दिल्ली सल्तनत की प्रशासनिक प्रणाली
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पृष्ठभूमि-
मुस्लिम राज्य सैद्धांतिक रूप से धर्मावलंबी या धर्म प्रधान राज्य था।खलीफा पूरे मुस्लिम जगत का सर्वोच्च प्रधान होता था। सुल्तान की उपाधि तुर्की शासकों द्वारा प्रारंभ की गई। महमूद गजनवी पहला शासक था जिसने सुल्तान की उपाधि धारण की। उसे यह उपाधि बगदाद के खलीफा से प्राप्त हुई थी। खिज्र खाँ को छोङकर दिल्ली सल्तनत के सभी तुर्की शासकों ने सुल्तान की उपाधि धारण की।खिज्र खाँ ने यह उपाधि महमूद गजनवी से प्राप्त की थी। दिल्ली सुल्तानों में अधिकांश ने अपने को खलीफा का नायब पुकारा परन्तु कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी ने स्वयं को खलीफा घोषित किया। खिज्र खाँ ने तैमूर के पुत्र शाहरुख का प्रभुत्व स्वीकार किया और रैयत -ए -आला की उपाधि धारण की। असके पुत्र और उत्तराधिकारी मुबारकशाह ने इस प्रथा को समाप्त किया और शाह ने सुल्तान की उपाधि ग्रहण की।
उत्तराधिकार –
मुस्लिम शासकों में उत्तराधिकार का कोई निश्चित सिद्धांत नहीं था। इल्तुतमिश पहला सुल्तान था , जिसने सल्तनत की सरकार में वंशानुगत शासन का सिद्धांत लागू किया। उसने अपनी पुत्री रजिया को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया।
खिलजी क्रांति(1290ई.) से बलबनी वंश का अंत हुआ, जिसका ऐतिहासिक महत्व है। इस क्रांति से शक्ति का हस्तांतरण एक सजातीय वर्ग से विषम वर्ग (भारतीय मुस्लाम) के पास हो गया।
गयासुद्दीन तुगलक के सुल्तान बनने में कुलीन तंत्रीय आधार ( जनजातीय एकाधिकार ) पर शासन करने का प्रचलन समाप्त हो गया। तुगलक कोई जनजातीय नाम नहीं था, बल्कि व्यक्तिगत नाम था।
खिज्र खाँ ने सरदारों द्वारा चुने गये दोलत खाँ लोदी को हराकर स्वयं सत्ता हथिया ली तथा सैयद वंश की नींव डाली। बहलोल लोदी के सुल्तान बनते ही कुलीन तंत्रीय शासन (जातीय एकाधिकार ) फिर से आरंभ हुआ। लोदी शासकों के शासन काल में राजनीतिक पदों का ही नहीं अपितु सेना का भी अफगानीकरण कर दिया गया।
राजत्व का सिद्धांत – इल्तुतमिश के शासनकाल के दौरान सुल्तान की स्थिति कुलीन सरदारों से बहुत ऊपर नहीं थी। वह महान तुर्की अमीरों को अपने समकक्ष समझता था तथा सिंहासन पर बैठने में संकोच करता था।
बलबन ने इस प्रथा की खामियों को समझ लिया तथा इसे दूर करने को दृढ संकल्प लिया। उसने राजत्व को अमीर वर्ग से ऊपर रखा। इसने अपने पुत्र बुगरा खाँ से कहा था राजा देवत्व का अंश होता है उसकी समानता कोई भी मनुष्य नहीं कर सकता।
अलाउद्दीन खिलजी ने भी सुल्तान पद की गरिमा को सदा सर्वोपरि रखा तथा उसके लिए सिकंदर ए सानी जैसी उपाधियाँ धारण की।इसने काजी मुगीसुद्दीन से कहा था वह ऐसे आदेश जारी करता है जिन्हें वह राज्य के लिए उपयोगी तथा परिस्थिति के अनुसार विवेकपूर्ण समझता है। वह यह नहीं पूछता कि क्या शरीयत में उनकी अनुमति है अथवा नहीं।
अलाउद्दीन की भाँति मुहम्मद बिन तुगलक भी शासन में किसी वर्ग या व्यक्ति का हस्तक्षेप पसंद नहीं करता था। प्रारंभ में न तो उसने अपने सुल्तान पद के लिए खलीफा से स्वीकृति ली और न ही अपने सिक्कों पर खलीफा का नाम अंकित करवाया। न्याय विभाग पर उलेमा वर्ग के आधिपत्य को मुहम्मद बिन तुगलक ने खत्म किया तथा योग्यता के आधार पर पद बांटे । अपनी हिन्दू प्रजा के साथ उसका व्यवहार सहिष्णुतापूर्ण था।
फिरोज तुगलक ने हर कार्य उलेमा वर्ग की मर्जी तथा शरीयत के अनुसार किया और इस प्रकार सुल्तान के पद की गरिमा को ठेस पहुंचाई।
लोदीयों के शासनकाल में राजत्व सिद्धांत सरदारों की समानता पर आधारित थी और ऐसी स्थिति में उनकी शासन व्यवस्था राजतंत्रीय न होकर कुलीन तंत्रीय थी।
बहलोल लोदी द्वारा अफगान अमीरों को दी गई रियायतों से शाही ताज की गरिमा पतनोन्मुख हो गई तथा राजतंत्र की प्रतिष्ठा घटकर उच्च वर्ग के समतुल्य हो गई।
केन्द्रीय प्रशासन-
- सुल्तान- सुल्तान प्रशासन, न्याय, सेना का सर्वोच्च अधिकारी था। औपचारिक रूप से सुल्तान खलीफा का नायब या उसके अधीन था। वास्तविक रूप से वह अपने क्षेत्र का संप्रभु शासक था। तथा संप्रभुता के लिये सुल्तान द्वारा सिक्के चलाना, खुत्बा पढाना जैसे कार्य किए जाते थे। सुल्तान निरंकुश शासक होता था, लेकिन उसकी निरंकुशता पर अमीर, उलेमा व शरीयत का नियंत्रण होता था।
- सल्तनत कालीन राज्य इस्लामी राज्य नहीं था, सुल्तानों द्वारा शरीयत को सैधांतिक रूप से राज्य का आधार घोषित किया गया, परंतु आवश्यकता पङने पर सुल्तानों ने शरीयत का उल्लंघन भी किया तथा धर्म निरपेक्ष कानून बनाये ऐसे कानून जवाबित कहलाते थे।
Note : अपवादस्वरूप फिरोज तुगलक ने शरीयत के कानूनों को छोङकर सभी कानूनों का उल्लंघन किया था।
तुर्की राज्य द्वारा अलग-2 क्षेत्रों से अलग-2 शासन पद्दतियाँ ग्रहण की गई।जैसे-
- प्रशासन- तुर्की फारसी परंपरा से प्रभावित
- सैन्य परंपरा- तुर्की मंगोल परंपरा से प्रभावित
- राजस्व व्यवस्था- फारसी ( ईरानी ) परंपरा से प्रभावित
- ग्रामीण प्रशासन – भारतीय परंपरा से प्रभावित
Note : केन्द्रीय प्रशासन में कुछ संस्थायें, 4 विभाग व अनेक सहायक विभाग व अधिकारी सुल्तान की सहायता करते हैं। इनका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
संस्थायें-
सल्तनत काल में प्रशासन को चलाने में कई संस्थायें भी सहायक होती थी जो निम्नलिखित हैं-
- बर्र-ए-खास- इस संस्था में महत्त्वपूर्ण अमीर सुल्तान को प्रशासनिक सहायता देते हैं।
- बर्र – ए- आम- इसमें सुल्तान न्याय का कार्य सर्वोच्च न्यायाधिकारी के रूप में करता है।
- मजलिस-ए-खल्बत- इस संस्था में महत्त्वपूर्ण विद्वान, सुल्तान के मित्र, वफादार नियुक्त किये जाते हैं।
4 विभाग-
- दीवान-ए-विजारत ( वित्त विभाग ) – वजीर इस संस्था का प्रमुख होता था। इसके कार्य इस प्रकार थे- (i)राज्य की आय एवं व्यय पर नियंत्रण रखना (ii) आय-व्यय के खाते ( लेखा ) रखना। (iii) अधिकारियों को वेतन एवं इक्ता बाँटना इस विभाग के अधीन अधिकारी एवं अन्य विभाग- (i) नायब वजीर- इसका अपना पृथक रूप से विभाग होता था। (ii)मुशरिफ-ए-मुमालिक – इसे महालेखाकार भी कहा जाता था। (iii) मुस्तईफ-ए-मुमालिक/ मुस्तौफी-ए-मुमालिक- इसे खातों को देखने वाला भी कहा जाता था। अर्थात् लेखा परीक्षक। (iv)खजीन – यह खजांची कहलाता था। तथा कोषाध्यक्ष के नाम से भी इसे जाना जाता था। (v) दीवान-ए-वफूफ – यह अधिकारी जलालुद्दीन खिलजी के समय था । इसे व्यय के कागजातों की जाँच करनी होती थी। (vi) दीवाने -रियासत- यह विभाग अलाउद्दीन खिलजी के समय में था। इसका काम बाजार नियंत्रण प्रणाली की देखभाल करना था। (vii)दीवाने मुस्तखराज – यह विभाग भी अलाउद्दीन के समय में ही था। इसका कार्य राजकीय कर्मचारियों से सरकारी देनदारी वसूल करना था। (राजकोष से लिया गया धन जो समय पर नहीं दे पाते थे। ) (viii)दीवाने -अमीर-कोही – यह मुहम्मद बिन तुगलक के समय में था तथा इस विभाग का कार्य कृषि क्षेत्र में सुधार करना था। (ix) वजीर का पद- वजीर का पद फिरोज तुगलक के समय सर्वाधिक महत्व प्राप्त करता है।क्योंकि फिरोज तुगलक ने प्रशासन में सहायता के लिये वर्तमान वजीर के अलावा भूतपूर्व वजीरों से भी सलाह ली।
Note : अल मावर्दी ने वजीरों की दो श्रेणियाँ बताई हैं- वजीर कफबीद ( असीमित शक्तिधारक वजीर ) और वजीर तनफीज ( सामान्य वजीर )
2.) दीवाने -आरिज (अर्ज)- यह सैन्य विभाग होता था। इसका प्रारंभ करने का श्रेय बलबन को जाता है। इस विभाग का प्रमुख आरिज-ए-मुमालिक होता था।इस विभाग के कार्य इस प्रकार थे- सैनिकों की नियुक्ति, प्रशिक्षण, दाग-हुलिया प्रथा लागू करना तथा सैनिकों की आवश्यकताओं की पूर्ति करना। वैसे तो सेना का सर्वोच्च सेनापति सुल्तान होता था तथा युद्ध का नेतृत्व सुल्तान करता था। लेकिन कई बार सुल्तान नेतृत्व आरिज-ए-मुमालिक या अन्य अमीर को सौंप देता था। सल्तनत काल में सेना में – सुल्तान की सेना (इल्तुतमिश के समय से प्रारंभ) जो हश्म-ए-कल्ब कहलाती थी, वो तथा अमीरों की सेना शामिल होती थी।
पहली बार अलाउद्दीन खिलजी ने सुल्तान के अधीन एक बङी सेना रखी और उसे नकद वेतन दिया। अलाउद्दीन के समय एक घुङसवार सैनिक को 234 टंका वार्षिक मिलता था। अतिरिक्त घोङा रखने पर 78 टंका अतिरिक्त मिलता था।
इल्तुतमिश के समय अस्थाई सेना (हश्न-ए-कल्ब) तथा इस विभाग को रवात-ए-आरिज कहा गया।
बलबन ने सबसे पहली बार स्थाई सेना स्थापित करी थी।
सल्तनत कालीन सैन्य व्यवस्था मंगोलों की दशमलव प्रणाली पर आधारित थी। जो निम्नलिखित थी-
3. दीवाने इंशा- यह पत्राचार विभाग होता था। इसका प्रमुख दबीर-ए- मुमालिक होता था। इस विभाग का कार्य दरबारी कार्यों का लेखन करना, सुल्तान के फरमान ( आदेश ) अमीरों, जनता या फिर किसी अन्य शासक तक पहुंचाना होता था।इन सब कार्यों के अलावा इस विभाग का कार्य गुप्तचर, डाक चौकी आदि को देखना भी होता था।
दीवाने-बरीद (गुप्तचर विभाग ) तथा वाकियानवीस (संदेशवाहक) इस विभाग के अधीन होते थे।
4. दीवान-ए-रियालत (धार्मिक विभाग) – इसका प्रमुख सद्र-उस-सुदूर होता था। इस विभाग का कार्य सुल्तान को धार्मिक परामर्श देना।, शरीयत के कानूनों की पालना करवाना होता था।, धार्मिक अनुदान ( वक्फ, इनाम, मिल्क, इदरार आदि) प्रदान करना।
शरीयत के अाधार पर न्याय करना, काजियों की नियुक्ति करना भी इस विभाग के ही कार्य होते थे।
जब सद्र-उस-सुदूर मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्य करता था तो उसे काजी-उल-कुजात कहते थे।
कुछ इतिहासकार जैसे हबीबुल्ला, कुरैशी इस विभाग को विदेशी विभाग मानते हैं। जबकि अन्य इतिहासकार इस विभाग को धार्मिक विभाग मानते हैं।
अन्य अधिकारी-
- वकील-ए-दर- शाही आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला तथा कारखानों का प्रमुख।
- सर-ए-जानदार- सुल्तानों के अंगरक्षकों का प्रमुख।
- अमीर – ए- हाजिब- दरबारी शिष्टाचार से संबंधित अधिकारी
- कोतवाल- नगरों का प्रमुख
- अमीर-ए-बहरी- नौसेना का प्रमुख
- अमीर-ए-आखूर- शाही घुङसाला का प्रमुख
- शहना-ए-पील- शाही हाथियों का प्रमुख
- तलैया/यस्की- सैन्य गुप्तचर
- मुतसदी- बंदरगाह का प्रमुख
- मुहतसिब- शरीयत के कानूनों की पालना, जनता के आचरण पर निगरानी रखने वाला अधिकारी।
Reference : https://www.indiaolddays.com/