आधुनिक भारतइतिहास

टीपू सुल्तान (1782-1799ई. ) कौन था

टीपू सुल्तान

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टीपू का जन्म 1749 ई. में हुआ था। ऐसा माना जाता है कि एक मुसलमान फकीर टीपू सुल्तान औलिया के आशीर्वाद से हैदरअली के यहाँ उसका जन्म हुआ था। अतः उसका नाम फतेहअली टीपू रखा गया, जो इतिहास में अपनी वीरता के कारण टीपू सुल्तान के नाम से प्रसिद्ध हुआ। टीपू शिक्षित था तथा अंग्रेजों व मराठों के प्रति उसका दृष्टिकोण अधिक कठोर था। कुछ अंग्रेज इतिहासकारों ने टीपू के विषय में अनेक गलत तथ्यों को प्रस्तुत कर उसे धर्मान्ध व अत्याचारी शासक बताने का प्रयास किया है, किन्तु आधुनिक भारतीय इतिहासकारों ने टीपू में बहुत सी भ्रांतियों को दूर कर दिया है।

टीपू सुल्तान ने अपने पिता हैदरअली के विपरीत (जिसने सार्वजनिक रूप से शाही उपाधि धारण नहीं की) खुलेआम सुल्तान की उपाधि धारण की तथा 1787 में अपने नाम से सिक्के जारी करवाया।

टीपू द्वारा जारी सिक्कों पर हिन्दू देवी-देवताओं के चित्र तथा हिन्दू संवत् की आकृतियां अंकित थी।

टीपू ने वर्षों और महीनों के नाम से अरबी भाषा का प्रयोग करवाया।

टीपू सुल्तान ने श्रृंगेरी के जगद्गुरू शंकराचार्य के सम्मान में मंदिरों के पुनर्निर्माण व्यवस्था का मिश्रण किया।

फ्रांसीसी क्रांति से प्रभावित टीपू ने श्रीरंगपट्टनम् में जैकोबिन क्लब की स्थापना की तथा उसका सदस्य बना।

टीपू ने अपनी राजधानी में फ्रांस और मैसूर के मैत्री का प्रतीक स्वतंत्रता का वृक्ष रोपा।

टीपू सुल्तान ने अपने समकालीन विदेशी राज्यों से मैत्री संबंध बनाने तथा अंग्रेजों के विरुद्ध उनकी सहायता प्राप्त करने के उद्देश्य से अरब,कुस्तुनतुनिया अथवा वार्साय काबुल और मॉरीशस को दूतमंडल भेजा।

अंग्रेजी नौसेना के मुकाबले के उद्देश्य से टीपू ने 1796 ई. में एक नौसेना बोर्ड का गठन किया। मंगलौर, मोलीबाद,दाजिदाबाद आदि में टीपू ने पोत निर्माण घाट (Dock yard ) का निर्माण कराया।

टीपू आधुनिक उद्योगों की स्थापना में रुचि लेता था, उसने देशी तथा अंतर्देशी वायापार को बढावा देने के उद्देश्य से अपने गुमाश्तों की नियुक्ति व्यापारिक केन्द्र मस्कट, ओर्मुज जद्दाह तथा अदन में किया।

टीपू ने जमींदारी व्यवस्था को समाप्त कर सीधे रैय्यत से संपर्क स्थापित किया, साथ ही कर मुक्त भूमि इनाम पर अधिकार कर पॉलिगर के पैतृक अधिकार को जब्त कर लिया।

साम्राज्यवादी लेखकों ने टीपू को सीधा सादा दैत्य कहा।

टीपू का मूल्यांकन

वस्तुतः टीपू स्वाधीनता का प्रेमी था तथा अंग्रेजों के प्रति घृणा उसे विरासत में मिली थी। यह सत्य है कि वह अत्यधिक महत्वाकांक्षी था, किन्तु अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने की उसमें शक्ति भी थी। हैदरअली और टीपू की नीतियों में यही अंतर था कि हैदर ऐसी किसी भी शक्ति से मैत्री करने को तैयार रहता था जो उसे सैनिक सामग्री उपलब्ध करने में सहायक हो, किन्तु टीपू को जो अंग्रेज व मराठा विरोधी भावनाएँ विरासत में मिली थी। यद्यपि टीपू में उच्चकोटि की प्रतिभा थी, किन्तु वह अपने पिता के समान कूटनीति व राजनीतिक दाँवपेचों का मर्मज्ञ नहीं था। इसलिए वह अपने विरुद्ध संगठित शत्रुओं के संघ को तोङने में असमर्थ रहा।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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