इतिहासप्राचीन भारतशाकंभरी का चौहान वंश

चौहान सत्ता का चर्मोत्कर्ष – विग्रहराज चतुर्थ बीसलदेव

चौहान वंशी राजाओं में विग्रहराज चतुर्थ (1153-1163ईस्वी) सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था। उसका शासन चाहमान वंश में एक अविश्मरणीय अध्याय है। उसने अपने समकालीन उत्तर भारत के समस्त राजवंशों को पराजित कर अपने वंश को सार्वभौम स्थिति में ला दिया। परमार साम्राज्य के विघटन के बाद देश की पश्चिमोत्तर सीमा की रक्षा का भार चाहमानों पर ही आ पङा तथा विग्रहराज ने सफलतापूर्वक उसका निर्वहन किया। उसने लाहौर के यामिनी वंश की शक्ति का भी विनाश किया था तथा उसके बारंबार होने वाले आक्रमणों से देश की रक्षा की।

विग्रहराज चतुर्थ की विजयों में सबसे महत्त्वपूर्ण विजय दिल्ली की विजय है। यहाँ तोमरवंशी शासकों का शासन था। बिजोलिया लेख से इस विजय का पता चलता है। दिल्ली के तोमर शासकों के विरुद्ध चौहान शासकों का संघर्ष बहुत पहले से ही चल रहा था,किन्तु अभी तक उन्हें सफलता नहीं मिली थी। तोमर वंश की स्वाधीनता समाप्त कर उसे अपना सामंत बना लेना ही विग्रहराज चतुर्थ की सबसे बङी सफलता थी। दशरथ शर्मा के अनुसार पराजित तोमर वंश राजा तंवर था।

एक लेख के अनुसार विग्रहपाल चतुर्थ ने ढिल्लिका तथा असिका पर अधिकार किया था। यहाँ ढिल्लिका से तात्पर्य दिल्ली तथा असिका से तात्पर्य हाँसी से है। पहले तोमर प्रतिहारों की अधीनता स्वीकार करते थे। प्रतिहार साम्राज्य के पतनोपरांत तोमर कुछ समय के लिये स्वतंत्र हो गये। गहङवाल लेख चंद्रदेव के समय दिल्ली पर अधिकार का दावा करते हैं। तोमरों के साथ-2 गहङवालों को भी विग्रहराज चतुर्थ के हाथों पराजित होना पङा था। अब तोमर राज्य चाहमानों के अधीन एक सामंत राज्य बन गया था। विग्रहराज को अपने समकालीन चालुक्य तथा परमार राजाओं के विरुद्ध भी सफलता मिली। उसके पिता अर्णोराज को चालुक्य शासक कुमारपाल के हाथों पराजित होना पङा था।

अब तोमर राज्य चाहमानों के अधीन एक सामंत राज्य बन गया। विग्रहराज को अपने समकालीन चालुक्य तथा परमार राजाओं के विरुद्ध सफलता मिली। उसके पिता अर्णोराज को चालुक्य शासक कुमारपाल के हाथों पराजित होना पङा था। अतः इस कलंक को धोने के लिये विग्रहराज ने चालुक्यों के विरुद्ध संघर्ष छेङ दिया। उसने कुमारपाल को पराजित कर मेवाङ तथा मारवाङ पर अपना अधिकार कर लिया। नाडोल, चित्तौङ तथा जालौर पर भी उसने अपना अधिकार सुदृढ कर लिया। इन स्थानों में चालुक्यों के सामंत शासन कर रहे थे। चित्तौङ में सज्जन नामक सामंत था, जिसे विग्रहराज के आक्रमण में मार डाला गया। नाडोल पर आक्रमण कर उसने कुंतपाल को हराया तथा पूरे प्रदेश को रौंद डाला। जालौर को जला दिया तथा पल्लिका को तहस-नहस कर दिया। इसकी स्थिति मथुरा तथा भरतपुर के बीच बताई गयी है।

विग्रहराज के दिल्ली-शिवालिक लेख से पता चलता है, कि उसने तुर्क आक्रमणकारी से देश की रक्षा की थी। उसका समकालीन लाहौर का तुर्क शासक खुसरुशाह था, जिसने उसके राज्य पर आक्रमण किया। पता चलता है, कि तुर्क आक्रमणकारी बघेरा तक बढ आये थे। यह स्थान राजस्थान में अजमेर के समीप स्थित था। किन्तु विग्रहराज के भीषण प्रतिरोध के कारण उन्हें वापस लौटना पङा। ऐसा लगता है, कि उसने तुर्कों के कुछ प्रदेश भी जीत लिये।

बिजौलिया लेख में उल्लेखित हांसी ऐसा ही प्रदेश था,जहां भारत में मुस्लिम राज्य की बाहरी चौकी थी। ललितविग्रहराज नाटक में कहा गया है, कि विग्रहराज ने मित्रों, ब्राह्मणों,तीर्थों तथा देवालयों की रक्षा के निमित्त तुर्कों से युद्ध किया था।

दिल्ली लेख में कहा गया कि विग्रहराज ने म्लेच्छों (तुर्कों) का समूल नाश कर आर्यावर्त्त देश का नाम सार्थक किया।

विग्रहराज चतुर्थ का साम्राज्य विस्तार

विग्रहराज चतुर्थ के समय में चौहानों का काफी विस्तृत साम्राज्य था। इसमें सतलज तथा यमुना नदियों के बीच स्थित पंजाब का एक बङा भाग, उत्तर पूर्व में उत्तरी गंगा घाटी का एक भाग भी सम्मिलित था। इस प्रकार विग्रहराज उत्तर भारत का वास्तविक सार्वभौम सम्राट था, जिसने अपने वंश की प्रतिष्ठा को चरम सीमा पर पहुंचाया।

विग्रहराज चतुर्थ ने परमभट्टारक, परमेश्वर, महाराजाधिराज जैसी उपाधियां धारण की।

विग्रहराज चतुर्थ विद्वानों का आश्रयदाता के रूप में

जयानक नामक विद्वान विग्रहराज चतुर्थ को कविबान्धव कहता है, जिसके निधन से यह शब्द ही विलुप्त हो गया। सोमदेव ने उसे विद्वानों में सर्वप्रमुख कहा है। उसने हरिकेलि नामक नाटक की रचना की। इसकी कुछ पंक्तियां अजमेर स्थित ढाई दिन का झोपङा की सीढियों पर उत्कीर्ण हैं। यह नाटक भारवि के किरातार्जुनीयम के अनुकरण पर लिखा गया है।

विग्रहराज चतुर्थ स्वयं विद्वान होने के साथ – साथ विद्वानों का आश्रयदाता भी था, उसके दरबार में सोमदेव नामक विद्वान निवास करता था। सोमदेव ने ललितविग्रहराज नामक ग्रंथ लिखा। इसमें उसने अपने आश्रयदाता की प्रशंसा की है। इस नाटक की पंक्तियों को पाषाण खंडों पर उत्कीर्ण कराकर अजमेर के सरस्वती मंदिर में रखा गया था, जिसे कालांतर में तुर्क आक्रमणकारियों ने ध्वस्त कर दिया। वह कला और स्थापत्य को पोषक भी था। उसने अजमेर नगर को भव्य कलाकृतियों एवं स्मारकों से अलंकृत करवाया। इनमें सरस्वती मंदिर का निर्माण सबसे अधिक उल्लेखनीय है, जिसे भारतीय कला की अत्युत्कृष्ट रचनाओं में स्थान दिया गया है।

विग्रहराज चतुर्थ ने बीसलसर नामक झील का निर्माण करवाया था। इस झील को आधुनिक काल में विस्ल्या अथवा बिसलिया झील कहा जाता है। यह झील पुष्कर झील के समान है।

विग्रहराज चतुर्थ का धर्म

विग्रहराज चतुर्थ शैव धर्मावलंबी था। यह अन्य धर्मों के साथ भी सहिष्णु था।

विग्रहराज चतुर्थ इतिहास में बीसलदेव के नाम से प्रसिद्ध है।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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