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मराठा संघ का पतन के कारण

मराठा संघ का पतन

मराठा संघ का पतन (Reasons for the decline of the Maratha confederacy)-

भूमिका

1761 ई. में अहमदशाह अब्दाली के हाथों पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की बहुत बुरी तरह से हार हुई थी, जिसके परिणामस्वरूप उनकी काफी मानहानि हुई। परंतु थोङे समय में ही मराठों ने अपनी खोई हुई शक्ति और गौरव को फिर से प्राप्त कर लिया। 1771 ई. में वे फिर दिल्ली पर चढ आए और उन्होंने मुगल सम्राट को फिर से अपनी मुट्ठी में कर लिया। परंतु शीघ्र ही उन्हें अंग्रेजों से उलझना पङा। लार्ड वेलेजली के समय में उन्हें फिर पराजय का मुँग देखना पङा और अंत में लार्ड हेस्टिंग्ज के समय में उनके साम्राज्य का बहुत सा भाग अंग्रेजी साम्राज्य में मिला लिया गया। इस प्रकार महान मराठा साम्राज्य का पतन हुआ।

मराठा संघ का पतन

मराठा संघ के पतन के कारण(maraatha sangh ka patan ke kaaran)

मराठा संघ के पतन के प्रमुख कारणों का विवरण निम्नलिखित है-

मराठा संघ के विभिन्न सदस्यों में आपसी ईर्ष्या-द्वेष

मराठा संघ के विभिन्न सदस्य जैसे पेशवा, होल्कर, भौंसले, सिन्धिया और गायकवाङ आदि आपस में उलझ पङे इसीलिए उन्होंने बहुत सी शक्ति और साधन वैसे ही खो दिये जो वे अपने शत्रुओं के विरुद्ध प्रयुक्त कर सकते थे। आपस में ईर्ष्या-द्वेष रखने वाले तथा झगङने वाले मराठा सरदार अंग्रेजों की संगठित शक्ति का कब तक मुकाबला कर सकते थे। अंतिम पेशवा बाजीराव-द्वितीय पर अपना प्रभाव जमाने के उद्देश्य से सिन्धिया और होल्कर में संघर्ष चल पङा, उसके कारण ही अंग्रेजों को मराठा राजनीति में दखल देने का अवसर मिल गया।

इस आपसी मतभेद और ईर्ष्या के कारण ही दूसरे मराठा युद्ध में सिन्धिया और भौंसले के आमंत्रित करने पर भी होल्कर ने उनका साथ न दिया और जान-बूझ कर वह अलग रह कर तमाशा देखता रहा, चाहे अगले ही वर्ष उसे अपने किये का फल मिल गया, जब अकेले ही उसे अंग्रेजों से लङना पङा। अंग्रेज राजनीतिज्ञों ने स्वयं यह माना है- यह बात सर्वमान्य है और इसके लिए उचित कारण भी है कि मराठों के आपसी झगङों के सिवाय अन्य कोई भी चीज उनको नष्ट नहीं कर सकती और हिन्दुस्तान की अन्य शक्तियों का यह सौभाग्य है कि मराठा सरदार आपस में एक-दूसरे से लाभ उठाने को सदैव तैयार रहते हैं।

सुदृढ आर्थिक दशा का न होना

मराठे अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत करने की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं देते थे, इसलिए उन्हें सदा धन का अभाव रहता था। उनकी आय और व्यय के सब कार्य और साधन अस्त-व्यस्त थे और कर लगाने का ढंग भी कोई सुव्यवस्थित नहीं था। ऐसी अव्यवस्था में राज्य की आय का कोई अनुमान ही नहीं लगाया जा सकता था। उनका अपने प्रदेश भी कोई उपजाऊ नहीं था, इसलिए वहाँ से भी कोई इतना भूमिकर नहीं आ सकता था जिससे अपना कार्य चला सकें। इस आर्थिक स्थिति के कमजोर होने के कारण मराठों की राजनीतिक उन्नति लंबे समय तक नहीं हो सकती थी।

लूटमार की नीति

अपने व्यय को पूरा करने के उद्देश्य से मराठों को अधिकतर आक्रमण और लूटमार की नीति पर चलना पङा, किन्तु ऐसी नीति से वे अपने और अपनी सरकार के लिए आदर और सम्मान प्राप्त नहीं कर सके। जनसाधारण ने उनसे घृणा करनी प्रारंभ कर दी इसलिए अधिकृत प्रदेशों में उनकी जङे पूर्णतया न जम सकीं। डॉ. श्रीवास्तव के अनुसार-सार्वजनिक सहानुभूति और सहायता भी सुरक्षा की दूसरी पंक्ति बन जाती है। इस नजर से जनता की दुर्भावना भी मराठा शक्ति का एक अनिवार्य कारण कहा जा सकता है।

प्रबंध व्यवस्था का शिथिल हो जाना

बाद के पेशवाओं के अधीन प्रबंध व्यवस्था भी बङी शिथिल हो गयी और जनसाधारण की भलाई के लिए कुछ भी न किया गया। एडवर्ड का कहना है कि मराठा शक्ति के पतन का मुख्य कारण यह था कि बाद के मराठा सरदार अपनी प्रजा का तनिक भी ध्यान नहीं रखते थे। वे लोगों की शिक्षा, सांस्कृतिक उन्नति और सार्वजनिक भलाई के लिए कुछ भी नहीं करते थे। परिणामस्वरूप उन्होंने जनसाधारण की सहानुभूति खो दी और जब उन पर विपत्ति आई तो किसी ने भी उनको बचाने के लिए कुछ न किया। एडवर्ड के अनुसार – मराठों की प्रशासनिक प्रणाली मराठा साम्राज्य के लिए सृजनात्मक न होकर विनाशात्मक अधिक थी।

किसी केन्द्रीय शक्ति का अभाव

पेशवाओं के अधीन विशेषकर उत्तरकालीन पेशवाओं के अधीन, कोई भी ऐसी संगठित केन्द्रीय शक्ति न रही जो सभी मराठा सरदारों के हितों के लिए मिलकर कार्य करने के लिए बाध्य कर सकती। मराठा संघ वास्तव में न कोई राज्य था और न ही कोई संघ। वह तो कुछ मराठों का ढीला-ढाला संगठन था जो कभी-कभी तो मिलकर कार्य कर लेता था, परंतु वह किसी भी क्षण आपसी स्वार्थों के टकराव से विघटित भी हो जाता था। केन्द्रीय शक्ति का अभाव मराठों के लिए बहुत महंगा पङा और यह उनके पतन का एक प्रमुख कारण सिद्ध हुआ।

जागीर प्रथा

एक अन्य बात जिसने मराठों को दुर्बल बना दिया, वह थी सामंतशाही या जागीर प्रथा को फिर से अपनाना। शिवाजी ने इस प्रथा की बुराइयों को ध्यान में रखते हुए इसको दूर करने का प्रयत्न किया था, परंतु राजाराम ने इस प्रथा को फिर से चालू कर दिया। ये जागीरदार लोग सदा राष्ट्रीय हितों की अपेक्षा अपने स्वार्थों का अधिक ध्यान रखते थे और केन्द्रीय सत्ता से दूर रहने की चेष्टा करते थे। इनके ऐसे प्रयत्नों ने भी मराठा साम्राज्य को छिन्न-भिन्न करने में बङा सहयोग दिया।

उत्तरी अभियान की त्रुटी

मराठों का उत्तरी भारत को विजय करना एक भारी भूल थी, विशेषकर उस समय जबकि दक्षिण में उनके विरोधी बैठे हुए थे। उनका उत्तर में जाना इतना ही भयंकर सिद्ध हुआ जितना कि औरंगजेब द्वारा दक्षिण में आना और दक्षिणी राज्यों को अपने साम्राज्य में मिलाना।

इस विषय में डॉ.एस.आर.शर्मा का कहना है- उनकी (मराठों) सबसे महान भूल उनका उत्तरी अभियान था। गिरते हुए वृक्ष के तने पर चोट करना वास्तव में बङा भारी आकर्षण था, परंतु मराठे उसके लिए पूरी तरह से तैयार न थे। अपने घर के झगङों को तय करना, बाहरी साम्राज्य के लिए प्रयत्न करने से अधिक आवश्यक था। निजाम, सिद्दी तथा यूरोपियन जैसे शत्रु घर के निकट ही मौजूद थे जिनको अलग करना अत्यंत आवश्यक था, परंतु इनको मूर्खता के कारण रहने ही नहीं दिया गया, वरन उन्हें और भी शक्तिशाली हो जाने दिया गया।

पानीपत का विनाश

1761 ई. से पहले मराठों का यश सब ओर फैला हुआ था, यहाँ तक कि मुगल सम्राट भी उनकी मुट्ठी में था। केसरिया झंडा अटक के किले पर फहराने लगा था। इस हिन्दू साम्राज्य को एक मरणान्तक चोट तब पहुँची जब 1761 ई. में अफगानिस्तान के शासक अहमदशाह अब्दाली से उन्हें पानीपत की तीसरी लङाई में एक करारी हार मिली। इस पराजय से एक ओर मराठों का सारा सम्मान मिट्टी में मिल गया और उनके खोखलेपन का सबको पता चल गया। दूसरी तरफ, मराठों और मुसलमानों ने आपस में लङकर अपने आपको इतना कमजोर कर लिया कि एक तीसरी शक्ति अर्थात अंग्रेजों के उत्थान के लिए मार्ग खुल गया।

राष्ट्रीयता के आदर्श का परित्याग

शिवाजी ने हिन्दू पद-पादशाही या हिन्दू राज्य स्थापित करने के लिए अपना जीवन व्यतीत किया था, परंतु इसके बाद बहुत से मराठा सरदारों, विशेषकर इन्दौर के होल्कर ने साम्राज्यवाद के नशे में हिन्दू राज्य की स्थापना के इस आदर्श को भुला दिया और राजपूतों तथा जाटों पर आक्रमण करने प्रारंभ कर दिये। पानीपत की चोट से भी उन्हें यह समझ न आई कि अपने सजातीय राज्यों पर आक्रमण नहीं करने चाहिए।

इस नीति का यह परिणाम हुआ कि अन्य हिन्दू-राज्य मराठों के शत्रु हो गए और राष्ट्रीय संकट के समय में भी वे मराठों को सहयोग देने के लिए आगे न आए। इस विषय में श्री.वी.वी.जोशी ने ठीक ही कहा है – शिवाजी के स्वराज्य में अर्थात मराठों के इतिहास के शाही काल में मराठे राष्ट्रीय तथा सामूहिक प्रभुत्व रखते थे।

शिवाजी ने उन्हें राष्ट्रीय स्वतंत्रता तथा हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए प्रेरित रखते थे। शिवाजी ने उन्हें राष्ट्रीय स्वतंत्रता तथा हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए प्रेरित किया, इसलिए उन्हें अपने कार्य में सफलता मिली, परंतु इसके विपरीत पेशवाओं के राज्य काल में मराठों ने पठानों तथा यूरोपियनों की सहायता से अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार करना चाहा और उसके लिए राजपूतों तथा जाटों को भी न छोङा। इससे मराठों की अपनी शक्ति क्षीण हुई और दूसरे हिन्दुओं ने मराठा साम्राज्य की स्थिरता के लिए हार्दिक देना छोङ दिया।

युद्ध की समुचित तथा नवीन पद्धति का विकास न करना

मराठों को ऐसी जाति से मुकाबला करना पङा जो लङाई के नवीनतम ढंगों से परिचित थी, परंतु मराठों ने अपने लङाई के पुराने ढंग अर्थात् गुरिल्ला-युद्ध पद्धति को भुला दिया, परंतु नए ढंगों को सीखने का कोई प्रयत्न न किया। परिणामस्वरूप वे न तो इधर के रहे और न ही उधर के रहे।

शिवाजी ने गुरिल्ला-युद्ध पद्धति को अपनाया था और क्योंकि उनका विजय-क्षेत्र पहाङी भागौं तक ही सीमित था, इसलिए उन्हें काफी सफलता प्राप्त हुई, परंतु जब मराठों का साम्राज्य बहुत विस्तृत हो गया और लङाइयाँ मैदानों में लङी जाने लगी तब वह युद्ध पद्धति इतनी सफल सिद्ध न हुई। ऐसी स्थिति में मराठों को समय के अनुकूल अपने लङाई के ढंगों में उचित परिवर्तन कर लेने चाहिए थे।

सरदेसाई ने इसी विचार को इन शब्दों में व्यक्त किया है – चूँकि मराठों की गुरिल्ला-युद्ध प्रणाली व्यवस्थित तोपखाने और प्रशिक्षित पैदल सेना के सामने नहीं ठहर सकती थी इसीलिए उसका प्रयोग करना बंद हो गया और इसकी जगह लेने के लिए कोई भी चीज न रह गयी। परंतु इस दिशा में कुछ न किया गया।

अंग्रेजों का भौगोलिक ज्ञान

मराठों को उत्तरी भारत का समुचित भौगोलिक ज्ञान नहीं था। इसके विपरीत अंग्रेजों ने भारत की भौगोलिक परिस्थितियों का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। इस भौगोलिक ज्ञान के बल पर अंग्रेजों ने मराठों के विरुद्ध सैनिक अभियान किये और उनमें सफलता प्राप्त की। उन्होंने अपने अभियानों के अन्तर्गत ऐसे स्थान चुने जहाँ उन्हें पर्याप्त मात्रा में युद्धसामग्री प्राप्त हो सकती थी। परंतु भौगोलिक ज्ञान के अभाव में मराठों को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पङा।

मराठा सेना में अनुशासन और संगठन का अभाव

मराठा सैनिक न केवल लङाई के नवीनतम ढंगों से ही अपरिचित थे वरन उनमें अनुशासन और संगठन की भी कमी थी। मराठा सरदार और सैनिक दोनों अनुशासन में रहना पसंद नहीं करते थे और उनमें मिलकर काम करने का अभाव था। वे सदा अपना-अपना राग अलापने में मस्त रहते थे और युद्ध क्षेत्र में भी वे एक-दूसरे के अधीन रहकर काम करना नहीं जानते थे। इसलिए अव्यवस्थित और असंगठित मराठा सेना एक व्यवस्थित और अनुशासित ब्रिटिश सेना के सामने हार गई।

उत्तरकालीन मराठों का नैतिक पतन

उत्तरकालीन मराठों ने शिवाजी के उच्च नैतिक आदर्शों को भुला दिया और दुराचारपूर्ण जीवन व्यतीत करना प्रारंभ कर दिया। सैनिक नेताओं ने स्त्रियों को अपने साथ युद्ध क्षेत्र में ले जाना प्रारंभ कर दिया। एस.आर.शर्मा के अनुसार, शिवाजी के समय में आक्रमण के समय किसी स्त्री को ले जाना एक सैनिक अपराध माना जाता था, जिसके लिए मृत्यु-दंड था। पेशवाओं के समय में यह एक मान्यता प्राप्त फैशन बन गया। उत्तरकालीन मराठे बिल्कुल उत्तरवर्ती मुगलों की भाँति विलासिता के शिकार हो गये और फलतः उनका विनाश भी ऐसे ही हुआ।

जातिगत द्वेष

मराठे अनेक जातियों में विभाजित थे। ये जातियाँ एक-दूसरे से ईर्ष्या करती थी जिसके परिणामस्वरूप इनमें फूट बढती गई। डॉ.जगन्नाथ मिश्र का कथन है कि जातियों के बीच जलन भी मराठा संघ के पतन का एक कारण बनी। पेशवा माधवराव की मृत्यु के बाद जातियों का विद्वेष मराठा राजनीति को भी प्रभावित करने लगा। इस प्रकार जातिगत द्वेष के कारण मराठों के बीच फूट बढती गयी। विभाजन के अन्य कारण तो पहले से ही मौजूद थे, जाति के घमंड से मराठों के बीच एकता लाना और भी कठिन हो गया।

साम्राज्य का विस्तार

बाजीराव प्रथम की साम्राज्यवादी नीति के कारण उत्तरी भारत में भी मराठा राज्य का काफी विस्तार हुआ परंतु मराठों ने अपने विजित प्रदेशों की शासन व्यवस्था की ओर उचित ध्यान नहीं दिया। वी.बी.कुलकर्णी का कथन है कि मराठों के साम्राज्य का विस्तार भी उनके पतन के लिए उत्तरदायी था। भाषा तथा धर्म की एकता जिसने मराठों को एक शक्तिशाली राष्ट्र में परिवर्तन कर दिया था, साम्राज्य-विस्तार के साथ दुर्बल हो गयी और रंगरूटों के भर्ती करने तथा युद्ध प्रणाली में क्रांतिकारी परिवर्तन अनिवार्य हो गया था। विदेशियों के विश्वासघात ने यह सिद्ध कर दिया कि भाङे की सेना पर अत्यधिक भरोसा नहीं किया जा सकता था।

योग्य नेतृत्व का अभाव

योग्य सेनाओं के अभाव में भी मराठों को भीषण पराजयों का सामना करना पङा। एलफिन्स्टन का कथन है कि यह अंग्रेजों का सौभाग्य था कि बाजीराव व सिन्धिया दोनों में ही इस घोर विपत्ति के समय साहस के साथ उनसे टक्कर लेने की शक्ति और उत्साह नहीं था। यदि उस समय कोई अन्य सुलझा हुआ व्यक्ति पेशवा के पद पर होता तो अंग्रेजों का क्या हाल होता, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। मराठों के पास हथियार, धन, सोना, गोला-बारूद सब कुछ था, उन्हें केवल एक योग्य नेता की आवश्यकता थी। बाजीराव दक्षिण में तथा दौलतराव सिन्धिया उत्तर में, दोनों ही राष्ट्र के प्रति विश्वासघाती बन गए और सारा खेल बिगङ गया।

तोपखाने के लिए विदेशियों पर निर्भर रहना

मराठों ने सेना के महत्त्वपूर्ण अंग अर्थात् तोपखाने की बिल्कुल अवहेलना कर दी। परिणामस्वरूप वे अंग्रेजों का मुकाबला न कर सके जिनके पास भारी तोपखाना तथा उसके चलाने के लिए अत्यंत प्रशिक्षित व्यक्ति थे। अच्छे से अच्छे मराठा सैनिक भी तोपों के सामने ठहर नहीं सकते थे।

जब मराठों ने तोपखाना रखने का प्रयत्न भी किया तो भी उन्हें बंदूकों, तोपों, बारूद और यहाँ तक कि उनके चलाने के लिए प्रशिक्षित व्यक्तियों के लिए विदेशियों पर निर्भर रहना पङा जो एक अच्छी बात नहीं थी। उन्होंने तोपें बनाने का भी प्रयत्न नहीं किया। इस विषय में सरदेसाई लिखते हैं – पर यह बात समझ में नहीं आती कि महादजी और नाना फङनवीस जैसे मराठा प्रशासकों ने युद्ध की इस प्रधान शाखा में अपने निजी आदमियों को प्रशिक्षित क्यों नहीं किया।

एक अन्य स्थान पर फिर उन्होंने लिखा है- पेशवाओं को अनेक अवसरों पर पश्चिमी जातियों के पास से गोला बारूद और तोपें मँगवानी पङी और अनेक बार इन चीजों के अभाव में वे लङाइयाँ तक हार गये। इस दिशा में आवश्यक प्रशिक्षण और सामग्री सरलता से प्राप्त की जा सकती थी, परंतु फिर भी उन्हें यह बात न सूझी कि आखिर ये चीजें बनाई कैसे जाती हैं और उनका उत्पादन यहाँ क्यों नहीं किया जा सकता है।

सामुद्रिक शक्ति की अवहेलना

मुगलों की भाँति मराठों ने भी अपनी सामुद्रिक शक्ति की प्रायः अवहेलना ही कर दी। यह ठीक है कि अकेला जहाजी बेङा मराठों को पतन से नहीं बचा सकता था, परंतु फिर भी अंग्रेजों का मुकाबला करने में उनकी काफी सहायता अवश्य कर सकता था। इस सामुद्रिक शक्ति की अवहेलना ने उनके पतन को और भी निकट ला दिया।

इस विषय में सरदेसाई लिखते हैं – बाजीराव प्रथम और उसके भाई चिमनाजी ने घोर युद्ध के बाद पुर्तगालियों से बेसीन जीता था और उसके बाद हमेशा मराठा लोग बङे गर्व के साथ उस विजय की बात कहा करते थे, परंतु पुर्तगालियों के साथ होने वाले अपने जलयुद्ध से प्राप्त अनुभव द्वारा उन्हें एक महत्त्वपूर्ण कदम उठाने की बात न सूझी अर्थात आत्म-रक्षा के लिए सामुद्रिक शस्त्रागार और जहाज बनाने के कारखानों की स्थापना करना।

नाना फङनवीस की स्वार्थपूर्ण नीति

यद्यपि नाना फङनवीस एक योग्य कूटनीतिज्ञ था, परंतु उसके चरित्र में अनेक दोष थे। वह बङा घमंडी, दुराग्रही और सत्ता का भूखा था। उसने रघुनाथराव के साथ अत्यधिक कठोर व्यवहार किया जिसके परिणामस्वरूप उसे अंग्रेजों की शरण में जाना पङा।

उसने पूना में अपना निरंकुश शासन बनाये रखने के लिए हर संभव उपाय किये जिससे महादजी सिन्धिया तथा अन्य मराठा सरदारों में असंतोष था। डॉ.एम.एस. जैन का कथन है कि वास्तव में मराठा संघ की असफलता का उत्तरदायित्व नाना फङनवीस की नीतियों पर है। नाना का लक्ष्य केवल दक्षिण भारत तक सीमित था। उसके लिए निजाम तथा टीपू ही मुख्य शत्रु थे। वह अंग्रेज समर्थक था। 1790 में अंग्रेजों का साथ देकर उसने टीपू की शक्ति को कुचल दिया। उसने अंग्रेजों के साथ 1796-98 ई. में संधि करने का प्रस्ताव किया। उसने विभिन्न मराठा नेताओं को एक दूसरे से अलग करके समाप्त कर दिया।

कूटनीति में मराठे अंग्रेजों का मुकाबला नहीं कर सकते थे

इस बात में भी तनिक संदेह नहीं कि मराठे कूटनीति में अंग्रेजों का मुकाबला न कर सके। युद्ध से पहले ही अंग्रेजों को इस बात का पूरा ज्ञान होता था कि मराठों के पास कितनी सेना है, उनके मार्ग में कौन सी नदियाँ और पुल आयेंगे और किस पुल को उङाने से उन्हें रोका जा सकता है।

इसके अलावा उन्हें इस बात का भी ज्ञान होता था कि मराठा सेना में से ही कौन से व्यक्तियों को खरीदा जा सकता है और इस प्रकार शत्रु को कैसे कमजोर किया जा सकता है। बहुत से अंग्रेजों ने विभिन्न देशी भाषाओं को सीख लिया था इसीलिए वे चुपके-चुपके बङी आवश्यक सूचनायें अपने अधिकारियों को पहुँचा देते थे।

इसके विपरीत मराठा राज्य में ऐसा कोई विरला ही व्यक्ति था जो अंग्रेजी जानता हो, इसलिए मराठों द्वारा अंग्रेजों की सैनिक तैयारियों के विषय में कोई भी उपयोगी सूचनाएँ प्राप्त करने का प्रश्न ही नहीं उठता था। परिणामस्वरूप वे अनजाने में ही पकङे जाते थे और बहुत हानि उठा बैठते थे।

उधर अंग्रेज कूटनीति के माहिर थे। उन्होंने सहायक संधि प्रणाली द्वारा बहुत सी भारतीय शक्तियों को अपने साथ गांठ लिया जबकि मराठों ने कभी हैदराबाद के निजाम, कभी हैदरअली, कभी टीपू सुल्तान और कभी राजपूतों और कभी जाटों आदि से लङकर एक ओर अपनी शक्ति और साधनों का नाश किया और दूसरे भारतीय शक्तियों को कमजोर करके अंग्रेजों के हाथों को मजबूत किया। इसलिए यह कहा जा सकता है कि मराठे इसलिए भी असफल रहे क्योंकि वे कूटनीति में अंग्रेजों से पिछङ गये।

बङे-बङे मराठा सरदारों की असामयिक मृत्यु

मराठों के पतन का अंतिम और एक महत्त्वपूर्ण कारण यह भी था कि अंग्रेजों और मराठों के मध्य जब वास्तविक युद्ध प्रारंभ हुआ, उससे पहले ही बङे-बङे मराठा सरदार इस संसार से चल बसे थे और उनके उत्तराधिकारी बङ निकम्मे, स्वार्थी और अयोग्य सिद्ध हुए।

18 वीं शताब्दी के अंतिम ग्यारह वर्षों में मराठा राज्य के अधिकांश अनुभवी और योग्य व्यक्ति मृत्यु का शिकार हुए, यह मराठों का दुर्भाग्य था। महान न्यायाधीश रामशास्त्री की मृत्यु सन 1789 में हुई, महादजी सिन्धिया तथा हरिपंथ फङके की सन 1794 ई. में, अहिल्याबाई होल्कर तथा पेशवा माधवराव-द्वितीय की सन 1795 में, तुकोजी होल्कर की सन् 1797 ई. में, परशराम भाऊ पटवर्द्धन की 1799 ई. में तथा अंत में नाना फङनवीस की मृत्यु सन 1800 ई. में हो गयी।

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