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वॉरेन हेस्टिंग्ज (Warren Hastings)बंगाल का प्रथम ब्रिटिश गवर्नर जनरल था

वॉरेन हेस्टिंग्ज

वॉरेन हेस्टिंग्ज बंगाल का प्रथम ब्रिटिश गवर्नर जनरल- बंगाल में ब्रिटिश शासन की स्थापना के बाद कंपनी के साम्राज्य की उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई। बढते हुए साम्राज्य में प्रशासनिक पूनर्गठन आवश्यक था । अतः कंपनी सरकार ज्यों-ज्यों साम्राज्य का विस्तार करती रही, त्यों-त्यों अपने क्षेत्रों में प्रशासनिक व्यवस्था का पुनर्गठन भी करती रही।

भारत के गवर्नर जनरल

साम्राज्य विस्तार और पुनर्गठन की इस प्रक्रिया में कंपनी सरकार ने भारत में कुछ ऐसे गवर्नर-जनरल भी भेजती रही, जिन्होंने विस्तृत साम्राज्य को संगठित करने में अपनी रुचि दिखाई। वॉरेन हेस्टिंग्ज को कंपनी ने 1772में बंगाल का गवर्नर बनाकर भारत भेजा था, यह गवर्नर के पद 1773ई. तक रहा। इसके बाद 1773में हेस्टिंग्ज को गवर्नर जनरल बना दिया गया जो 1785 ई. तक रहा।

वॉरेन हेस्टिंग्ज बंगाल का प्रथम गवर्नर जनरल था। 1772से 1793 के बीच विभिन्न गवर्नर-जनरलों द्वारा किये गये प्रशासनिक परिवर्तनों में से वारेन हेस्टिंग्ज द्वारा किये गये प्रशासनिक परिवर्तन इस प्रकार हैं-

वॉरेन हेस्टिंग्ज द्वारा प्रशासन का पुनर्गठन (1773-1785)

वारेन हेस्टिंग्ज 1750 में कंपनी का कर्मचारी बनकर कलकत्ता आया था। अपनी योग्यता एवं लगन के कारण वह निरंतर उन्नति करता गया और 1772 में उसे बंगाल का गवर्नर नियुक्त कर दिया गया। किन्तु उस समय कंपनी के सम्मुख अनेक समस्याएँ उपस्थित थी। क्लाइव द्वारा स्थापित द्वैध शासन के बुरे परिणाम स्पष्ट दिखाई देने लगे थे।

कंपनी के अंग्रेज कर्मचारियों तथा भारतीय नायब दीवानों ने अत्याचारों द्वारा अपनी जेबें गर्म करना तथा जनता का तीव्र शोषण करना आरंभ कर दिया था। कंपनी के संचालकों को भी विश्वास हो गया था कि कंपनी के राजस्व का एक बहुत बङा भाग कंपनी के कर्मचारी अपने निजी अधिकार में रख लेते हैं। अतः 1771 में संचालक समिति ने बंगाल कौंसिल के अध्यक्ष को आदेश दिया कि-

  • कंपनी स्वयं दीवानी का कार्य करे तथा राजस्व वसूली का कार्य कंपनी के कर्मचारियों द्वारा किया जाय।
  • नायब दीवान तथा उसके अधीन कार्य करने वाले समस्त कर्मचारियों को पदच्युत कर दिया जाय।
  • दोनों नायब दीवानों को बंदी बनाकर उन पर मुकदमा चलाया जाय, ताकि नायब दीवानों द्वारा किये गये धन का अपहरण व घूसखोरी का पता लगाया जा सके।

बंगाल में द्वैध शासन का अंत-

उपर्युक्त आदेश के कारण वॉरेन हेस्टिंग्ज ने अपना पद ग्रहण करते ही, क्लाइव द्वारा स्थापित द्वैध शासन का अंत कर दिया। दोनों नायब दीवानों-रजाखाँ और शितबराय को पदच्युत कर उन पर मुकदमा चलाया गया। इन दोनों के विरुद्ध कोई ठोस सबूत नहीं थे, केवल दीवानी का कार्य अपने हाथ में लेने के औचित्य को सिद्ध करने के लिए ये मुकदमे चलाये गये थे।

यह मुकदमा दो वर्ष तक चलता रहा। और अंत में उन्हें निर्दोष घोषित कर दिया गया।इन मुकदमों से इतना लाभ अवश्य हुआ कि दोनों नायब दीवानों की प्रतिष्ठा पूरी तरह से समाप्त हो गयी तथा कंपनी को प्रभाव बढाने का अवसर प्राप्त हो गया।

दीवानी के प्रबंध के साथ-2 दीवानी न्याय का उत्तरदायित्व भी कंपनी पर आ गया था।द्वैध शासन के कारण पुरानी न्याय-प्रणाली पूरी तरह समाप्त हो चुकी थी।कंपनी के कर्मचारियों ने सामान्य नागरिकों तथा शिल्पियों पर भीषण अत्याचार करना आरंभ कर दिया था। स्वयं संचालक समिति ने 10अप्रैल,1771 में अपने कर्मचारियों के इन अत्याचारों को स्वीकार किया था।

अतः संचालकों ने बंगाल में न्याय-व्यवस्था सुधारने का आदेश दिया। इसी बीच इंग्लैण्ड की संसद ने 1773 ई. में रेग्युलेटिंग एक्ट पास किया तथा इस एक्ट को 1774 में लागू किया गया। इस एक्ट के तहत गवर्नर का पद गवर्नर जनरल का पद हो गया था। तथा 1773 ई. में वॉरेन हेस्टिंग्ज गवर्नर से गवर्नर जनरल बन गया था।

प्रशासन संबंधी सुधार

वारेन हेस्टिंग्ज ने अपने कार्यकाल में अनेक राजनैतिक एवं प्रशासनिक परिवर्तन किये, जिसके बङे दूरगामी परिणाम हुए। संचालकों के आदेशानुसार उसने क्लाइव द्वारा स्थापित द्वैध शासन को समाप्त कर दिया तथा दोनों नायब दीवानों को पदच्युत कर उन पर मुकदमें चलाये। अंत में दोनों को मुक्त कर दिया।

किन्तु हेस्टिंग्ज ने कंपनी के कर्मचारियों के समक्ष यह स्पष्ट कर दिया कि गैर-कानूनी कार्य करने पर वह कंपनी के कर्मचारियों को कठोर दंड दे सकता है और जो व्यक्ति राजस्व के उत्तरदायित्व को ईमानदारी से नहीं निभायेगा,उसे कानून के अंतर्गत कठोर दंड दिया जायेगा। इसके अतिरिक्त कंपनी बंगाल के नवाब को जो 53 लाख रुपये वार्षिक देती थी, इस राशि को घटाकर 16 लाख रुपये कर दिया गया। क्योंकि अब कंपनी ने स्वयं प्रशासन का उत्तरदायित्व ग्रहण कर लिया था।

नवाब के पारिवारिक मामलों का पुनर्गठन करने के लिए उसने मीरजाफर के उत्तराधिकारी नज्मुद्दौला, जो इस समय अल्पवयस्क था, के संरक्षण के लिए मीरजाफर की विधवा पत्नी मुन्नी बेगम को संरक्षिका नियुक्त किया तथा नंदकुमार के पुत्र गुरुदास को परिवार का नियंत्रक नियुक्त किया।

अब चूँकि प्रशासन का दायित्व कंपनी ने ग्रहण कर लिया था, अतः राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र मुर्शिदाबाद से कलकत्ता स्थानांनतरित कर दिया ताकि वित्तीय प्रबंध में भी सुविधा रहे।इसके अतिरिक्त हेस्टिंग्ज ने मुगल सम्राट को दी जाने वाली 26 लाख रुपये की राशि पूर्णतः बंद कर दी और उससे कङा और इलाहाबाद के जिले भी वापस ले लिये,क्योंकि मुगल सम्राट मराठों के प्रभाव में जा चुका था। उसने कङा और इलाहाबाद के जिले एक संधि द्वारा अवध के नवाब को दे दिये और इसके बदले में उससे 50 लाख रुपये प्राप्त किये। इस प्रकार हेस्टिंग्ज ने राजकीय खर्च में कटौती कर आय भी प्राप्त कर ली।

व्यापार संबंधी सुधार

भारत में कंपनी का मुख्य कार्य व्यापार करना था, किन्तु कंपनी के कर्मचारियों ने अपने निजी व्यापार के कारण कंपनी के व्यापार में रुचि लेना बंद कर दिया था। अब कंपनी को अपने राजनीतिक दायित्व पूरे करने के लिए सैनिक कार्य भी करने पङते थे।फलतः व्यापारिक दृष्टिकोण से कंपनी की स्थिति खराब हो रही थी। दस्तक (कर रहित व्यापार का अधिकार-पत्र) का दुरुपयोग अभी भी प्रचलित था।

अतः हेस्टिंग्ज ने दस्तक-पत्र जारी करने की पद्धति को तुरंत बंद करने के आदेश दे दिये तथा कर्मचारियों के निजी व्यापार भारतीय व्यापारियों के नाम से होने लगा, जबकि वास्तव में व्यापार अंग्रेज अधिकारी ही करते थे।1776 के बाद संचालकों ने स्वयं अपने कर्मचारियों को निजी व्यापार की छूट दे दी थी।

इसके अतिरिक्त हेस्टिंग्ज के आने से पूर्व भिन्न-2 जमींदारों ने अपनी स्वयं की चुंगी चौकियाँ स्थापित कर ली थी। इन भिन्न-2 चुंगी चौकियों पर चुंगी वसूल करने से वस्तु की कीमत में भारी असंतुलन उत्पन्न हो जाता था।

अतः हेस्टिंग्ज ने समस्त चुंगी चौकियों को समाप्त कर केवल चुँगी चौकियाँ-कलकत्ता,हुगली, ढाका,मुर्शिदाबाद और पटना में स्थापित की। हेस्टिंग्ज ने यह भी आदेश दिया कि सभी माल पर,चाहे वह यूरोपियन व्यापारी हो या कोई अन्य, सभी से ढाई प्रतिशत की दर से चुंगी वसूल की जावेगी, किन्तु सुपारी, नमक व तंबाकू पर लगने वाली चुंगी में कोई परिवर्तन नहीं किया गया। इन सुधारों से व्यापारियों को भी प्रोत्साहन मिला तथा आय के स्रोतों में वृद्धि हुई।

लगान-व्यवस्था में सुधार-

कंपनी ने प्रत्यक्ष रूप से बंगाल की दीवानी का दायित्व ग्रहण कर लिया था। अतः लगान-व्यवस्था को नियमित करना आवश्यक था। हेस्टिंग्ज ने पाँच वर्षीय बंदोबस्त लागू किया। भूमि पाँच वर्ष के लिए उन व्यक्तियों को दी जाने लगी, जो अधिकतम लगान देने का वादा करते थे।सामान्य परिस्थिति में इस कार्य के जमींदारी को प्राथमिकता दी जाती थी।जमींदार अपने किसानों को उनकी भूमि का पट्टा देता था, जिसमें किसान द्वारा दिया जाने वाला लगान दर्ज होता था।

जिले में लगान वसूल करने का काम कलेक्टर को सौंपा गया तथा उसकी सहायता के लिए भारतीय दीवान नियुक्त किये गये।लगान वसूली तथा दीवानी न्याय एक-दूसरे से संबंद्ध होने के कारण प्रत्येक जिले में दीवानी अदालतें स्थापित की गई। लगान-व्यवस्था पर नियंत्रण रखने के लिये मुर्शिदाबाद व पटना में एक-2 भू-राजस्व नियंत्रण परिषद् स्थापित की गई।

समस्त भू राजस्व प्रशासन पर नियंत्रण रखने हेतु गवर्नर तथा उसकी कौंसिल को राजस्व मंडल के नाम से पुकारा जाने लगा तथा उसकी सहायता हेतु एक भारतीय अधिकारी की नियुक्ति की गई, जो रायरायन कहलाता था।

उपर्युक्त व्यवस्था अत्यंत ही दोषपूर्ण सिद्ध हुई, क्योंकि भूमि की इतनी अधिक बोली लगाई जाने लगी, जो वास्तव में भू-राजस्व की कीमत से अधिक होती थी तथा यह अधिक रकम किसानों से वसूल की जाती थी, जिससे किसानों की हालत खराब होती गई। अतः नवंबर,1773 ई. में एक नई योजना स्वीकार की गई, जो दो भागों में थी।

प्रथम भाग की योजना अस्थायी थी, जिसे तुरंत लागू करना था तथा दूसरे भाग क योजना भविष्य में लागू करनी थी। प्रथम भाग की योजना 1774 में लागू कर दी गई।समस्त बंगाल प्रेसीडेन्सी को छः डिविजन में बाँटा गया-कलकत्ता,मुर्शिदाबाद,पटना,बर्दवान,दीनाजपुर,ढाक

प्रत्येक डिविजन के लिए एक प्रांतीय परिषद् स्थापित की गई और उनकी सहायता के लिए एक-2 दीवान नियुक्त किया गया।कलेक्टरों को वापस बुला लिया गया तथा उनके स्थान पर भारतीय अधिकारी नियुक्त किये गये, जिन्हें नायब कहा जाता था। भू-राजस्व निर्धारण के तरीके के प्रश्न को लेकर कौंसिल में मतभेद उत्पन्न हो गया, अतः संचालकों ने आदेश दिया कि कौंसिल द्वारा अंतिम निर्णय लेने तक एक वर्षीय प्रणाली लागू कर दी जाय।

1781 में हेस्टिंग्ज ने अपनी योजना का दूसरा भाग लागू किया। प्रांतीय परिषदें समाप्त कर दी गयी तथा जिलों का राजस्व प्रशासन भारतीय नायबों के पास ही रखा। केन्द्र में नई राजस्व समिति स्थापित की गई, जिसकी सहायता के लिए भारतीय दीवान रखा गया। राजस्व समिति स्थापित की गई, जिसकी सहायता के लिए भारतीय दीवान रखा गया।

राजस्व समिति के सदस्यों को निश्चित वेतन के स्थान पर,प्राप्त होने वाले भू-राजस्व का दो प्रतिशत देना तय किया गया, किन्तु समिति के अध्यक्ष को अधिक वेतन दिया गया। गवर्न-जनरल तथा उसकी कौंसिल इस राजस्व समिति से निरंतर संपर्क बनाये रखती थी।राजस्व मंडल की स्थापना तथा कलेक्टर के पद का सृजन करना राजस्व के क्षेत्र में हेस्टिंग्ज के महत्त्वपूर्ण कार्य थे।

न्याय संबंधी सुधार

हेस्टिंग्ज के आने के समय बंगाल में दो प्रकार की न्याय प्रणाली प्रचलित थी-प्रथम तो मुगलकालीन प्रणाली तथा दूसरी कलकत्ता में कंपनी का न्यायालय । अभी तक न्याय का कार्य मुख्यतः स्थानीय जमींदार किया करते थे तथा न्यायालय द्वारा लगाये गये जुर्माने को वे अपनी निजी आय समझते थे। अतःजमींदारों के न्यायालय भ्रष्टपूर्ण थे।

कंपनी के कर्मचारियों के हस्तक्षेप से स्थित और भी अधिक खराब हो गयी थी। अतः हेस्टिंग्ज ने 1772 में न्याय-प्रशासन में परिवर्तन किये। प्रत्येक जिले में एक दीवानी अदालत स्थापित की गई जिसका कार्य संपत्ति,विवाह,जाति-प्रथा, ऋण, लगान,उत्तराधिकार से संबंधित मुकदमों की सुनवाई करना था।

जिले का अंग्रेज कलेक्टर दीवानी अदालत का अध्यक्ष होता था। जिले की निजामत अदालत में चोरी,हत्या,जालसाजी तथा जबरन संपत्ति छीनने से संबंधित मुकदमें सुने जाते थे। इस अदालत का संचालक काजी या मुफ्ती होता था तथा कानून के प्रश्नों पर सलाह देने के लिए दो मौलवियों की नियुक्ति की गई। इन जिला अदालतों के निर्णय के विरुद्ध अपील,कलकत्ता, में स्थापित सदर दीवानी अदालत और सदर निजामत अदालत में की जाती थी।

कलकत्ता कौंसिल के अध्यक्ष सदर दीवानी अदालत का अध्यक्ष होता था तथा कौंसिल के दो वरिष्ठ सदस्य अदालत के सदस्य होते थे। सदर निजामत अदालत का अध्यक्ष दरोगा या सदर काजी होता था, जो बंगाल के नवाब द्वारा नियुक्त किया जाता था। निजामत अदालतों को मृत्यु दंड देने का अधिकार नहीं रखता था।

इस विषय में अंतिम शक्ति गवर्नर तथा उसकी कौंसिल के पास थी। मुकदमों का निर्णय हिन्दुओं के धर्मशास्रों व मुसलमानों की कुरान के आधार पर होता था।

कलकत्ता में यूरोपियनों के लिए मेयर की अदालत थी। मेयर के अन्याय की अनेक शिकायतें संचालकों तक पहुँच चुकी थी। इसके दोषों को दूर करने के लिए रेग्युलेटिंग एक्ट द्वारा सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई। दीवानी मामलों में इसके निर्णय के विरुद्ध अपील इंग्लैण्ड के सम्राट के समक्ष की जा सकती थी।

आरक्षी व्यवस्था-

जिस समय वारेन हेस्टिंग्ज ने भारत में गवर्नर का पद ग्रहण किया, बंगाल में पूर्ण अराजकता छायी हुई थी। जनता के जान-माल की सुरक्षा का कोई प्रबंध नहीं था। इस समय कुछ लोग संन्यासियों का वेश धारण करके जनता को लूट रहे थे। तथा जनता पर विभिन्न प्रकार के अत्याचार कर रहे थे। अतः बंगाल में शांति एवं व्यवस्था बनाये रखने हेतु हेस्टिंग्ज ने आरक्षी विभाग का पुनर्गठन किया।

उसने प्रत्येक जिले में एक स्वतंत्र पुलिस अधिकारी की नियुक्ति की तथा चोरों व डाकुओं की गिरफ्तारी हेतु कठोर आदेश प्रसारित किये। फलस्वरूप चोरों और डाकुओं को गिरफ्तार कर गाँवों में ही उन्हें फाँसी दी जाने लगा।इससे चोरों व डाकुओं पर काफी सीमा तक नियंत्रण प्राप्त कर लिया गया तथा ढोंगी संन्यासियों का भी अंत कर दिया गया। हेस्टिंग्ज की इस कार्यवाही से बंगाल में शांति एवं व्यवस्था स्थापित हो गयी।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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