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टीपू सुल्तान का चरित्र कैसा था

टीपू सुल्तान

टीपू सुल्तान का चरित्र (tipu sultan ka charitra) – हैदरअली की मृत्यु के बाद 1782 ई. में उसका बत्तीस वर्ष का बङा बेटा टीपू सुल्तान मैसूर का शासक बना। टीपू के शासक बनने के समय तक मैसूर राज्य का काफी विस्तार हो चुका था। उत्तर में कृष्णा नदी, दक्षिण में ट्रावनकोर राज्य, पूर्व में पूर्वी घाट तथा पश्चिम में अरब सागर तक उसकी सीमायें थी।

टीपू सुल्तान का चरित्र कैसा था

88000 सैनिकों की एक विशाल सेना भी उसने तैयार की थी जो उस समय भारतीय राज्यों की सेनाओं से कभी भी मुकाबला करने को तैयार रहती थी। राज्य की स्थिति अच्छी थी और टीपू के शासक होने तक एक विशाल धन राशि हैदरअली इकट्ठी कर गया था।

टीपू सुल्तान का चरित्र

टीपू अपने पिता की मृत्यु के बाद 1782 ई. में गद्दी पर बैठा तथा 1799 तक मैसूर का सुल्तान रहा। यह योग्य पिता का योग्य पुत्र था। कुछ इतिहास लेखकों ने उसे अन्यायी, क्रूर, धर्मान्ध तथा निर्दयी शासक सिद्ध करने प्रयास किया है पर निष्पक्ष रूप से अध्ययन करने पर पता चलता है, कि टीपू विद्वान, सहनशील और उच्च चरित्र का व्यक्ति था।

उसके चरित्र का वर्णन हम निम्नलिखित बिन्दुओं में कर सकते हैं-

विद्वान तथा प्रजा सेवक

वह फारसी, उर्दू तथा तेलगू आदि अनेक भाषाओं का ज्ञाता था। वह बहुत परिश्रमी शासक था, जिसने प्रजा की समृद्धि के लिए कोई कसर न उठा रखी। सारा जीवन युद्ध में बिताने पर भी वह प्रजा सेवक के रूप में प्रसिद्ध था।

वीर योद्धा तथा कुशल सेनापति

टीपू सुल्तान एक वीर योद्धा तथा कुशल सेनापति था। उसने अनेक बार अंग्रेजों को पराजित किया और उसने युद्ध-कौशल का परिचय दिया। उसने तृतीय मैसूर युद्ध में जनरल मीडोज का डट कर मुकाबला किया। अंत में विवश होकर स्वयं लार्ड कार्नवालिस को सेना का नेतृत्व करना पङा।

उसने चतुर्थ मैसूर युद्ध में अंग्रेजों का अंतिम समय तक वीरतापूर्वक मुकाबला किया और युद्ध में लङते हुए 4 मई, 1799 को वीरगति को प्राप्त हुआ।

धर्म-सहिष्णु

कुछ अंग्रेज इतिहासकारों ने टीपू पर धर्मान्धता का आरोप लगाया है । विल्कस का कथन है कि टीपू के असीम अत्याचारों के कारण उसके राज्य का प्रत्येक हिन्दू उस के शासन से घृणा करने लगा था। बाउरिंग के अनुसार टीपू ने ईसाइयों पर भारी अत्याचार किये थे।

परंतु टीपू पर धर्मान्धता का आरोप लगाना तर्क-संगत नहीं है। वह योग्यता के आधार पर हिन्दुओं को भी उच्च पदों पर नियुक्त करता था। पूर्णया व कृष्णराज उच्च पदों पर नियुक्त थे। वह हिन्दुओं के साथ अच्छा व्यवहार करता था तथा हिन्दू-मंदिरों को दान दक्षिणा देता था।

योग्य शासक

टीपू एक योग्य शासक था। उसने प्रशासन के प्रत्येक क्षेत्र में सुधार किये और सेना, राजस्व, व्यापार आदि के प्रबंध में नवीनता लाने का प्रयास किया, मुर्रे का कथन है कि, जब कोई व्यक्ति एक नवीन यात्रा करते हुए इसे अच्छा कृषि संपन्न, नवनिर्मित, विस्तृत व्यापार और प्रत्येक समृद्धिशाली वस्तु से युक्त देखेगा तो वह इसी परिणाम पर पहुँचेगा कि वह देश एक ऐसी सरकार के अधीन है जो जनता के मन के अनुकूल है। यह टीपू के देश का चित्र है।

यही हमारा निष्कर्ष है और उसकी सरकार के प्रति हमारी आदर की भावना है।

राजनीतिज्ञ के रूप में

टीपू अपने पिता हैदरअली की भांति चतुर राजनीतिज्ञ नहीं था। उसने अंग्रेजों के विरुद्ध मराठों तथा निजाम का सहयोग प्राप्त करने का प्रयास नहीं किया। फिर भी उसने अंग्रेजों के प्रतिद्वन्द्वी, फ्रांसीसियों से गठबंधन करने का प्रयास किया। उसने काबुल, तुर्की, मारीशस आदि देशों में अपने राजदूत भेजे और उनसे सहायता प्राप्त करने का प्रयास किया। फ्रांसीसी भारत कब आये

स्वतंत्रता का पुजारी

टीपू सुल्तान स्वतंत्रता का पुजारी था। वह पक्का देशभक्त था तथा मैसूर राज्य की स्वतंत्रता के लिए मृत्युपर्यंत संघर्ष करता रहा। उसने अपनी मातृभूमि के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिये। परंतु अंग्रेजों के सामने घुटने टेक कर अपनी मातृभूमि को अंग्रेजों के पास गिरवी रखने से इन्कार कर दिया। उसकी मृत्यु एक आदर्श वीर की मृत्यु थी।

डॉ.जी.एस.छाबङा लिखते हैं कि टीपू स्वतंत्रता का पुजारी था और वह ब्रिटिश गुलामी को किसी भी रूप में या रंग में पसंद नहीं करता था। वह समझौतों में विश्वास नहीं करता था और शत्रु के समक्ष घुटने टेकने की बजाय एक साधारण सैनिक की भांति मर जाना पसंद करता था।

टीपू सुल्तान और मैसूर राज्य

तत्कालीन दक्षिण की पेचीदा राजनीति में मैसूर के विरोधी राज्य हैदरअली के बाद कभी भी प्रबल हो सकते थे। मराठे और निजाम दोनों ही मैसूर के कुछ क्षेत्रों पर दावा बताते थे और अंग्रेजों को इस प्रकार हस्तक्षेप करने का कभी भी अवसर प्राप्त हो सकता था।

टीपू को दो रास्तों में से एक को चुनना था। या तो वह कुछ समय तक शांत रहता और अन्य राज्यों के साथ राजनीतिक संबंध स्थापित करके क्षेत्रीय अधिकार की समस्या को सुलझाने की कोशिश करता अथवा विस्तारवादी नीति अपनाकर विरोधियों को ललकारता। उसने दूसरी तरह की नीति अपनाई। वह अपने पिता द्वारा राज्य की सीमाओं के विस्तार में आरंभ से ही लग गया। सेना की शक्ति ने उसकी महत्वाकाँक्षाओं को और प्रोत्साहित किया। टीपू स्वयं एक कुशल सेनानायक था और युद्ध से डरने वाला नहीं था।

मंगलौर की संधि के 1 वर्ष बाद ही 1785 ई. में उसने नारगुंड और कित्तूर पर आक्रमण करके इन दोनों राज्यों पर अधिकार कर लिया। नाना फङनवीस टीपू के इस अधिकार को सहन नहीं कर सकता था, क्योंकि इस प्रकार मराठा राज्य की ओर मैसूर की शक्ति संगठित हो रही थी। नाना फङनवीस कौन थे

नाना फङनवीस ने तुरंत युद्द करने का निश्चय किया और निजाम से भी समझौता कर लिया। दोनों की सेनाओं ने मिलकर मैसूर की उत्तरी सीमाओं की ओर बढने की कोशिश की। यह युद्ध 1787 तक चलता रहा और अंत में सीमा के संबंध में संधि करके युद्ध को रोक दिया गया।

टीपू और तृतीय मैसूर युद्ध

कार्नवालिस की विस्तारवादी नीति के कारण तीसरा मैसूर युद्ध हुआ। गवर्नर जनरल ने देखा कि अँग्रेजों की प्रभुता को दक्षिण में स्थापित करने का यह एक अच्छा अवसर है क्योंकि मराठे और निजाम मैसूर की ताकत को दबाना चाहते थे। परिस्थिति का उपयोग करके गवर्नर जनरल ने इन दोनों शक्तियों से संपर्क स्थापित किया, किन्तु कोई निश्चित कदम उठाने के पूर्व वह ऐसी घटना की प्रतीक्षा कर रहा था जिससे वह योजना को पूरा कर सके।तृतीय मैसूर युद्ध

यह अवसर कार्नवालिस को मैसूर और ट्रावनकोर राज्यों के बीच विवादों के उत्पन्न होने से मिला। मैसूर के दक्षिण में ट्रावनकोर राज्य था। यहाँ राजा राम वर्मा ने ट्रावनकोर की रक्षा की दृष्टि से अंग्रेजों से संबंध स्थापित किये थे तथा ट्रावनकोर की सीमा पर ब्रिटिश सेना तैनात करने को राजी हो गया था। टीपू ने ट्रावनकोर के राजा की नीति से नाराज होकर दिसंबर, 1789 में ट्रावनकोर पर आक्रमण कर दिया।

कार्नवालिस ने ट्रावनकोर पर आक्रमण को अंग्रेजों के लिए एक चुनौती माना, क्योंकि उसका कहना था कि अंग्रेजों के एक मित्र पर हमला अंग्रेजों पर हमला है। इस प्रकार ट्रावनकोर राज्य के प्रश्न को लेकर तीसरा मैसूर युद्ध आरंभ हो गया।

युद्ध आरंभ करने से पूर्व कार्नवालिस ने दक्षिण की राजनीति को अपने पक्ष में कर लिया था। मई, 1790 में मैसूर युद्ध आरंभ करने के पहले अंग्रेजों, मराठों और निजाम ने आपस में टीपू के विरोध में संधि कर ली। इस संधि द्वारा यह निश्चित किया गया कि मराठे और निजाम अलग-अलग पच्चीस हजार सेना के साथ मैसूर की उत्तरी सीमा पर आक्रमण करेंगे।

टीपू के विरुद्ध इस गुट के बन जाने से मैसूर राज्य की जहाँ एक ओर कठिनाइयाँ बढ गयी, वहीं दूसरी ओर अंग्रेजों की शक्ति बढी। इसी गुट का निर्माण तथा युद्ध के दौरान इसकी सक्रियता टीपू की कूटनीतिक पराजय थी, जिसकी उसे भारी कीमत चुकानी पङी।

युद्ध की घटनायें

1790 के युद्ध में कई घटनायें टीपू के पक्ष में रही। प्रारंभ में अँग्रेजी सेना युद्ध में कोई सफलता प्राप्त न कर सकी। टीपू कर्नाटक की ओर बढ आया और तीरूवन्मलाङे को उसने अपने अधिकार में ले लिया।

टीपू ने अंग्रेजी सेनाओं को अनेक स्थानों पर पराजित किया और अपने युद्ध-कौशल का परिचय दिया। कार्नवालिस अंग्रेज सेनापति जनरल मीडोज की असफलता से बङा चिन्तित हुआ और उसे कहना पङा हम समय खो चुके हैं और हमारा प्रतिद्वन्द्वी प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुका है जिसका युद्ध में अत्यधिक महत्त्व है।

1791 में कार्नवालिस ने स्वयं मद्रास पहुँच कर सेनापति का पद संभाला। इससे अंग्रेजी सेना का उत्साह बढा और मराठों तथा निजाम ने भी तत्परता से सैनिक सहायता दी। इससे शीघ्र ही टीपू की कठिनाइयाँ बढने लगी।

कार्नवालिस ने बङे गुप्त तरीके से बैंगलोर की ओर बढना आरंभ किया और घमासान युद्ध के बाद बैंगलोर पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। इसके बाद गवर्नर-जनरल ने बरामहल के किलों पर भी अधिकार कर लिया। इसके बाद कार्नवालिस की सेनायें तथा बंबई से आई सेना मैसूर की राजधानी श्रीरंगपट्टम तक पहुँच गयी। यहाँ पर टीपू ने अंग्रेजों की शर्तों को स्वीकार करके संधि कर ली। मार्च, 1792 ई. की इस संधि को श्रीरंगपट्टम की संधि कहते हैं।

श्रीरंगपट्टम की संधि की शर्तें

  • टीपू को लगभग अपना आधा राज्य और क्षतिपूर्ति के रूप में 30 लाख पौंड अंग्रेजों को देना पङा।
  • इसमें से आधा भाग तो तुरंत दे दिया गया और शेष किश्तों में देने का वचन दिया गया।
  • इसके लिए टीपू ने अपने दो पुत्रों को अंग्रेजों के पास बंधक के रूप में रखना स्वीकार किया।
  • टीपू से लिये गये प्रदेश को त्रिगुट के सदस्यों में विभाजित कर दिया गया। अंग्रेजों को इस विभाजन से सबसे अधिक लाभ हुआ। उन्हें डिण्डीगल, सलेम और मालाबार के प्रदेश मिले। युद्ध में कुर्ग के राजा ने जो मैसूर के अधीन था, अंग्रेजों का साथ दिया। उसे अंग्रेजों ने अपने प्रभुत्व में ले लिया। इस प्रकार अंग्रेजों ने श्रीरंगपट्टम के आस-पास के क्षेत्रों को अपने अधिकार में कर लिया, जिससे अवसर पङने पर उसे सुगमता से जीता जा सके। निजाम को कृष्णा और पन्ना नदियों के बीच का प्रदेश दिया गया तथा मराठों को पश्चिमी कर्नाटक मिला।

तृतीय मैसूर युद्ध के परिणाम

तृतीय मैसूर युद्ध में टीपू की पराजय से उसे भारी क्षति हुई। संधि के बाद उसकी शक्ति बहुत घट गयी थी। इस कारण इतिहासकारों का मत है कि टीपू के विनाश का समय निकट आ गया था। राज्य के आधे भाग के हाथ से निकल जाने से मैसूर की आर्थिक स्थिति कमजोर हो गयी।

इतनी बङी धनराशि को अदा करने से भी टीपू की कठिनाइयाँ बढी। अब वह एक विशाल सेना को बनाये रखने की स्थिति में नहीं था। इस कारण उसे सेना की संख्या भी घटानी पङी।

इस युद्ध के विषय में कार्नवालिस ने अपनी नीति स्पष्ट करते हुए लिखा था, – हमने अपने मित्रों को ताकतवर बनाये बिना ही अपने दुश्मन को कमजोर बना दिया है। कार्नवालिस ने संधि करते समय यह ध्यान रखा था कि निजाम और मराठे बहुत ताकतवर न बन जायें। कार्नवालिस का उद्देश्य था – इनकी सहायता से टीपू को कमजोर बनाना। इसमें वह सफल रहा। ट्रावनकोर के राजा का पक्ष लेकर युद्ध आरंभ किया गया था लेकिन संधि करते समय उसका कहीं नाम नहीं लिया गया।

टीपू और चौथा मैसूर युद्ध

मई, 1798 में जब वेलेजली भारत का गवर्नर जनरल बन कर आया तो आरंभ में ही उसने सीमा विस्तार की नीति अपनाई। सहायक संधि के सिद्धांत द्वारा निजाम को उसने अपने पक्ष में कर लिया। मराठों से भी उसने बातचीत की और यह अनुमान लगा लिया कि टीपू के खिलाफ यदि अंग्रेज कोई कार्यवाही करते हैं तो मराठे या तो अंग्रेजों का साथ देंगे या तटस्थ रहेंगे। इस प्रकार परिस्थितियाँ अंग्रेजों के अनुकूल थी। चतुर्थ आंग्ल मैसूर युद्ध

टीपू के विरुद्ध गवर्नर जनरल ने यह आरोप लगाया कि वह फ्रांसीसियों से सहायता माँग कर अंग्रेजों के विरोध में शक्ति संगठन की योजना बना रहा है। किन्तु यह टीपू की शक्ति को कुचलने का एक बहाना मात्र था।

यह बहुत कुछ सत्य है कि मैसूर के फ्रांसीसियों से संबंध थे और इसके प्रमाण थे कि टीपू ने नेपोलियन से संपर्क स्थापित करने का प्रयास किया था तथा मारीशस के गवर्नर के पास उसके प्रतिनिधि गये थे। किन्तु अपने लंबे अनुभव से टीपू यह भली भाँति जानता था कि अधिक से अधिक उसे कुछ फ्रांसीसी सैनिकों को नौकर रखने की सुविधा मिल रही है।

फ्रांसीसी सैनिकों की संख्या इस समय भी मैसूर की सेना में 200 से अधिक नहीं थी। नेपोलियन अपनी ही समस्याओं में फँसा हुआ था, वह किसी प्रकार की सैनिक सहायता देने की स्थिति में नहीं था। इन तथ्यों को वेलेजली भी जानता था और अंग्रेजों को अपनी सुदृढ स्थिति पर भरोसा था।

किन्तु टीपू को पत्र लिखकर गवर्नर जनरल ने फ्रांस के साथ संबंध रखने पर आपत्ति की। उसके उत्तर से संतुष्ट न होकर टीपू से सहायक संधि की शर्तें मानने की आवश्यकता के लिए आपत्ति की तो मद्रास में बैठा हुआ वेलेजली और अधिक प्रतीक्षा न कर सका।

मैसूर पर आक्रमण

अंग्रेजी सेना पूरी तैयारी के साथ गवर्नर जनरल के हुक्म की प्रतीक्षा कर रही थी। हुक्म मिलते ही फौज ने मार्च, 1799 में मैसूर पर आक्रमण कर दिया। बम्बई की सेना ने भी पश्चिमी सीमा की ओर से अपने कदम बढाये। आरंभ में सेना बिना किसी विरोध के आगे बढती गयी। संभवतः टीपू अभी भी किसी प्रकार के राजनीतिक समाधान की आशा लगाये हुए था।

अंग्रेजों की विशाल और सुसज्जित सेना के सामने मैसूर की सेना कमजोर थी लेकिन टीपू ने श्रीरंगपट्टम में जमकर संघर्ष किया। एक साधारण सैनिक की तरह स्वयं उसने किले की रक्षा के लिए आगे बढकर युद्ध में भाग लिया और 4 मार्च, 1799 को एक वीर सैनिक की तरह किले की रक्षा करते हुए उसकी मृत्यु हो गयी।

कंपनी के प्रभुत्व को स्वीकार करने की बजाय, राज्य की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए वह बलिदान हो गया। दो महीने के युद्ध में ही अंग्रेजों ने मैसूर पर अधिकार कर लिया।

पूरे मैसूर राज्य को इस समय ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाया जा सकता था किन्तु वेलेजली ने ऐसा नहीं किया, क्योंकि दक्षिण के अन्य राज्यों को इससे धक्का लगता। मैसूर राज्य के मध्य भाग में ओडियार वंश के प्रतिनिधियों के अधिकार में देकर छोटे मैसूर राज्य को स्वीकार किया गया।

शेष क्षेत्र पर कंपनी ने अधिकार कर लिया और कुछ पर निजाम का अधिकार स्वीकार किया। मराठों को भी कुछ क्षेत्र देने का प्रस्ताव किया गया था, उसे पेशवा ने अस्वीकार कर दिया।

चौथे मैसूर युद्ध के परिणाम

चौथे मैसूर युद्ध के परिणामस्वरूप प्रायः संपूर्ण मैसूर क्षेत्र पर कंपनी का अधिकार हो गया। मैसूर के राजा का अधिकार केवल एक दिखावा था, निजाम को दिये गये जिलों से भी अंग्रेजों का प्रभुत्व नहीं घटा। निजाम ने पहले ही सहायक संधि की शर्तें मान ली थी। दक्षिण में इस समय अंग्रेजों की स्थिति वारेन हेस्टिंग्ज के समय की तुलना में बहुत मजबूत हो गयी, जिसका उन्होंने शीघ्र लाभ उठाया।

टीपू की नीतियाँ तथा उसकी असफलता के कारण

टीपू सुल्तान अपने पिता के समान ही कुशल सेनानायक था। युद्ध करने में उसने असाधारण साहस का प्रदर्शन किया। किन्तु इसके बावजूद वह पराजित हुआ और अपने पिता के द्वारा स्थापित सत्ता को नहीं बनाये रख सका। इसका एक मुख्य कारण था मैसूर राज्य के पङोसी राज्यों निजाम तथा मराठों से संबंध न सुधार सकना।

टीपू एक साहसी व्यक्ति तो था लेकिन धैर्य, साहस तथा दूरदर्शिता की उसमें कमी थी। उसकी इस कमजोरी ने उसकी कठिनाइयों को बढा दिया।

हैदरअली की तुलना में टीपू सुल्तान को कहीं अधिक कठिनाइयों का सामना करना पङा। कार्नवालिस के समय और उसके बाद अंग्रेजी सेना बहुत अधिक तैयारी कर चुकी थी। इस सेना को अन्य दो बङे राज्यों ने दोनों युद्धों में या तो साथ दिया या वे तटस्थ रहे। ऐसी परिस्थिति में टीपू सुल्तान बहुत समय तक अपनी स्वतंत्रता की सत्ता नहीं बनाये रख सकता था।

टीपू अपने पिता हैदर की भाँति कुशल राजनीतिज्ञ नहीं था। उसने मराठों तथा निजाम का सहयोग प्राप्त करने का प्रयास नहीं किया। यह उसकी असफलता का प्रमुख कारण था।

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