चोल काल में न्याय व्यवस्था कैसी थी
चोल साम्राज्य में न्याय के लिये नियमित न्यायालयों का गठन किया गया था। लेखों में धर्मासन तथा धर्मासन-भट्ट का उल्लेख मिलता है। धर्मासन से तात्पर्य सम्राट के न्यायालय से है। न्यायालय के पंडितों को धर्मभट्ट कहा गया है, जिसके परामर्श से विवादों का निर्णय किया जाता था। दीवानी तथा फौजदारी का अंतर बहुत अधिक स्पष्ट नहीं है। अपराधों में सामान्यतः जुर्माने होते थे। नरवध तथा हत्या के लिये व्यवस्था थी, कि अपराधी पङोस के मंदिर में अखंडद्वीप जलवाने का प्रबंध करें। यह एक प्रकार का प्रायश्चित था। किन्तु मृत्युदंड दिये जाने के भी उदाहरण प्राप्त होते हैं। राजद्रोह भयंकर अपराध था, जो स्वयं राजा द्वारा देखा जाता था। इसमें अपराधी को मृत्युदंड के साथ ही साथ उसकी संपत्ति भी जब्त कर ली जाती थी।
तेरहवीं शती के चीनी लेखक चाऊ-जू-कूआ चोल दंड-व्यवस्था का इस प्रकार विवरण प्रस्तुत करते हैं – जब प्रजा में कोई व्यक्ति अपराध करता है, तो राजा का कोई मंत्री उसे दंड देता है। सामान्य अपराध होने पर अपराधी का सिर काट दिया जाता अथवा हाथी के पैर तले कुचलवा दिया जाता है। कभी-कभी लोगों को आत्मदाह द्वारा स्वामित्त्व सिद्ध करना पङता था। अग्नि तथा जल द्वारा दीव्य परीक्षाओं का भी विधान था। गवाहियाँ भी ली जाती थी। पशुओं की चोरी के अपराध में व्यक्ति की संपत्ति जब्त कर मंदिर को दिये जाने के उदाहरण मलते हैं। इस प्रकार चोल न्याय-प्रशासन सुसंगठित एवं निष्पक्ष था।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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