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नालंदा विश्वविद्यालय किसने बनवाया था

नालन्दा विश्‍वविद्यालय प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केन्द्र था। नालंदा विश्वविद्यालय बौद्ध धर्म का आक्सफोर्ड और काशी का प्रतिद्वन्द्वी था। मध्य युग में क्लूनी और क्लेयरवॉक्स की जो महत्ता फ्रांस में थी, वही महत्ता भारत में नालंदा की थी।

नालंदा विश्वविद्यालय कहाँ स्थित था

बिहार के नालन्दा जिले में एक नालन्दा विश्‍वविद्यालय था, जहां देश – विदेश के छात्र शिक्षा के लिए आते थे। आजकल इसके अवशेष दिखलाई देते हैं। पटना से 90 किलोमीटर दूर और बिहार शरीफ से करीब 12 किलोमीटर दक्षिण में, विश्व प्रसिद्ध प्राचीन बौद्ध विश्वविद्यालय, नालंदा के खण्डहर स्थित हैं। यहाँ 10,000 छात्रों को पढ़ाने के लिए 2,000 शिक्षक थे। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 7 वीं शताब्दी में यहाँ जीवन का महत्त्वपूर्ण एक वर्ष एक विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था। प्रसिद्ध ‘बौद्ध सारिपुत्र’ का जन्म यहीं पर हुआ था।

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इस विश्वविद्यालय के निर्माण के विषय में निश्चित जानकारी का अभाव है फिर भी गुप्त वंशी शासक कुमारगुप्त (414-455 ई.) ने इस बौद्ध संघ को पहला दान दिया था। ह्नेनसांग के अनुसार 470 ई. में गुप्त सम्राट नरसिंह गुप्त बालादित्य ने नालंदा में एक सुन्दर मन्दिर निर्मित करवाकर इसमें 80 फुट ऊंची तांबे की बुद्ध प्रतिमा को स्थापित करवाया।

उत्तर, कालीन गुप्त सम्राटों में से किसी एक शासक ने पाँचवी शता. में इसकी स्थापना की थी। भारत तथा समुद्र पार के भारतीय उपनिवेशों के धनी व्यक्तियों ने इसके लिये धन की व्यवस्था की। कालांतर में यह वस्तुतः अंतर्राष्ट्रीय ज्ञान मंदिर बन गया। भाग्यवश ह्वेनसांग तथा ईत्सिंग के विवरणों से तथा अभिलेखों और पुराविद्या से इस बौद्ध विश्वविद्यालय के विषय में बहुत सी जानकारियाँ प्राप्त होती हैं।

नालंदा विश्वविद्यालय के भवन

नालंदा विश्वविद्यालय के भव्य भवन थे। उसमें कम से कम 8 कॉलेज थे, जिन्हें 8 विद्यानुरागियों ने बनवाया था। इन 8 विद्यानुरागियों में श्रीविजय या सुमात्रा का राजा बालपुत्रदेव प्रमुख थे। इन कॉलेजों को पंक्तियों में बनवाया गया था। यशोवर्मा के नालंदा अभिलेख में इन भवनों की शोभा की प्रशंसा की गयी है। ह्वेनसांग बताता है, कि सारा विश्वविद्यालय क्षेत्र ईंटों की एक दीवार के अंदर था। एक द्वार महाविद्यालय में खुलता है, जो मध्य के 8 भवनों से अलग खङा है। अत्यधिक सुसज्जित मीनार और परियों की भांति चोटी वाली पहाङियों की तरह के स्तंभों को इकट्ठा बना दिया गया था। वेधशाला तो (धुंध में) छिपी हुई प्रतीत होती है और ऊपर वाले कमरे आकाश से भी ऊँचे हैं….. बाहर के भवन, जिनमें पुरोहितों के स्थान हैं, चार-चार मंजिलों के हैं। मंजिलों के बङे-2 प्रक्षेप हैं, रंगदार गुफाएँ हैं। मुलम्मेदार और अलंकृत लाल-मरिण जैसे स्तंभ हैं, अत्यधिक सुसज्जित चबूतरे हैं, और छतों में टाइलें लगी हैं, जिनमें से प्रकाश असंख्य रंगों में परावर्तित होता है।

नालंदा विश्वविद्यालय के केवल भव्य भवन ही नहीं थे, बल्कि विद्यार्थियों को अध्ययन के लिये सभी प्रकार की सुविधाएँ भी दी जाती थी। उसमें तीन बङे पुस्तकालय थे, रत्नसागर, रत्नोदधि और रत्नरंजक। वहाँ 10,000से भी अधिक विद्यार्थी थे और सभी प्रकार के अध्यापक भी थे। वे कोरिया, मंगोलिया, जापान, चीन, तिब्बत, लंका, तुखार, बृहत्तर भारत और स्वयं भारत के विभिन्न भागों से यहाँ आते थे। वास्तव में वे बौद्ध संसार के सभी भागों से आते थे। कोरिया के कई विद्वानों के नाम हमें पता हैं, जैसे – हुई-न्येह और आर्यवर्माहुई-न्येह की उपस्थिति की पुष्टि इस तथ्य से होती है, कि ई-त्सिंग ने एक हस्त-लिपि पर यह वाक्य पाया – नीम (दातुनवृक्ष) के नीचे बैठ कर हुई-न्येह ने यह विवरण लिखानालंदा में केवल बाहर से ही लोग नहीं आते, बौद्ध धर्म के प्रचार के लिये नालंदा के विद्वान विश्व के विभिन्न भागों में भी जाया करते थे। नालंदा के विद्वान संतरक्षित, पद्मसंभव, कमलशील, स्थिरमति और बुद्धकीर्ति तिब्बत गए थे। चीन में प्रचार करने वालों के नाम कुमारजीव, परमार्थ, सुभाकरसिंह और धर्मदेव थे।

नालंदा विश्वविद्यालय मुख्यतः बौद्ध विहार था। इसकी स्थापना बुद्ध की शिक्षा को फैलाने के लिये की गयी थी। इस रूप में उसने सहस्रों बौद्ध भिक्षुओं को रात-दिन बौद्ध धर्म का अध्ययन करने के लिये सुविधाएँ प्रदान की। उन व्यक्तियों के लिये नालंदा भगवान का मंदिर था। किन्तु नालंदा विश्वविद्यालय बौद्ध ज्ञान के विहार से भी बढ गया। समय के साथ-2 बौद्ध धर्म के अतिरिक्त अन्य विषय भी पढाए जाने लगे। बताया गया है, कि नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन के विषय वेद, तर्क विद्या, व्याकरण, चिकित्सा, चिकित्सा विज्ञान, सांख्य, योग-न्याय और बौद्ध धर्म की विभिन्न शाखाओं की पुस्तकें थी।

बौद्ध विहार किसे कहते हैं?

नालंदा विश्वविद्यालय के कुछ अत्यधिक प्रसिद्ध आचार्यों के नाम नागार्जुन, आर्यदेव, अंग, शीलभद्र, वसुबंधु, दिंगनाग, धर्मपाल, चंद्रपाल, प्रभामित्र, जिनमित्र, ज्ञानचंद्र आदि थे। बताया गया है, कि इनके अतिरिक्त कई सहस्र अन्य बंधु भी योग्यता और विद्वता के आगार थे, और उनमें से सैंकङों का अत्यधिक सम्मान किया जाता था और वे बहुत प्रसिद्ध थे। नालंदा में जीवन अति व्यस्त था। अध्ययन और वाद-विवाद में दिन बीत जाते थे। रात-दिन वे एक दूसरे को अपने-2 कर्त्तव्यों के बारे में सचेत करते रहते थे। बङे-छोटे सभी एक दूसरे की पूर्ण ज्ञान प्राप्ति में सहायता करते थे।

नालंदा विश्वविद्यालय का आदर्श था, ज्ञान प्राप्त करने की स्वतंत्रता

सभी ओर से, सभी संप्रदायों तथा सभी धर्मों के ज्ञान का स्वागत किया जाता था। यह यथार्थ में विश्वविद्यालय था। यह कोई साम्प्रदायिक या वर्गीय प्रमुख पाठशाला नहीं थी।

नालंदा विश्वविद्यालय में होने वाली गोष्ठियां तथा वाद – विवाद

नालंदा विश्वविद्यालय के आचार्य और शिक्षार्थी दर्शन की विभिन्न शाखाओं के पक्षपाती तथा अनुयायी थे। वाद-विवादों तथा गोष्ठियों में उनकी भेंट होती ही रहती थी। ह्वेनसांग ने इस प्रकार की कुछ गोष्ठियों का वर्णन किया है। एक बार जब शीलभद्र ने उसे योग-शास्र के कुछ भागों की व्याख्या करने के लिये भेजा तो एक अन्य विद्वान सिंहरश्मि एकदम विपरीत सिद्धांतों पर भाषण दे रहा था। ह्वेनसांग ने प्रश्नों से उसका मुँह बंद कर दिया।

वह अपमानित होकर विश्वविद्यालय छोङ कर गया के बोधि विहार में जाने को बाध्य हुआ। शीलभद्र पूर्वी भारत के चंद्रसिंह को ह्वेनसांग से वाद-विवाद करने के लिये नालंदा में लाया। किन्तु वह भी परास्त हो गया। एक लोकायत दार्शनिक ने चालीस सिद्धांत लिख कर नालंदा विहार के द्वार पर लटका दिया। उसने यह सूचना भी लगा दी – यदि अंदर से कोई व्यक्ति इन सिद्धांत को गलत सिद्ध कर दे तो उसकी विजय के प्रमाणस्वरूप मैं उसे अपना सिर दूँगा। ह्वेनसांग ने चुनौती स्वीकार कर ली और उस दार्शनिक को परास्त किया। किन्तु ह्वेनसांग ने उसका जीवन नहीं लिया और उसे शिष्य बना लिया।

नालंदा विश्वविद्यालय एक स्नातकोत्तर संस्था के रूप में

नालंदा विश्वविद्यालय साधारण विश्वविद्यालय नहीं था। यह स्नातकोत्तर संस्था थी। और इसमें प्रवेश प्राप्त करना अत्यंत कठिन था। प्रवेश से पहले एक परीक्षी ली जाती थी। उसमें केवल 20 प्रतिशत शिक्षार्थी ही उत्तीर्ण होते थे,और शेष 80प्रतिशत फैल हो जाते थे। केवल योग्यतम व्यक्तियों को ही प्रवेश करने की अनुमति दी जाती थी। ह्वेनसांग बताता है, कि अपने ज्ञान को पूर्ण करने के लिये लोग इस विश्वविद्यालय में आते थे। ह्वेनसांग ने लिखा है, – विभिन्न नगरों से विवाद में शीघ्र ख्याति प्राप्त करने के इच्छुक पुरुष अधिक संख्या में यहाँ आते हैं।

नालंदा से मिली मुहरें

नालंदा से कई मुहरें प्राप्त हुई हैं, जिन पर यह लेख अंकित हैः श्रीनालंदा-महाविहार-आर्य-भिक्षु-संघस्य, अर्थात् प्रतिष्ठित नालंदा विश्वविद्यालय की संचालक परिषद् का। अधिकांश मुहरों पर धर्मचक्र अंकित है। एक कॉलेज या विहार की मुहर भी प्राप्त हुई, जिस पर यह लेख अंकित है, श्री -नालंदा-महाविहार-गुणकार-बुद्ध-भुक्षुणाम्। प्रतीत होता है कि नालंदा विश्वविद्यालय को बहुत मान और अधिकार दिया जाता था।

नालंदा विश्वविद्यालय के निर्वाह के लिये बहुत सी संपत्ति दान में दी जाती थी। इसके अपने धान्य खेत थे और दूध के लिये दुग्ध-शालाएँ थी। ह्वेनसांग बताता है, कि उसने प्रतिदिन इसकी खेती से छकङों में भर कर आते हुए, साधारण चावल के सैकङों पैकल और दुग्ध-शालाओं से मक्खन तथा दूध के सैकङों कोट्टी आते हुए देखे। (एक पैकल लगभग डेढ मन और एक कोट्टी लगभग दो मन के बराबर है।)

नालंदा विश्वविद्यालय निगमित संस्था के रूप में कार्य करता था। उससे संबंधित कॉलेज या विहार भी उसी प्रकार कार्य करते थे।

नालंदा विश्वविद्यालय ईत्सिंग की यात्रा के पश्चात् भी पाँच शतियों तक उन्नति करता रहा। नालंदा विश्वविद्यालय के पतन का इतिहास एक प्रकार से भारत में बौद्ध धर्म के पतन का इतिहास है।

References :
1. पुस्तक - प्राचीन भारत का इतिहास, लेखक -  वी.डी.महाजन

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