इतिहासदक्षिण भारतप्राचीन भारतबादामी का चालुक्य वंश

विक्रमादित्य द्वितीय और पल्लव-चालुक्य संघर्ष

विक्रमादित्य(733-747ई.) चालुक्य शासक विजयादित्य का पुत्र था। विक्रमादित्य द्वितीय के शासन के प्रथम वर्ष में अरबों के दक्षिण भारत पर आक्रमण हुए।इस आक्रमण का उल्लेख चालुक्य लेखों में तो नहीं मिलता, किन्तु लाट प्रदेश के विक्रमादित्य के सामंत पुलकेशिन के नौसारी दानपत्र (739 ई.) में इससे संबंधित सूचनायें मिलती हैं। इसके अनुसार सैन्धव, कच्चेल, सौराष्ट्र, चावोटक, मौर्य तथा गुर्जर राजाओं को ध्वस्त करने वाले अरबों ने दक्षिण विजय की इच्छा से नौसारी पर अधिकार करने का प्रयास किया, किन्तु पुलकेशिन ने न केवल उन्हें पराजित कर गुर्जर देश से बाहर कर भगाया अपितु उनके कुछ प्रदेशों को जीतकर चालुक्य राज्य में मिला लिया। संभवतः अरबों के विरुद्ध इस अभियान में विक्रमादित्य ने अपने सामंत की भरपूर सहायता की होगी। इस प्रकार उसने बङी बुद्धिमानी के साथ अपनी उत्तरी सीमाओं को सुरक्षित किया। उस पर प्रसन्न होकर विक्रमादित्य ने उसे अवनिजनाश्रय की उपाधि से विभूषित किया।

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पल्लव-चालुक्य संघर्ष

अरबों के आक्रमण का सफल प्रतिरोध करने के बाद उसका कांची के पल्लवों के साथ संघर्ष प्रारंभ हुआ। नरवण, केन्दूर तथा पट्टडकल के लेखों में इस आक्रमण का उल्लेख प्राप्त होता है। पता चलता है, कि विक्रमादित्य ने तुंडाक प्रदेश से होते हुये कांची पर आक्रमण किया था।

पुलकेशिन द्वितीय के समय में पल्लव-चालुक्य संघर्ष

विक्रमादित्य प्रथम के समय में पल्लव-चालुक्य संघर्ष

पल्लव राजा नंदिपोतवर्मा पराजित हुआ तथा वह युद्ध क्षेत्र से भाग गया।विक्रमादित्य ने उसके समुद्रघोष, कुटुमुखवादिर तथा खट्वांगध्वज जैसे रणवाद्य यंत्रों, युद्ध के अनेक उत्तम हाथी और मनों रत्नों को उससे छीन लिया था। विजेता के रूप में उसने कांची में प्रवेश किया। किन्तु उसने कांची को कोई हानि नहीं पहुंचायी अपितु दीन दुखियों एवं ब्राह्मणों को बहुत अधिक दान दिया। उसने वहाँ स्थित राजसिंहेश्वर तथा अन्य मंदिरों का वापस कर दिया। कांची के राजसिंहेश्वर मंदिर से चालुक्य नरेश विक्रमादित्य का एक अभिलेख मिला है, जो वहां उसके अधिकार की पुष्टि करता है। इस लेख में वर्णन मिलता है, कि विक्रमादित्य ने कांची पर बिना उसे हानि पहुँचायें अधिकार कर लिया तथा मंदिर की संपत्ति को देखकर वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ। किन्तु उसने उसे पुनः देवता को वापस कर दिया। अपनी इस विजय द्वारा विक्रमादित्य ने पल्लव नरेश नरसिंहवर्मा प्रथम द्वारा की गयी वातापी विजय का बदला ले लिया। जिस प्रकार नरसिंहवर्मा ने वातापीकोंड की उपाधि ग्रहण की थी, उसी प्रकार विक्रमादित्य ने भी कांचीकोंड की उपाधि धारण की। उसके द्वारा पराजित पल्लव शासक नन्दिवर्मा द्वितीय था। विक्रमादित्य का पल्लवों पर यह दूसरा आक्रमण था। इसके पूर्व अपने पिता के शासन काल में ही वह कांची पर एक आक्रमण कर चुका था। उसके बाद विक्रमादित्य ने चोल, केरल, कलभ्र आदि को पराजित किया तथा दक्षिणी समुद्रतट के किनारे अपना एक विजय-स्तंभ स्थापित किया।

विक्रमादित्य द्वितीय के शासन काल के अंतिम वर्षों में उसके पुत्र कीर्त्तिवर्मा द्वितीय के नेतृत्व में पल्लवों के विरुद्ध एक दूसरा सैनिक अभियान किया गया। बताया गया है, कि पल्लव नरेश उसके आमने-सामने युद्ध करने का साहस नहीं कर सका तथा उसने भागकर किले में शरण ली। किन्तु कीर्त्तिवर्मा ने किले को चारों ओर से घेर लिया। पल्लव नरेश ने डरकर आत्मसमर्पण कर दिया तथा कीर्त्तिवर्मा अपने साथ लूट का बहुत अधिक धन, हाथी, रत्न आदि लेकर अपनी राजधानी वापस लौट आया। यह आक्रमण एक धावा मात्र था। इस प्रकार विक्रमादित्य ने तीन बार पल्लवों को नतमस्तक किया। यही कारण है, कि उसकी रानी लोकमहादेवी के पत्तडकल लेख में उसके द्वारा कांची को तीन बार रौंदने का उल्लेख किया गया है।

इस प्रकार विक्रमादित्य द्वितीय महान शक्तिशाली सम्राट सिद्ध हुआ। विजयों के अलावा निर्माण कार्यों में भी उसकी रुचि थी। उसकी दो महारानियां थी- लोकमहादेवी तथा त्रलोक्य महादेवी। ये दोनों ही सगी बहनें और हैहय (कलचुरी) वंश की कन्यायें थी। इन्होंने भी मंदिरों का निर्माण करवाया। लोकमहादेवी जो अग्रमहिषी थी, ने लोकेश्वर के विशाल पाषाण मंदिर का निर्माण करवाया था। इसी को विरुपाक्ष कहा जाता है। त्रैलोक्य महादेवी ने त्रैलोकेश्वर नाम से विशाल पाषाण मंदिर बनवाया था। इनके अलावा विक्रमादित्य के समय में अन्य कई निर्माण कार्य किये गये। उसने मंदिरों तथा ब्राह्मणों को भूमि और धन दान में दिये। उसमें धर्मान्धता अथवा कट्टरता नहीं थी। उसने बल्लभ, दुर्जय, महाराजाधिराज, श्रीपृथ्वीवल्लभ, परमेश्वर जैसी महान उपाधियां ग्रहण की थी।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
2. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास, लेखक-  वी.डी.महाजन 

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