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चीन और जापान में राष्ट्रवाद का उदय

चीन और जापान में राष्ट्रवाद का उदय (The Rise of Nationalism in China and Japan)

चीन और जापान में राष्ट्रवाद का उदय – चीन का विश्व की महान सभ्यताओं में सर्वोपरि स्थान है। जब यूरोपीय राज्यों ने एशिया तथा अफ्रीका के विभिन्न देशों में अपने उपनिवेश स्थापित कर लिए थे। तब भी चीन ने अपने द्वार पश्चिम के लिए बंद ही रखे। प्रथम अफीम युद्ध (1839-42ई.) तथा द्वितीय अफीम युद्ध (1856-60ई.) के बाद नानकिंग तथा टिन्टिसिन की संधियों द्वारा चीन को अपने द्वार खोलने के लिए बाध्य होना पङा। चीन का पङोसी राज्य जापान भी चीन में साम्राज्य स्थापना के लिए लालायित हो उठा। 19 वीं सदी के अंत तक चीन में जापान सहित यूरोपीय राज्यों ने अपने प्रभाव क्षेत्र स्थापित कर लिये थे। चीन का गौरव, सम्मान तथा स्वाभिमान नष्ट हो चुका था।

चीन में इस समय मंचू शासकों का शासन था। चीन गंभीर राजनीतिक सामाजिक संकटों का सामना कर रहा था। विदेशी शक्तियों ने इसका पूरा लाभ उठाया। 1894-95 ई. में जापान ने चीन को पराजित कर फारमोसा (ताईवान) छीन लिया। विदेशी प्रभुत्व से असंतुष्ट चीनीयों को इस पराजय ने झकझोर कर रख दिया। विदेशियों के विरुद्ध 1898-1900 ई. में प्रसिद्ध बॉक्सर विद्रोह हुआ। इस विद्रोह को चीनी शासन का प्रोत्साहन था। विदेशी शक्तियों ने सम्मिलित प्रयास द्वारा विद्रोह कुचल दिया। चीनी साम्राज्ञी को भारी मुआवजा चुकाना पङा।

मंचू शासक तथा साम्राज्ञी यह समझ गए कि जब तक चीन में सुधार करके उसे शक्तिशाली राष्ट्र नहीं बनाए जाएगा, तब तक विदेशी लूट खसोट को रोकना संभव नहीं है। चीनी जनता प्रारंभ से ही सुधारों की मांग कर रही थी। 1905 ई. में एक दल विदेशों के संविधान के अध्ययन हेतु भेजा गया। इसके परामर्श के अनुसार 1909 ई. में चुनाव कराए गए। केन्द्रीय विधान सभा का गठन किया गया। मंत्रीपरिषद राजा के प्रति उत्तरदायी थी। न्याय विभाग को प्रशासन से अलग किया गया। जापानी पद्धति पर शिक्षा विभाग का गठन किया गया। 1906 ई. में अफीम पर प्रतिबंध लगाया गया।

1911 ई. की क्रांति

चीनी जनता सुधारों की मंदगति से असंतुष्ट थी। विदेशी आधिपत्य एवं शोषण से चीन को मुक्ति अभी तक नहीं मिली थी। आधुनिक शिक्षा पद्धति के कारण चीन का युवा वर्ग पाश्चात्य विचारों से ओत प्रोत हो चुका था। यह वर्ग अपने देश में आर्थिक प्रगति तथा शासन सुधार का पक्षधर था। चीनी देशभक्तों ने इस उद्देश्य के लिए गुप्त क्रांतिकारी संगठन स्थापित कर लिए थे। यह संगठन पत्र पत्रिकाओं के प्रकाशन द्वारा जन जागरण का कार्य कर रहे थे। इस समय तक बङी संख्या में चीनी पश्चिमी देशों में बस चुके थे। ये प्रवासी चीनी क्रांतिकारी विचारों के वाहक बन चुके थे।

इन परिस्थितियों में चीनी जनता को डॉ. सन-यात-सेन का नेतृत्व प्राप्त हुआ। विदेशों में शिक्षित डॉ.सेन-यात-सेन ने थुंग-मेंग-हुई नामक संगठन स्थापित किया तथा इसके द्वारा जन जागरण तथा विदेशियों को निकालने का प्रयत्न प्रारंभ किया। 1911 ई. की क्रांति का प्रारंभ हांको की रूसी बस्ती में बम फटने की घठना से हुआ। इसके बाद क्रांति विभिन्न प्रांतों में फैल गई।

क्रांति पर नियंत्रण पाने में असफल मंचू शासन ने युआन-शीह-काई को हुनांन का गवर्नर नियुक्त किया। बाद में उसे सेना का अध्यक्ष तथा प्रधानमंत्री भी नियुक्त किया। 24 दिसंबर, 1911 ई. को डॉ.सन-यात-सेन चीन आ गया। 29 दिसंबर को क्रांतिकारियों ने डॉ. सेन को अपना नेता चुन लिया। डॉ. सेन ने नानकिंग में गणतंत्रीय सरकार का गठन कर लिया। 12 फरवरी, 1912 ई. को डॉ. सेन तथा युआन-शीह-काई में समझौता हो गया। इसके अनुसार चीन में राजतंत्र समाप्त कर गणतंत्र स्थापित किया गया। युआन-शीह-काई को राष्ट्रपति चुन लिया गया।

कोमिंतांग की स्थापना

1911 ई. की क्रांति से पूर्व चीन में राजनीतिक संगठनों की गतिविधियों पर प्रतिबंध था। इसलिए डॉ. सेन के संगठन थुंग-मेंग-हुई की गतिविधियां गुप्त रूप से चलती थी। अब इस दल ने अपना कार्य स्वतंत्र रूप से करना आरंभ कर दिया। किन्तु युआन-शीह-कार्य ने जल्दी ही निरंकुश आचरण आरंभ कर दिया। डॉ. सेन ने अगस्त 1912 ई. में थुंग-मेंग-हुई तथा अन्य दलों को मिला कर कोमिन्तांग की स्थापना की। 1913 ई. में युआन-शीह-काई अधिनायक बन गया। उसने कोमिंतांग पर प्रतिबंध लगा दिया। कोमिंतांग के विरुद्ध दमन चक्र चालाया गया।

1915 ई. में युआन ने स्वयं को सम्राट घोषित कर दिया। 1916 ई. में युआन की मृत्यु हो गयी। उसके मरते ही चीन में अराजकता उत्पन्न हो गयी। इसका लाभ उठाकर डॉ.सेन ने कैण्टन में गणतंत्रीय सरकार की स्थापना कर ली। पीकिंग में तुआन-शी-जुई की सरकार स्थापित हो गयी। इस प्रकार चीन में दो सरकारों का शासन अलग-अलग क्षेत्रों में चलने लगा।

प्रथम विश्व युद्ध एवं चीन

चीन ने विश्वयुद्ध में मित्र राष्ट्रों की ओर से युद्ध में भाग लिया। उसे पेरिस शांति सम्मेलन में स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में आमंत्रित किया गया। लेकिन चीनी प्रतिनिधि मंडल के आग्रह के बाद भी चीन स्थित जर्मनी उपनिवेश शातुंग जापान को दे दिया गया। इससे चीनी जनता का असंतोष मुखर हो उठा। इस असंतोष को कोमिन्तांग ने साकार रूप प्रदान किया।

बोल्शेविक क्रांति तथा चीन

1917 ई. में रूस में बोल्शेविक क्रांति के फलस्वरूप साम्यवादी सरकार स्थापित हुई। रूस की सरकार ने 1919 ई. में रूस अधिकृत सभी चीनी क्षेत्र चीन को लौटा देने, चीनी पूर्वी रेलवे का प्रबंध चीन को देने, बॉक्सर विद्रोह के समय चीन पर लगाये हर्जाने की राशि छोङने तथा चीन के साथ समानता के व्यवहार की घोषणा की। इससे चीन का एक वर्ग यह मानने लगा कि साम्यवादी विचारधारा में राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक प्रगति निहित है। 1919 ई. में चीनी साम्यवादी दल की स्थापना की गयी।

कोमिन्तांग तथा सोवियत मैत्री

सोवियत संघ के साम्यवादी नेतृत्व का मानना था कि चीन की तात्कालिक समस्या राष्ट्रीय एकता तथा स्वतंत्रता है, सर्वहारा अधिनायकत्व की स्थापना नहीं। फलतः सोवियत संघ ने कोमिन्तांग को सहायता देना आरंभ कर दिया। कोमिन्तांग दल का गठन साम्यवादी दल की पद्धति पर किया गया। कोमिन्तांग सेना को सोवियत अधिकारी प्रशिक्षण देने लगे। डा. सन-यात-सेन ने पीकिंग सरकार से राष्ट्रीय एकता के लिए वार्ता आरंभ की, लेकिन 12, मार्च 1925 ई. को डा. सन-यात-सेन की मृत्यु हो गई।

च्यांग काई शेक

डा. सन-यात-सेन की मृत्यु के बाद कोमिन्तांग का नेतृत्व च्यांग-काई-शेक के हाथों में आ गया। च्यांग-काई-शेक ने चीन की राष्ट्रीय एकता के लिए सैनिक अभियान प्रारंभ किया। उसने शीघ्र ही विद्रोही प्रांतों पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। 1927 ई. में च्यांग ने मुंग-मेंग-लुंग से विवाह कर लिया। इस विवाह से उसका संबंध चीन के धनी घरानों से हो गया। च्यांग अब पूंजीवादी तत्वों के प्रभाव में आता चला गया।

माओ त्से तुंग

चीनी राजनीति का सबसे बङा चमत्कार माओ-त्से-तुंग का पर्दापण था। माओ पैकिंग विश्वविद्यालय का पुस्तकालयाध्यक्ष था। उसने 1919 ई. में कुंग-चान-तांग (चीनी साम्यवादी दल) की स्थापना की। माओ के नेतृत्व में साम्यवादियों ने मजदूरों तथा किसानों का संगठन प्रारंभ कर दिया। डा. सन-यात-सेन के मरते ही साम्यवादियों ने जमीदारों के सफाए का आंदोलन आरंभ कर दिया। साम्यवादी बैंकों तथा दुकानों पर कब्जा करने लगे। श्रम संगठन स्थापित करना आरंभ कर दिया। उन्होंने हुनान प्रांत में अपना शासन तंत्र स्थापित कर लिया। यही नहीं साम्यवादियों ने अपनी सेना भी गठित कर ली।

1927 ई. में च्यांग ने कोमिन्तांग पर वर्चस्व स्थापित करने हेतु शुद्धिकरण अभियान आरंभ किया। ऐसे सभी लोगों को दल से बाहर कर दिया, जिन पर साम्यवादी होने का संदेह था। लगभग दो लाख राजनैतिक विरोधी मौत के घाट उतार दिये गए।

1930 ई. में च्यांग-काई-शेक ने साम्यवादियों के सफाए का अभियान आरंभ कर दिया। 1934 ई. में कोमिन्तांग की सोवियत प्रशिक्षित सेना ने लाल सेना को बुरी तरह हराया। इस पराजय से बाध्य एक लाख साम्यवादी उत्तरी चीन के शैन्सी प्रांत के लिए चल पङे। उनकी यह 6000 मील लंबी यात्रा लांग मार्च कहलाती है। इस यात्रा में उन्होंने 10 प्रांतीय शासकों को हराया तथा 62 शहरों पर अधिकार किया तथा शैन्सी पहुँचते पहुँचते उनकी संख्या 30000 रह गई थी। साम्यवादियों ने इस प्रांत पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया।

जापानी आक्रमण

जापान ने 1931 ई. में मंचूरिया पर अधिकार कर लिया। च्यांग तथा साम्यवादियों के संघर्ष का लाभ उठाकर 1937 ई. में जापान ने चीन पर आक्रमण कर दिया। लेकिन च्यांग जापानी आक्रमण के प्रतिरोध के स्थान पर साम्यवादियों से संघर्षरत था। इससे च्यांग चीनी जनता में अलोकप्रिय होता चला गया। उसकी इस नीति से असंतुष्ट उसके सेना अधिकारियों ने उसे बंदी बना लिया तथा उस पर साम्यवादियों के साथ मिलकर जापान से संघर्ष के लिये दबाव डाला। च्यांग-काई-शेक को विवश होकर साम्यवादियों से समझौता करना पङा।

इस समझौते का सर्वाधिक लाभ साम्यवादियों को हुआ। जहाँ च्यांग की सेना अधिकांश स्थानों पर जापानी सेना से पराजित हुई वहीं साम्यवादी सेना ने जापानी सेना को बुरी तरह हराया। साम्यवादी सेना का नियंत्रण अनेक क्षेत्रों पर हो गया। साम्यवादियों ने इन क्षेत्रों में जमींदारों की भूमि किसानों को बांट दी। सरकारी उद्योगों की स्थापना की गयी। इससे उनकी लोकप्रियता बढने लगी।

द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ होते ही चीन को जापान के विरुद्ध सैनिक सहायता मिलने लगी। 1945 ई. में जब युद्ध समाप्त हुआ तो सोवियत संघ ने मंचूरिया से हटते समय इस पर साम्यवादियों का नियंत्रण हो जाने दिया।

गृहयुद्ध

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद चीन में अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए साम्यवादियों तथा कोमिन्तांग के बीच गृहयुद्ध आरंभ हो गया। लेकिन अब स्थिति भिन्न थी। चीन में माओ के अनुयायी 10 करोङ हो चुके थे। लाल सेना की शक्ति तथा उसके नियंत्रण में क्षेत्रों की वृद्धि हो चुकी थी। साम्यवादी सेनाओं ने माओ-त्से-तुंग के नेतृत्व में कोमिन्तांग सेना को बुरी तरह हराया। 1949 ई. में च्यांग-काई-शेक तथा उसके अनुयायियों ने चीन से भाग कर फारमोसा में कोमिन्तांग गणतंत्र की स्थापना की। चीन में साम्यवादियों की सफलता विश्व इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटना है। इसके दूरगामी परिणाम निकले।

जापान

19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जापान का उदय युगांतकारी घटना है। 19 वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक जापान एकांतवास तथा प्रथकता की नीति पर चल रहा था। अमरीकी कमोडोर पेरी द्वारा दबाव डालकर जापान को द्वार खोलने हेतु बाध्य किए जाने की घटना ने जापान की निद्रा भंग कर दी। जापान विश्व शक्ति के रूप में

जापान में सम्राट को ईश्वरीय माना जाता था। 12 वीं सदी से ही जापान में शासन की समस्त शक्तियां शोगुन में निहित थी। सम्राट क्योटो में निवास करता था। जबकि शोगुन येदो में रहकर शासन संचालित करते थे। इस समय जापान में तोकूगावा वंश के पास शोगुन का पद था।

विदेशी संपर्क

शोगुनो ने जापान के द्वार बंद रखने की नीति अपना रखी थी। यद्यपि 16 वीं सदी से ही ईसाई धर्म प्रचारक जापान पहुँचने लगे थे। केवल मात्र डच व्यापारियों को नागासाकी बंदरगाह पर सीमित व्यापार की अनुमति थी।

19 वीं सदी में विशाल वाष्पचालित जहाज चलने लगे। इस समय प्रशांत महासागर में अमेरिकी जहाजों को कोयला, पानी, खाद्य सामग्री तथा मरम्मत आदि की सुविधा के लिए जापानी बंदरगाहों की आवश्यकता थी। अमेरिकी व्यापारी वर्ग भी इसके लिए अपनी सरकार पर दबाव डाल रहा था। 1853 ई. में अमेरीकी कमोडोर पेरी चार युद्ध पोतों के साथ जापान के कुरिहमा बंदरगाह पर जा पहुँचा। उसने जापान के सम्राट के नाम अमरीकी राष्ट्रपति का पत्र शोगुन के अधिकारियों को दिया। पेरी एक वर्ष बाद पुनः आकर उत्तर ले जाने की सूचना देकर लौट आया।

फरवरी 1854ई. में पेरी पुनः पहले से अधिक शक्तिशाली बेङे के साथ जापान पहुँच गया। चीन की दुर्गति देख चुके शोगुन ने अमेरिका के साथ कनगावा की संधि कर ली। इसके द्वारा जापान के दो बंदरगाह अमेरिकी जहाजों के लिए खोल दिये गए। जापान ने 1854 ई. में इंग्लैण्ड, 1856 ई. में रूस तथा 1857 ई. में हॉलैण्ड के साथ भी इसी प्रकार की संधियाँ कर ली।

इन संधियों के विरुद्ध जापान में तीव्र प्रतिक्रिया हुई। जापान की राष्ट्रीय भावना को गहरा आघात लगा। जापान में विदेशियों के बाहर निकालने हेतु आंदोलन तीव्र हो गया। ये संधियाँ करने का निर्णय शोगुन का था। अतः जनभावना उसके विरुद्ध होने लगी। इसका लाभ उठाते हुए अन्य सामंतों ने सम्राट को शोगुन के विरुद्ध उकसाया। सम्राट ने शोगुन को संधियाँ रद्द करने तथा विदेशियों को बाहर निकालने का आदेश दिया। लेकिन शोगुन इसे क्रियान्वित करने में असफल रहा।

1866 ई. में केइकी नया शोगुन बना। 1867 ई. में वृद्ध सम्राट कोमेइ की मृत्यु हो गयी तथा मुत्सुहितों नया सम्राट बना। इस 24 वर्षीय युवा सम्राट ने मेइजी (बुद्धिमत्तापूर्ण शासन) की उपाधि धारण की। अपने प्रति बढते असंतोष तथा विरोधी सामंतों के दबाव के कारण 14 अक्टूबर, 1867 ई. को केइकी ने शोगुन पद से त्याग पत्र तथा अपने समस्त अधिकार सम्राट को समर्पित कर दिये। यह घटना मेइजी पुनर्स्थापना कहलाती है।

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