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तिब्बत के प्रति अंग्रेजों की नीति

तिब्बत हिमालय पर्वत के उत्तर में स्थित है। इसके उत्तर में पूर्वी तुर्किस्तान है तथा पूर्व में चीन का साम्राज्य है। तिब्बत अधिक ऊँचा है तथा बर्फ से घिरा रहता है। तिब्बत के रास्ते भयानक और दुर्गम हैं तथा यातायात के साधनों के अभाव में अन्य देशों से इसका संपर्क कम ही रहता था।

19 वी. शता. के अंत तक तिब्बत पर चीन की प्रभुता थी और वह चीनी साम्राज्य का अंग समझा जाता था। 18 वी. शता. के अंत में एक चीनी सेना इस क्षेत्र को लांघ कर नेपाल की राजधानी के निकट पहुँच गई। तिब्बत एक संपन्न देश था तथा यहाँ का व्यापार भी पर्याप्त था।

यह व्यापार और अधिक बढ सकता था, किन्तु बौद्ध भिक्षुओं की कट्टर प्रवृत्ति इसमें बाधक थी। संभवतः इस देश में विश्व का सबसे अधिक प्लेसर सोना मौजूद था। यही कारण है कि ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की, यदि इस पर अधिकार न हो सके तो कम से कम यहाँ से व्यापार करने की इच्छा तो थी ही। किन्तु चीन की तिब्बत पर संप्रभुता इसमें बाधक थी।

1774-75 ई. में वारेन हेस्टिंग्ज ने अपना एक दूत व्यापारिक संभावनाओं का पता लगाने के लिए तिब्बत भेजा।किन्तु यह कार्य पूरा नहीं हो सकता तथा काफी समय तक के लिए तिब्बत अकेला पङ गया, हालाँकि 1783 ई. में सेमुअल टर्नर ने तिब्बत की यात्रा की तथा 1811-12 ई. में मेनिंग दलाईलामा से मिलने गया था।

1886 ई. में एक ब्रिटिश शिष्टमंडल ल्हासा गया, लेकिन उसे ऐसी असफलता मिली कि तिब्बती अंग्रेजों के विरुद्ध संगठित हो गये तथा चीनियों द्वारा उत्तेजित किये जाने पर उन्होंने ब्रिटिश क्षेत्रों पर आक्रमण कर दिया।

तिब्बतियों ने एक ही रात में भारतीय सीमा के तीन मील भीतर एक दीवार खङी कर दी तथा इन तिब्बतियों को पीछे धकेलने के लिये अंग्रेजों को गंभीर सैनिक कार्यवाही करनी पङी।तत्पश्चात् लगभग दस वर्षों तक एक तिब्बती भारतीय सीमा पर अतिक्रमण करते रहे।

1890 ई. में अंग्रेजों ने चीन से बातचीत आरंभ की, जिसके फलस्वरूप एक समझौता हुआ और सिक्किम और तिब्बत के बीच सीमा तय कर दी गयी। यह भी तय हुआ कि संयुक्त आयोग दोनों देशों के बीच व्यापार आदि का मामला तय करेंगे। लेकिन चूँकि तिब्बत पर, चीन का प्रभाव अत्यंत ही कमजोर था, इसलिए चीन, तिब्बत पर यह समझौता लागू नहीं करवा सके।

यद्यपि संयुक्त आयोग की बैठक हुई और एक समझौता भी हुआ, लेकिन वह सब बेकार था। यातुंग में जो व्यापार का केन्द्र स्थापित किया गया था वह भी अनुपयुक्त सिद्ध हुआ, क्योंकि तिब्बतियों ने व्यापारियों को वहाँ जाने से रोकने के लिए एक दीवार खङी कर दी थी समझौते के विपरीत वे भारतीय माल पर चुंगी वसूल करने लगे थे। इसके अतिरिक्त वे चीन द्वारा स्वीकृत सीमा की अवहेलना भी करते रहते थे, जिससे पेचीदगी और अधिक बढ गई थी।

तिब्बत पर चीन का प्रभाव और संप्रभुता कमजोर होने के कई कारण जिसके फलस्वरूप ल्हासा में स्थित चीनी रेजीडेण्ट ने तिब्बत के मामलों पर अपना नियंत्रण खो दिया था।कई दशकों के बाद पहली बार दलाईलामा वयस्क हुआ, जबकि उसके पूर्वाधिकारी नौजवान होने से पूर्वही मृत्यु को प्राप्त हो गये थे।अतः वह समस्त शक्ति अपने हाथ में लेने का इच्छुक हुआ।

दलाईलामा के अल्पवयस्क काल में उसका एक शिक्षक दोरजीफ था, जो साइबेरिया का रहने वाला था, अपने को बौद्ध धर्मावलंबी बताता था और वह रूसी नागरिक था। ल्हासा में अपने 20 वर्षों के निवास काल में दोरजीफ ने वहाँ अपना काफी प्रभाव स्थापित कर लिया था।

1900ई. में जब रूस और ब्रिटेन के पारस्परिक संबंध तनापूर्ण थे, रूस के जार ने दोरजीफ का दलाईलामा के राजदूत के रूप में स्वागत किया। लौटते समय दोरजीफ रूस के जार की ओर से दलाईलामा के लिए भेंट भी लाया, जिसमें कुछ अस्त्र-शस्त्र भी थे।

वास्तव में जोरजीफ दोहरी भूमिका अदा कर रहा था। ल्हासा में वह बताता था कि रूस का जार बौद्ध धर्म के उत्थान के लिए उत्सुक है और बौद्ध साम्राज्य को बढाना चाहता है, जबकि सेंट पीटर्सबर्ग में कहता था कि दलाईलामा रूस की सुरक्षा प्राप्त करने का आकांक्षी है।

रूस इस आकांक्षा के कारण दलाईलामा की सहायता करना चाहता था। किन्तु जब ब्रिटिश अधिकारियों ने रूस से पूछताछ की तो रूस ने ऐसी रिपोर्टों की सत्याता से इंकार किया कि रूस और चीन के बीच कोई गुप्त समझौता हुआ है जिसके द्वारा रूस ने तिब्बत पर अपना संरक्षण स्थापित कर लिया है। लेकिन रूसी एजेण्टों का तिब्बत में लगातार षड्यंत्र करना अंग्रेजों के मस्तिष्क में संदेह उत्पन्न कर रहा था। दोरजीफ ने ल्हासा में अपनी कार्यवाही बंद नहीं की।

1903 ई. तक दोरजीफ दलाईलामा को यही समझाता रहा कि रूस उसके साथ है, जबकि इस बात के प्रमाण उपलब्ध होते हैं कि दोरजीफ की समस्त गतिविधियाँ अनाधिकृत थी, फिर भी उसकी गतिविधियों ने अंग्रेजों के लिए संकट उत्पन्न कर दिया।

इस प्रकार लार्ड कर्जन द्वारा तिब्बत पर आक्रमण करने से पूर्व की स्थिति का अध्ययन किया जाय तो यह निष्कर्ष निकलता है कि तिब्बत पर चीन की संप्रभुता लगभग समाप्त हो चुकी थी। चीन और अंग्रेजों के बीच हुई संधि को तिब्बत वालों ने स्वीकार नहीं किया।

तिब्बती प्रायः ब्रिटिश क्षेत्रों का अतिक्रमण कर रहे थे तथा अंग्रेजों का तिब्बत से व्यापार करने के प्रयास विफल किये जा चुके थे। इतना ही नहीं दलाईलामा रूस से संपर्क बनाये हुए था तथा रूस अभी तक जापान से अपराजित रहेने के कारण एशिया में अपना साम्राज्य वस्तार करना चाहता था।

लार्ड कर्जन जैसे साम्राज्यवादी व्यक्ति के लिए यह स्थिति असहनीय थी, क्योंकि तिब्बत पर रूसी प्रभाव स्थापित होने से एशिया में ब्रिटिश साम्राज्य के लिए खतरा उत्पन्न हो सकता था।

कर्जन के भारत पहुंचने के समय तक आंग्ल-तिब्बत संबंधों में अनेक समस्याएं पैदा हो चुकी थी।भारत सरकार द्वारा दलाईलामा को भेजे गये पत्र बिना खोले ही वापिस कर दिये गये।कर्जन ने अपने एक अनुभवी राजनीतिक अधिकारी क्लाड को सीमा -यात्रा पर यह पता लगाने भेजा कि इस समस्या का क्या कोई समाधान हो सकता है। किन्तु क्लाड की यात्रा भी निष्फल सिद्ध हुयी।

अतः कर्जन ने एक मिशन तिब्बत बेजने हेतु इंग्लैण्ड की सरकार से अनुमति मांगी। कर्जन ने इंग्लैण्ड की सरकार को लिखा कि तिब्बतियों ने सिक्किम की सीमा का अतिक्रमण कर तिब्बत-सिक्किम सीमा का अतिक्रमण कर तिब्बत-सिक्किम सीमा के लिए जो खंभे लगाये गये थे, उन्हें गिरा दिया है।

उसने यह भी लिखा कि तिब्बत से यातुंग को मिलाने वाली सङक पर तिब्बतियों ने दीवार खङी कर दी है जिससे ब्रिटिश व्यापारी यातुंग नहीं पहुँच सके। इंग्लैण्ड की सरकार मिशन को तिब्बत भेजने के पक्ष में नहीं थी, क्योंकि तिब्बत चीन के अधीन था, अतः तिब्बत से संबंधित कोई वार्ता पैकिंग से होनी चाहिए थी।

अतः इंग्लैण्ड की सरकार ने बङी अनिच्छा से इस सुझाव को स्वीकार कर लिया।कर्जन ने कर्नल फ्रांसिस यंगहस्बेंड के नेतृत्व में एक मिशन को खांबाजोग के लिए रवाना किया, जो जुलाई, 1903 में खांबाजोग पहुँचा। किन्तु तिब्बतियों ने स्पष्ट कह दिया कि जब तक मिशन अपनी सीमा में नहीं लौट जाता , तब तक कोई बात नहीं की जायेगी।

अंग्रेजों एवं तिब्बत के मध्य युद्ध का वर्णन

यंगहस्बेंड ने अपनी सीमा में लौटने से इंकार कर दिया। अतः तिब्बतियों ने वहां अपनी सेनाओं को एकत्रित करना आरंभ कर दिया। इससे कर्जन क्रुद्ध हो उठा और उसने इंग्लैण्ड की सरकार से ग्यांत्से की ओर सेना भेजने की अनुमति मांगी।

इंग्लैण्ड की सरकार ने इस शर्त पर अनुमति प्रदान की कि तिब्बत के मामले में हस्तक्षेप स्थायी नहीं होना चाहिए। आक्रमण का उद्देश्य क्षतिपूर्ति है और जैसे ही यह प्राप्त हो जाय आक्रमण समाप्त कर दिया जाना चाहिए।

मार्च, 1904 में ब्रिटिश सेनाएँ ग्यांत्से की ओर बढी तथा अनेक स्थानों पर तिब्बतियों से मुठभेङें हुई।तिब्बतियों के पास न तो अच्छे हथियार थे और न उन्हें युद्ध कला का ज्ञान था। वे तो केवल सेना का रास्ता रोककर खङे हो गये।

ब्रिटिश सैनिकों ने गोलियों की बौछार करके लगभग 700 तिब्बतियों को मौत के घाट उतार दिया। 11 अप्रैल,1904 को ब्रिटिश सैन्य दल सहित मिशन ग्यांत्से पहुँचा, किन्तु दलाईलामा ने मिशन से बात करने से इंकार कर दिया।

अतः ब्रिटिश सेनाओं को ल्हासा पहुँचने की अनुमति दे दी गई। ब्रिटिश सेना तिब्बतियों को परास्त करती हुई 3 अगस्त,1904 को ल्हासा पहुँच गई। रूस से किसी प्रकार की सहायता प्राप्त होने की आशा नहीं थी । अतः ब्रिटिश मिशन व सेनाओं के ल्हासा पहुँचने के तीन सप्ताह पूर्व ही दलाईलामा ने अपना प्रतिनिधि नियुक्त कर उसे सत्ता सौंप दी और स्वयं कहीं अंयत्र चला गया।

यंगहस्बेंड ने उस प्रतिनिधि से बातचीत आरंभ कर दी। इस समय यंगहस्बेंड को बङी कठिन परिस्थितियों का सामना करना पङा। उसके पास एक तरफ तो भारत सरकार द्वारा प्रेषित समझौते का प्रारूप था तो दूसरी और उसे भारत सचिव के एक तार मिला, जिसके विचार लार्ड कर्जन से अलग थे।

भारत सरकार संतोषजनक समझौता चाहती थी, जबकि भारत सचिव चाहता था कि मामला शीघ्रताशीघ्र निबटाकर सेना तिब्बत छोङकर वापिस चली आये।

भारत सचिव ने लिखा कि तिब्बत पर क्षतिपूर्ति का भार इतना अधिक न लादा जाय कि वह उसे देने में असमर्थ हो और यदि आवश्यक हो तो क्षतिपूर्ति की राशि तीन वर्षों में वसूल की जाय।इसके अतिरिक्त चुंबी घाटी पर अधिकार तभी तक रखा जा सकता है जब तक कि क्षतिपूर्ति की राशि प्राप्त न हो जाय।

ल्हासा की संधि 7 सितंबर,1904

यंगहस्बेंड और दलाईलामा के प्रतिनिधि से बातचीत के फलस्वरूप 1904 को ल्हासा की संधि पर हस्ताक्षर हो गये।संधि के अनुसार 75 लाख रुपये क्षतिपूर्ति की राशि निश्चित हो गई।

तिब्बतियों ने क्षतिपूर्ति की राशि एक लाख रुपये प्रतिवर्ष के हिसाब से देने का आग्रह किया। यंगहस्बेंड ने यह सोचकर कि यदि इस शर्त को स्वीकार नहीं किया गया तो हो सकता है उसे संधि-पत्र पर हस्ताक्षर किये बिना ही वापिस लौटना पङे। अतः उसने इस शर्त को स्वीकार कर लिया। संधि में क्षतिपूर्ति की रकम का भुगतान न होने तक चुंबीघाटी में ब्रिटिश सेना रखने का प्रावधान रखा गया, अतः चुंबीघाटी पर अंग्रेजों का 75 वर्ष तक के लिए अधिकार हो गया, जबकि भारत सचिव ने यह अवधि 3 वर्ष रखने का सुझाव दिया था।

बाद में जब यंगहस्बेंड से इस संबंध में पूछा गया तो उसने उत्तर दिया कि घाटी को अधिक समय तक अपने अधिकार में रखना न्यायसंगत है, क्योंकि यही तिब्बत के रास्ते की कुंजी है और इसी रास्ते से वे लोग भारत में प्रवेश कर सकते हैं। बर्मा और कश्मीर के बीच यही एक सामरिक महत्त्व की जगह है।

अतः ऐसे स्वर्ण अवसर को व्यापारिक प्रतिनिधि को रखने की अनुमति दी जायेगी, यातुंग, ग्यांत्से और गंङतोक में व्यापारिक केन्द्र स्थापित किये जायेंगे। तिब्बत की विदेश नीति पूर्णतया अंग्रेजों के हाथ में होगी और तिब्बत किसी विदेशी एजेण्ट को यहाँ आने की छूट नहीं देगा, किसी विदेशी शक्ति को तिब्बत में कोई छूट नहीं दी जायेगी और यदि किसी विदेशी शक्ति को कोई सुविधा दी जायेगी तो वैसी ही सुविधा अंग्रेजों को भी दी जायेगी।

इस संधि -पत्र पर हस्ताक्षर होने के बाद 23 सितंबर को ब्रिटिश सैनिकों की अपने घर की ओर वापसी आरंभ हुई।

भारत सचिव ने यंगहस्बेंड की कार्यवाही पर गंभीर रुख अपनाया और उसके अनुसार यह उसकी आज्ञा का उल्लंघन था। भारत सचिव ने इस संबंध में स्पष्ट निर्देश दिये थे और परिस्थिति के अनुसार कार्य करने का यह अर्थ नहीं था कि पहले से स्पष्ट किये गये सिद्धांतों से इतना दूर हटा जाये।

किन्तु भारत सरकार ने अपने अधिकारी की कार्यवाही को उचित बताया, पर उसने इस बात को स्वीकार किया कि उसने अपने कर्त्तव्यों की अवहेलना की है।

रूस ने भी इस संधि का विरोध किया, क्योंकि संधि की शर्तें अत्यंत कठोर थी। अंग्रेजों के समक्ष इस समय जर्मनी की बढती हुई महत्तवाकांक्षा का खतरा था, जिसके संदर्भ में ब्रिटिश सरकार रूस से मैत्री करना चाहती थी। अतः भारत सचिव के निर्देशानुसार संधि में निम्न संशोधन किये गये-

  1. क्षतिपूर्ति की राशि घटाकर 25 लाख रुपये कर दी गई।
  2. यदि क्षतिपूर्ति की आशा की तीन किश्तें समय पर दे दी जायें तथा अन्य शर्तों का पालन ठीक से करने पर चुंबीघाटी से अंग्रेजी सेना हटा ली जायेगी।
  3. ब्रिटिश प्रतिनिधि केवल ग्यांत्से में रहेगा और उसे ल्हासा जाने की अनुमति नहीं होगी।

तिब्बत द्वारा क्षतिपूर्ति चुकाने के लिए चीन धन देने को तैयार हो गया, जिससे तिब्बत पर चीन की संप्रभुता को मान्यता दे दी गई।चुंबीघाटी को जनवरी, 1908 में खाली कर दिया गया।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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