प्राचीन इतिहास तथा संस्कृति के प्रमुख स्थल जोरवे
जोरवे महाराष्ट्र प्रान्त के अहमदनगर जिले में गोदावरी की सहायक नदी प्रवरा के बायें तट पर स्थित है। 1963 ई. में एच. डी. संकालिया ने यहाँ उत्खनन कार्य करवाया था जिसमें विभिन्न सांस्कृतिक स्तरों का उद्घाटन हुआ। यहाँ के उत्खनन से ताम्रपाषाणिक युग की एक ऐसी संस्कृति का पता चलता है जो महाराष्ट्र की अपनी संस्कृति है तथा जिसका विस्तार विदर्भ और कोंकण को छोड़कर समूचे महाराष्ट्र में दिखाई देता है। इसकी कालावधि ई. पू. 1400-700 निर्धारित की गयी है। इस संस्कृति के अन्य उत्खनित पुरास्थल है- नेवासा, दायमाबाद(अहमदनगर जिला), चन्दोली, सोनगाँव, इनामगाँव(पुणे), प्रकाश तथा नासिक। इसमें दक्षिण की नवपाषाणिक संस्कृति के तत्व भी मिलते है।
जोरवे संस्कृति मुख्यतः ग्रामीण थी लेकिन इसके कुछ स्थल दैमाबाद, इनामगाँव से नगरीकरण के साक्ष्य भी मिलते है। ये सभी नदी तट पर स्थित थे।
इस संस्कृति के लोग स्थायी रूप से मकान बनाकर गाँवों में निवास करते थे। मकान मिट्टी, गारे, घास-फूस तथा बल्लियों की सहायता से तैयार किये जाते थे। इनका स्वरूप वर्गाकार, वृत्ताकार अथवा आयाताकार मिलता है। इस संस्कृति की अपनी एक विशिष्ट पात्र परम्परा थी, यद्यपि इसमें अन्य पात्र-परम्पराओं को भी अपना लिया गया था। जोरवे परम्परा में लाल आधार पर काले डिजाइन के बर्तन चाक पर बनाये जाते थे। इनकी मिट्टी खूब गूंथी होती थी। बर्तनों को सावधानीपूर्वक तैयार किये गये आँवों में पकाया जाता था। इस संस्कृति का एक खास नमूना टोंटीदार तथा नौतली मृद्भाण्ड है। इसके अतिरिक्त गहरे कटोरे, तसले, मटकें, घड़े आदि भी मिलते है। किन्तु थालियाँ या तश्तरियाँ नहीं मिलती। बर्तनों की डिजाइन प्रायः ज्यामितीय है जिन्हे तिरछी समानान्तर रेखाओं द्वारा बनाया गया है। अनेक ताम्र उपकरण जैसे चूड़ियाँ, मनके, छेनी, सलाइयाँ, कुल्हाड़ी, छूरे आदि प्रमुख है।
दायमाबाद से ताँबे की बनी हुई चार आकृतियाँ –
- रथ हाकते हुए मनुष्य
- वृषभ
- गेंडा
- हाथी
जोरवे संस्कृति के लोग कृषि तथा पशुपालन करते थे। जौ, गेहूँ, मसूर, मटर, चावल आदि की खेती करते थे। बेर की गुठलियां भी मिली है। गाय-बैल, भैंस, भेंड़-बकरी, सुअर, घोड़ा आदि उनके पालतु पशु थे। लघु पाषाणोकरण भी बहुतायत से मिलते है। हल्के रत्नों के बने बहुसंख्यक मनके तथा माता देवी की अनेक रूपों में मिट्टी की मूर्तियाँ मिलती है।
जोरवे संस्कृति के लोग अपने मृतकों को अस्थि-कलश में रखकर घरों के फर्श के अन्दर गाड़ते थे। अस्थि-पज्जर घरों के फर्श के नीचे दफनाये हुए मिलते है। शवों को उत्तर-दक्षिण स्थिति में रखा जाता था। हड़प्पा लोगों की भांति अलग-2 समाधि-स्थल नहीं होते थे। आवास क्षेत्र के बाहर दफन की प्रथा नहीं थी। कब्रों में मिट्टी के बर्तन तथा ताँबे के कुछ उपकरण भी रखे जाते थे। यह किसी परलोक संबंधी विचार का सूचक है। बच्चों को अस्थि-कलश में दफनाया जाता था।
सिंधु घाटी सभ्यता का सामाजिक जीवन।
जोरवे के स्थलों से धूसर भाण्ड भी मिलते है जो दक्षिण की नवपाषाण परम्परा के हैं।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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