प्राचीन भारतइतिहासकुमारगुप्त प्रथमगुप्त काल

कुमारगुप्त प्रथम ‘महेन्द्रादित्य’ का इतिहास

चंद्रगुप्त द्वितीय के बाद कुमारगुप्त प्रथम साम्राज्य की गद्दी पर बैठा। वह चंद्रगुप्त की पत्नी ध्रुवदेवी से उत्पन्न उसका सबसे बङा पुत्र था। कुमारगुप्त का गोविंदगुप्त नामक एक छोटा भाई भी था, जो कुमारगुप्त के समय में बसाढ (वैशाली) का राज्यपाल था। कुमारगुप्त ने कुल 40 वर्षों (415-455ईस्वी) तक शासन किया। इस दीर्घकाल में यद्यपि उसने कोई विजय नहीं की तथापि उसके शासन-काल का महत्त्व इस बात में है,कि उसने अपने पिता से जिस विशाल साम्रााज्य को उत्तराधिकार में प्राप्त किया था, उसे बनाये रखा। कुमारगुप्त प्रथम अपने विशाल साम्राज्य में शांति और व्यवस्था स्थापित करने में सफल रहा।

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कुमारगुप्त प्रथम के सुव्यवस्थित शासन का वर्णन मंदसोर अभिलेख में इस प्रकार मिलता है – कुमारगुप्त एक ऐसी पृथ्वी पर शासन करता था, जो चारों समुद्रों से घिरी हुई थी, सुमेरु तथा कैलाश पर्वत जिसके वृहत् पयोधर के समान थे, सुंदर वाटिकाओं में खिले फूल जिसकी हँसी के समान थे।

कुमारगुप्त प्रथम की जानकारी प्राप्त करने के प्रमुख साधन निम्नलिखित हैं-

अभिलेख

कुमारगुप्त प्रथम के अब तक कुल 18 अभिलेख प्राप्त हुये हैं। इतने अधिक अभिलेख किसी भी अन्य गुप्त शासक के नहीं मिलते। प्रमुख लेखों का विवरण इस प्रकार है –

बिलसद अभिलेख-

यह कुमारगुप्त के शासन-काल का प्रथम अभिलेख है, जिस पर गुप्त संवत् 96 = 415 ईस्वी की तिथि अंकित हैं। बिलसद उत्तर प्रदेश के एटा जिले में स्थित है। इसमें कुमारगुप्त प्रथम तक गुप्तों की वंशावली प्राप्त होती है।

गढवा के दो शिलालेख-

इलाहाबाद जिले में स्थित गढवा से कुमारगुप्त के दो शिलालेख मिले हैं। इन पर गुप्त संवत् 98 = 417 ईस्वी की तिथि उत्कीर्ण है। इनमें किसी दानगृह को 10 और 12 दीनारें दिये जाने का वर्णन है।

मंदसोर अभिलेख-

मंदसोर प्राचीन मालवा में स्थित था, जिसका एक नाम दशपुर भी मिलता है। यहाँ से प्राप्त कुमारगुप्त के लेख में विक्रम संवत् 529 (473 ईस्वी) की तिथि दी गयी है। यह लेख प्रशस्ति के रूप में है, जिसकी रचना वत्सभट्टि ने की थी। वह संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान था। इस लेख में कुमारगुप्त के राज्यपाल बंधुवर्मा का उल्लेख मिलता है,जो वहाँ शासन करता था। इसमें सूर्यमंदिर के निर्माण का भी उल्लेख है।

करमदंडा-अभिलेख-

करमदंडा अभिलेख उत्तर-प्रदेश के जिले में स्थित है। इस लेख में गुप्त संवत् 117 = 436 ईस्वी की तिथि अंकित है। यह शिव प्रतिमा के अद्योभाग में भाग में उत्कीर्ण है। इस मूर्ति की स्थापना कुमारगुप्त के मंत्री (कुमारामात्य) पृथ्वीसेन ने करवाई थी।

मनकुँवर – अभिलेख-

यह अभिलेख इलाहाबाद जिले में स्थित है।इस लेख में गुप्त संवत् 129 = 448 ईस्वी की तिथि अंकित है। यह बुद्ध प्रतिमा के निचले भाग में उत्कीर्ण है। इस मूर्ति की स्थापना बुद्धमित्र नामक बौद्ध भिक्षु द्वारा करवाई गयी थी।

मथुरा का लेख-

यह एक मूर्ति के अधोभाग में उत्कीर्ण है, जिस पर गुप्त संवत् 135 = 454 ईस्वी की तिथि अंकित है। मूर्ति का ऊपरी हिस्सा टूट गया है, परंतु लेख के पास धर्म-चक्र उत्कीर्ण होने से ऐसा निष्कर्ष निकलता है, कि यह कोई बौद्ध प्रतिमा रही होगी।

साँची अभिलेख-

साँची से प्राप्त कुमारगुप्त का लेख संवत् 131= 450 ईस्वी का है। इसमें हरिस्वामिनी द्वारा साँची के आर्यसंघ को धन दान में दिये जाने का उल्लेख है।

उदयगिरि गुहालेख-

उदयगिरि में गुप्त संवत् 106 = 425 ईस्वी का एक जैन अभिलेख मिला है। इसमें शंकर नामक व्यक्ति द्वारा इस स्थान में पाशर्वनाथ की मूर्ति स्थापित किये जाने का विवरण सुरक्षित है।

तुमैन अभिलेख-

तुमैन मध्यप्रदेश के ग्वालियर जिले में स्थित है। यहाँ से गुप्त संवत् 116 = 435 ईस्वी का लेख मिलता है, जो कुमारगुप्त के समय का है। इसमें कुमारगुप्त को शरद् – कालीन सूर्य की भाँति बताया गया है।

बंंगाल से प्राप्त अभिलेख-

बंगाल से तीन स्थानों से कुमारगुप्तकालीन ताम्रपत्र प्राप्त होते हैं-

  1. धनदैह ताम्रपत्र-यह ताम्रपत्र बंग्लादेश के राजशाही जिले में स्थित है। यहाँ से गुप्त संवत् 113 = 432 ईस्वी का ताम्रपत्र मिला है,जो कुमारगुप्त के समय का है। इसमें कुमारगुप्त को परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमदैवत कहा गया है तथा वाराहस्वामिन् नामक एक ब्राह्मण को भूमि दान में दिये जाने का वर्णन मिलता है।
  2. दामोदरपुर ताम्रपत्र-यह ताम्रपत्र भी आधुनिक बंगलादेश के दीनाजपुर में स्थित है। यहाँ से गुप्त संवत् 124 तथा 129 = 443 तथा 448 ईस्वी के कुमारगुप्त के दो लेख मिलते हैं। इनसे उसकी शासन-व्यवस्था पर प्रकाश पङता है। इस प्रदेश को पुण्ड्रवर्धन कहा गया है,जहाँ का शासक चिरादत्त था। इन लेखों में कुमारगुप्त के अनेक पदाधिकारियों के नाम भी दिये गये हैं।
  3. वैग्राम ताम्रपत्र – वैग्राम बंगलादेश के बोगरा जिले में स्थित है, जहां से गुप्त संवत् 128 = 447 ईस्वी का कुमारगुप्त का लेख मिला है। यह गोविंदस्वामिन् के मंदिर के निर्वाह के लिये भूमिदान में दिये जाने का वर्णन करता है।

मुद्रायें-

अभिलेखों के अतिरिक्त पश्चिमी भारत के विशाल भूभाग से कुमारगुप्त की स्वर्ण, रजत तथा ताम्र मुद्रायें प्राप्त होती हैं। उसने कई नवीन प्रकार की स्वर्णमुद्राएँ प्रचलित करवाई थी। एक प्रकार की मद्रा के मुख पर मयूर को खिलाते हुये राजा की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर मयूर पर आसीन कार्तिकेय की आ्रकृति उत्कीर्ण की गयी है।

मध्य भारत में रजत सिक्कों का प्रचलन उसी के काल में हुआ। इन मुद्राओं पर गरुङ के स्थान पर मयूर की आकृति उत्कीर्ण की गयी है। ये मुद्रायें विविध प्रकार की हैं जैसे – अश्वमेघ प्रकार, व्याघ्रनिहंता प्रकार, अश्वारोही प्रकार, धनुर्धारी प्रकार, गजारोही प्रकार, कार्तिकेय प्रकार आदि।

मुद्राओं पर उसकी उपाधियाँ महेन्दादित्य, श्रीमहेन्द्र, महेन्द्रसिंह, अश्वमेघमहेन्द्र आदि उत्कीर्ण मिलती हैं।

Reference : https://www.indiaolddays.com

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