1792ई. में कैप्टनरीड के प्रयासों से रैय्यतवाङी व्यवस्था को सर्वप्रथम तमिलनाडु के बारामहल जिले में लागू किया गया।

तमिलनाडु के अलावा यह व्यवस्था मद्रास,बंबई के कुछ हिस्से,पूर्वी बंगाल,आसाम,कुर्ग के कुछ हिस्से में लागू की गई।इस व्यवस्था के अंतर्गत कुल ब्रटिश भारत के भू-क्षेत्र का 51 प्रतिशत हिस्सा शामिल था।

रैय्यतवाङी व्यवस्था के अंतर्गत रैय्यतों को भूमि का मालिकाना और कब्जादारी अधिकार दिया गया था जिसके द्वारा ये प्रत्यक्ष रूप से सीधे या व्यक्तिगत रूप से सरकार को भू-राजस्व का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी थे।

रैय्यतवाङी व्यवस्था में कृषक ही भू-स्वामी होता था जिसे भूमि की कुल उपज का 55 प्रतिशत से 33 प्रतिशत के बीच लगान कंपनी को अदा करना होता था।

इस व्यवस्था के अंतर्गत लगान की वसूली कठोरता से की जाती थी तथा लगान की दर भी काफी ऊंची थी, जिसका परिणाम यह हुआ कि कृषक महाजनों के चंगुल में फंसता गया जो कालांतर में महाजन और किसानों के मध्य संघर्ष का कारण बना।

रैय्यतवाङी व्यवस्था के मुक्य दो उद्देश्य थे। एक भू-राजस्व की नियमित वसूली और दूसरी रैय्यतों की स्थिति में सुधार, पहला उद्देश्य अवश्य पूरा हुआ लेकिन दूसरा नहीं।

1836ई. के बाद रैय्यतवाङी व्यवस्था में विंगेर और गोल्डस्मिथ द्वारा कुछ सुधार किया गया, अब खेत की उर्वरता और खेती के लिए उपलब्ध साधनों के आधार पर खेती का लगान निश्चित किया गया जिसका रैय्यत और कंपनी दोनों पर अनुकूल प्रभाव पङा।

महालवाङी बंदोबस्त-

स्थायी एवं रैय्यतवाङी व्यवस्था की असफलता के बाद महालवारी व्यवस्था को लागू किया गया।

इस व्यवस्था में भू-राजस्व का निर्धारण महाल या समूचे ग्राम के उत्पादन के आधार पर किया जाता था और महाल के समस्त कृषक भू-स्वामियों के भू-राजस्व का निर्धारण संयुक्त रूप से किया जाता था, जिसमें गांव के लोग अपने मुखिया या प्रतिनिधियों के द्वारा एक निर्धारण समय सीमा के अंदर लगान की अदायगी की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते थे।

महालवारी व्यवस्था ब्रिटिश भारत के कुल क्षेत्रफल के तीस प्रतिशत हिस्से पर लागू थी।इस व्यवस्था के अंतर्गत दक्कन के कुछ जिले,उत्तर भारत (संयुक्त प्रांत) आगरा,अवध,मध्य प्रांत तथा पंजाब के कुछ हिस्से शामिल थे।

महालवारी व्यवस्था बुरी तरह असफल हुई,क्योंकि इसमें लगान का निर्धारण अनुमान पर आधारित था, और इसकी विसंगतियों का लाभ उठाकर कंपनी के अधिकारी अपनी जेब भरने लगे, कंपनी को लगान वसूली पर लगान से अधिक खर्च करना पङता था।

इस व्यवस्था का परिणाम ग्रामीण समुदाय के विखंडन के रूप में सामने आया। सामाजिक दृष्टि से यह व्यवस्था विनाशकारी और आर्थिक दृष्टि से विफल हुई।

बंगाल में जूट, पंजाब में गेहूँ, बनारस, बिहार,मध्य भारत व मालवा में अफीम के व्यापार के लिए पोस्ते की खेती बर्मा में चावल जैसे वाणिज्यिक फसलों को कंपनी के शासन काल में उगाया जाता था।

वाणिज्यिक फसलों से जहां व्यापारी वर्ग तथा सरकारी कंपनी को अनेक तरह के लाभ मिलते थे वहीं किसान की इससे गरीबी और बढ गई।

व्यापारी वर्ग खङी फसलों को खेत में ही कम कीमत पर क्रय कर लेता था,किसान अपनी तात्कालिक जरूरतों को पूरा करने के लिए अपनी फसल मंडी में न ले जाकर कटाई के समय खेत में ही बेच देता था।वही अनाज जिसे किसना खेत में ही बेच देता था, को 6महीने बाद वह अधिक कीमत देकर बाजार से क्रय करता था, जो उसकी तबाही का कारण बनता था।

ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में चूंकि भारत में औद्योगिक आवश्यकताओं (ब्रिटेन की ) को ही ध्यान में रखकर फसलें उगाई जाती थी, इसलिए खाद्यान्नों की भारी कमी होने लगी, अकाल पङने लगे, जिससे व्यापक तबाही हुई।

कंपनी शासन से पूर्व भारत में पङने वाले अकाल का कारण धन का अभाव न होकर यातायात के साधनों का अभाव होता था,लेकिन ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में पङने वाले अकाल के लिए ब्रिटिश औद्योगिक एवं कृषि नीति जिम्मेदार थी।

खाद्यान्नों की कमी के कारण 1866-67 में उङीसा में पङे भयंकर अकाल को 19वी. शता.के अकालों में आपदा का महासागर कहा जाता है।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि कृषि के वाणिज्यिकीरण से भारत में गरीबी बढी, अकाल पङे,कुछ हद तक अर्थव्यवस्था को मौद्रीकरण हुआ, गांवों का शहरों से संपर्क बढा और नयो शोषणपूर्ण श्रम-संबंधों की शुरुआत हुई।

भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के प्रथम चरम को पर्सीवल स्पीयर ने खुली और बेशर्म लूट कहा ।

वणिकवाद के अंतिम चरण की महत्त्वपूर्ण घटना थी, 1813 के चार्टर अधिनियम द्वार कंपनी के व्यापारिक अधिकार को समाप्त कर देना।

1773 के रेग्यूलेटिंग एक्ट,1784 के पिट्स इंडिया एक्ट और एडम स्मिथ की पुस्तक वेल्थ ऑफ नेशन्स में व्यक्त किये गये विचारों के आधार पर ब्रिटेन के उभरते हुए नये औद्योगिक वर्ग ने 1813 में कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त करके मुक्त व्यापार के द्वारा खोल दिये, जिसके परिणामस्वरूप भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद का दूसरा चरण प्रारंभ हुआ।

भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के दूसरे चरण में जिसे औद्योगिक मुक्त व्यापार(1813-1858) का चरण कहा जाता है, में भारत को ब्रिटिश माल के आयात का मुक्त बाजार बना दिया गया।

1813 में कंपनी का भारत में व्यापारिक एकाधिकार समाप्त कर दिया गया तथा 1833 में कंपनी की समस्त वाणिज्यिक गतिविधियों को ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया।

1833 के बाद भारत के सभी शहर,कस्बे,गांव, जंगल, खाने, कृषि उद्योग तथा जनसंख्या का विशाल समुदाय ब्रिटिश संसद द्वारा ब्रिटिश पूंजिपतियों के मुक्त प्रयोग के लिए खुला छोङ दिया गया।

ब्रिटिश उपनिवेशवाद के इस चरण में भारत का उपयोग ब्रिटेन की मशीन निर्मित वस्तुओं के एक बाजार के रूप में तथा ब्रिटेन पर निर्भर एक ऐसे उपनिवेश के रूप में करना चाहता था जो ब्रिटेन के उद्योगों के लिए कच्चे माल और खाद्यान्नों का उत्पादन एवं पूर्ति करे।

Reference :https://www.indiaolddays.com/

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