आधुनिक भारतइतिहास

मुगल साम्राज्य के पतन के कारण क्या थे?

मुगल साम्राज्य के पतन के कारण

मुगल साम्राज्य के पतन के कारण –

जिस मुगल साम्राज्य ने समकालीन संसार को अपने विस्तृत प्रदेश, विशाल सेना तथा सांस्कृतिक उपलब्धियों से चकाचौंध कर दिया था, 18 वीं शताब्दी के आरंभ में वह अवनति की ओर जा रहा था। औरंगजेब का राज्यकाल मुगलों का सांध्य काल था। साम्राज्य को अनेक व्याधियों ने घेर रखा था और यह रोग शनैंः-शनैः समस्त देश में फैल रहा था। औरंगजेब की मृत्यु के बाद आने वाले 52 वर्षों में आठ सम्राट दिल्ली के सिंहासन पर आरूढ हुए। भारत के भिन्न-भिन्न भागों में देशी और विदेशी शक्तियों ने अनेक छोटे-बङे राज्य स्थापित किए। बंगाल, अवध और दक्कन आदि प्रदेश मुगल नियंत्रण से बाहर हो गए। उत्तर-पश्चिम की ओर से विदेशी आक्रमण होने लगे तथा विदेशी व्यापारी कंपनियों ने भारत की राजनीति में हस्तक्षेप करना आरंभ कर दिया। परंतु इतनी कठिनाइयों के होते हुए भी मुगल साम्राज्य का दबदबा इतना था कि पतन की गति बहुत धीमी रही। 1737 ई. में बाजी राव प्रथम और 1739 में नादिर शाह के दिल्ली पर आक्रमणों ने मुगल साम्राज्य के खोखलेपन की पोल खोल दी और 1740 तक यह पतन स्पष्ट हो गया।

मुगल साम्राज्य का पतन

क.) उत्तरकालीन मुगल सम्राट

मार्च 1707 में औरंगजेब की मृत्यु, उसके पुत्रों में उत्तराधिकार के युद्ध का बिगुल था। मुहम्मद मुअज्जम (शाह आलम), मुहम्मद आजम, कामबख्श में से सबसे बङे पुत्र मुहम्मद मुअज्जम की विजय हुई। उसने जजाओ के स्थान पर 18 जून, 1707 को आजम को और हैदराबाद के समीप 13 जनवरी, 1709 को कामबख्श को हरा कर मार डाला और स्वयं बहादुरशाह प्रथम की उपाधि धारण कर सिंहासन पर बैठ गया। उस समय उसकी आयु 63 वर्ष की थी और वह एक सक्रिय नेता के रूप में कार्य नहीं कर सकता था। मुहम्मद मुअज्जम ने शिवाजी के पौत्र शाहू को जो 1689 से मुगलों के पास कैद था, मुक्त कर दिया और महाराष्ट्र जाने की अनुमति दे दी। राजपूत राजाओं से भी शांति स्थापित कर ली और उन्हें उनके प्रदेशों में पुनः स्थापित कर दिया। परंतु बहादुरशाह को सिक्खों के विरुद्ध कार्यवाही करनी पङी क्योंकि उनके नेता बंदा बहादुर ने पंजाब में मुसलमानों के विरुद्ध एक व्यापक अभियान आरंभ कर दिया था। बंदा लोहगढ के स्थान पर हार गया। मुगलों ने सरहिन्द को 1711 में पुनः जीत लिया परंतु यह सब होते हुए भी बहादुरशाह सिक्खों को मित्र नहीं बना सका और न ही कुचल सका।

27 फरवरी, 1712 को बहादुरशाह की मृत्यु हो गयी। प्रसिद्ध लेखक सर सिडनी ओवन के अनुसार, यह अंतिम मुगल सम्राट था जिसके विषय में कुछ अच्छे शब्द कहे जा सकते हैं। इसके बाद मुगल साम्राज्य का तीव्रगामी और पूर्ण पतन, मुगल सम्राटों की राजनैतिक तुच्छता और शक्तिहीनता का द्योतक था।

1712 में बहादुरशाह की मृत्यु के बाद उसके चारों पुत्रों, जहांदरशाह, अजीम-उस-शान, रफी-उस-शान और जहान शाह में उत्तराधिकार का युद्ध आरंभ हो गया। इस उत्तराधिकार के प्रश्न को हल करने में उसके पुत्रों ने इतनी निर्लज्ज शीघ्रता की कि बहादुरशाह का शव एक मास तक दफन भी नहीं किया जा सका। दरबार में ईरानी दल के नेता जुलफिकार खां की सहायता से जहांदरशाह (मार्च, 1712 से फरवरी 1713) सफल हुआ। कृतज्ञ सम्राट ने जुलफिकार खां को अपना प्रधान मंत्री नियुक्त कर दिया। दस मास के भीतर ही जहांदरशाह को अजीम-उस-शान के पुत्र फर्रुखसीयर ने सैयद बंधुओं की सहायता से चुनौती दी और 11 फरवरी, 1713 को उसे हरा कर मार डाला। कृतज्ञ फर्रुखसीयर (1713-1719) ने अब्दुल्ला खां को वजीर और हुसैन अली को मीर बख्शी नियुक्त कर दिया। परंतु शीघ्र ही सम्राट ने सैयद बंधुओं के जूए को उतार फेंकने की सोची और इस हेतु एक षङयंत्र रचा। परंतु सैयद बंधु सम्राट से अधिक चालाक थे और उन्होंने मराठा सैनिकों की सहायता से 28 अप्रैल, 1719 को सम्राट का गला घोंट दिया। फर्रुखसीयर के राज्यकाल ने मुगलों की सिक्खों पर विजय दुंदुभी बजती देखी। गुरदासपुर के स्थान पर उनका नेता बंदा बहादुर पकङ लिया गया और दिल्ली में 19 जून, 1716 को उसका वध कर दिया गया। 1717 में सम्राट ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को बहुत सी व्यापार संबंधी रियायतें दे दी। इन से बिना सीमा शुल्क के बंगाल के रास्ते व्यापार भी किया जा सकता था।

फर्रुखसीयर की मृत्यु के बाद बंधुओं ने शीघ्रताशीघ्र एक के बाद एक सम्राट दिल्ली के सिंहासन पर बैठाए। इस प्रकार रफी-उद्-दरजात (28 फरवरी से 4 जून, 1719), रफी-उद्-दौला (6 जूनसे 17 सितंबर, 1719) और फिर मुहम्मद शाह (सितंबर 1719 से अप्रैल, 1748) सम्राट रहे। घटना-चक्र ने पूरा चक्कर काट डाला और तूरानी अमीरों के नेतृत्व में 9 अक्टूबर, 1720 को हुसैन अली का वध कर दिया गया और 15 नवम्बर, 1720 को अब्दुल्ला खां बंदी बना लिया गया। इसी मुहम्मदशाह के राज्य काल में निजाम-उल-मुल्क के दक्कन में एक स्वतंत्र राज्य बना लिया। सआदत खां ने अवध में और मुरगशिदकुली खां ने बंगाल, बिहार और उङीसा प्रांतों में लगभग स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिए। मार्च, 1737 में बाजी राव प्रथम केवल 500 घुङसवार लेकर दिल्ली पर चढ आया। सम्राट डर कर भागने को उद्यत था। 1739 में नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण किया और मुगल साम्राज्य को औंधा और जख्मी बना कर छोङ गया।

नए मुगल सम्राट अहमद शाह (1748-54) और आलमगीर द्वितीय (1754-59) इतने निर्बल थे कि वे इस पतन को रोक नहीं सके। उत्तर-पश्चिम की ओर से अहमद शाह अब्दाली ने 1748, 1749, 1752, 1756-57 और 1759 में आक्रमण किए और वह अधिकाधिक उद्दंड होता चला गया। शीघ्र ही पंजाब पठानों ने और मालवा और बुंदेलखंड मराठों ने छीन लिए तथा अन्य स्थानों पर भी आक्रमण किए। शाह आलम द्वितीय (1759-1806) और उसके उत्तराधिकारी केवल नाममात्र के ही सम्राट थे और अपने अमीरों, मराठों अथवा अंग्रेजों के हाथ की कठपुतलियाँ ही थे। 1803 में अंग्रेजों ने दिल्ली जीत ली। अंग्रेजों ने मुगल साम्राज्य का ढोंग 1858 तक बनाए रखा जब अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर को रंगून में निर्वासित कर दिया गया।

ख.) उत्तरकालीन मुगल अभिजात वर्ग

ग.) सैयद बंधुओं की उत्तरकालीन मुगल राजनीति में भूमिका

घ.) नवीन राज्यों का उत्थान

ङ.) उत्तर-पश्चिम से विदेशी आक्रमण

च.) मुगल साम्राज्य के पतन के कारण

औरंगजेब का उत्तरदायित्व

मुगल साम्राज्य का अधिकतर विस्तार औरंगजेब के काल में हुआ परंतु एक पानी के बुलबुले की तरह ही था। मुगल साम्राज्य की सीमाएं ऐसी हो गयी थी कि देश पर पूरा अधिकार बनाए रखना असंभव था। संचार साधन इतने कम थे कि औरंगजेब के उत्तराधिकारियों की तो बात ही क्या औरंगजेब के बस की बात भी नहीं थी। यद्यपि औरंगजेब का निजी जीवन निष्कलंक था फिर भी वह एक राजा और राजनीतिज्ञ के रूप में असफल रहा। अकबर द्वारा आरंभ की गयी और उसके दोनों उत्तराधिकारियों द्वारा अनुसरित उत्तम राजनीति के सिद्धांत, धार्मिक सहनशीलता और सद्भाव, ऊंचे पदों के द्वार योग्य व्यक्तियों के लिए खुले रखना, इसने त्याग दिए। उसकी विवशताएं कुछ भी क्यों न हों, औरंगजेब ने राज्य का इस्लामी रूप, जिसे उसके पूर्वजों ने परिवर्तित कर दिया था, पुनः स्थापित करने का प्रयत्न किया। उसकी धर्मान्धता की नीति का परिणाम उल्टा हुआ। वह बहुत सीमा तक असंतोष उत्पन्न करने के लिये उत्तरदायी था। सिक्खों, जाटों, बंदेलों, राजपूतों और मराठों ने विद्रोह किए। औरंगजेब इंग्लैण्ड के राजा जेम्स द्वितीय से कम मूर्ख नहीं था। वह गधा जिसने मास के लिये तीन देशों का राज्य छोङ दिया।
जेम्स द्वितीय की भांति वह शत्रु बनाने में बहुत निपुण था। उसकी धर्मान्धता की नीति के कराण भारत में मुगलों के सबसे बङे समर्थक राजपूत उसके शत्रु बन गए। जजिया पुनः लागू करने तथा अन्य सामाजिक अपमानों के कारण, सतनामी, बुन्देलों और जाटों ने विद्रोह कर दिए। पंजाब में सिक्खों ने विद्रोह किया और शासन लगभग ठप सा हो गया। मराठों का विद्रोह तो राष्ट्रव्यापी ही बन गया और सब लोग धर्म और स्वतंत्रता के लिये संघर्ष में शामिल हो गये। गुरीला मराठों ने औरंगजेब की सेनाओं के मनोबल का पतन कर दिया। उनकी वरिष्ठता की भावना समाप्त हो गयी और वे निष्क्रिय हो गयी।
औरंगजेब अपनी साम्राज्यवादी और महत्वाकांक्षी नीति के कारण दक्षिण के पत्तनोन्मुख बीजापुर और गोलकुण्डा के राज्यों को हङपना चाहता था। उसमें एक भावना यह भी थी कि वह स्वयं सुन्नी था जब कि ये राज्य शिया थे। इन दोनों मुस्लिम राज्यों की समाप्ति से दक्षिण में मराठों पर सब से महत्त्वपूर्ण स्थानीय नियंत्रण समाप्त हो गया और वे मुगल साम्राज्य के विरुद्ध अपने आपको संगठित करने में जुट गये।
दक्षिण की इस मूर्खतापूर्ण नीति से, जो 25 वर्ष तक चलती रही, राज्य के समस्त साधनों पर इतना बोझ पङा कि अनन्त धन, सेना, इत्यादि का नाश हुआ। मनूशी अपनी पुस्तक में लिखते हैं, कि इस प्रकार वह आज तक उस कार्य को पूर्ण नहीं कर सका जिसे उसने दो वर्षों में पूर्ण करने की सोची थी। वह अपने तीनों पुत्रों – शाहआलम, आजम तरा और काम बख्श तथा पौत्रों सहित वहां गया। उसके साथ बहुत सी धनराशि इस युद्ध में व्यय हो गयी और वह अकबर के काल के कोषों को खोलने पर बाध्य हो गया। यही नहीं इस दीर्घकालीन युद्ध में उसे इतना धन व्यय करना पङा कि जब लोगों ने कर देने में देरी की तो वह औरंगाबाद में अपने घर के चांदी के बरतनों को ढालने पर बाध्य हो गया।
यह दक्कन का नासूर मुगल साम्राज्य के लिए उतना ही घातक सिद्ध हुआ जितना नेपोलियन के लिए स्पेन का नासूर।

औरंगजेब के निःशक्त उत्तराधिकारी

मुगल साम्राज्य एकतांत्रिक था और उसमें सम्राट का व्यक्तित्व विशेष महत्त्व रखता था। एक शक्तिशाली सम्राट के अधीन सब कुछ ठीक चल सकता था परंतु जब शक्तिहीन उत्तराधिकारियों का तांता लग गया तो यह दुर्बलता शीघ्र ही प्रशासन के प्रत्येक भाग में स्पष्ट हो गयी। दुर्भाग्यवश औरंगजेब के बाद सभी मुगल सम्राट दुर्बल थे और इस कारण वे आंतरिक तथा बाह्य परिस्थितियों को नहीं संभाल सके। उनके नैतिक पतन और सनकों के कारण अवस्था संभलने के स्थान पर और भी बिगङ गयी। सिंहासन पर बैठने के समय बहादुरशाह (1707-12) की आयु 63 वर्ष की थी और वह साम्राज्य की प्रतिष्ठा बनाए रखने में असमर्थ था। वह सब दलों को प्रसन्न रखने की चेष्टा में सरदारों को बङी-बङी उपाधियां बांटता रहा। लोग उसे शाहे बेखबर के नाम से याद करते थे।
जहांदरशाह (1712-13) एक लंपट मूर्ख था।
फर्रुखसीयर (1713-19) एक घृणित कायर था।
मुहम्मद शाह (1719-48) अपना अधिकतर समय पशु-युद्धों को देखने में व्यतीत करता था। उसकी प्रशासन के प्रति उदासीनता, मदिरा और सुन्दरी के प्रति रुचि होने के कारण लोग उसे रंगीला कहा करते थे।
अहमदशाह (1748-54) ने तो इन विषम-वासनाओं में अपने पूर्वजों को मात कर दिया। उसका हरम तो एक वर्ग कोस में फैला हुआ था जहां पुरुषों को आने की अनुमति नहीं थी। कई बार तो वह एक-एक सप्ताह भर अथवा एक-एक मास तक स्त्रियों के पास पङा रहता था। अहमद शाह ने प्रशासन में उसी प्रकार की मूर्खताएं की। 1753 में उसने अपने 3 वर्षीय पुत्र को पंजाब का सूबेदार नियुक्त कर दिया और एक वर्षीय बालक मुहम्मद एक वर्षीय बालक मुहम्मद अमीन को उसका नायब सूबेदार । इसी प्रकार कश्मीर की सूबेदारी एक वर्षीय बालक तला सैयद शाह को दे दी और एक 15 वर्षीय लङका उसका नायब नियुक्त हुआ। ये नियुक्तियां उस समय की गयी जब अफगानों के आक्रमणों का बहुत भय था। इस प्रकार के शक्तिहीन और मूर्ख सम्राट, राज्य के हितों की रक्षा नहीं कर सकते थे।

मुगल अभिजात वर्ग का पतन

पुराना कथन है कि जब सोना चांदी ही मुर्चा खा जाए, तो लोगा क्या करेगा। सम्राटों की देखा देखी अभिजात वर्ग ने भी परिश्रमी और कठोर सैनिक जीवन छोङ दिया था। वे वीर योद्धाओं के स्थान पर रसिक प्रियतम बन गए थे। किसके हरम में कितनी अधिक स्त्रियां हैं, इसकी होङ लगी थी। वे जूए और शराब में अपना समय व्यतीत करते थे। बैरम खां, मुजफ्फर खां, खानेखाना अब्दुर्रहीम, महाबत खां, आसफ खां, सैयदुल्ला खां, जैसे वीर अब साम्राज्य की सेवा करने के लिए नहीं मिलते थे। उत्तरकालीन मुगलों को अभिजात वर्ग, बेईमानी, झूठ, मक्कारी, चापलूसी इत्यादि में एक-दूसरे से बढकर था। जब सम्राटों ने योग्यता के आधार पर पदोन्नति करने के स्थान पर चापलूसी को बढावा दिया तो निश्चय ही वीरता और योग्यता समाप्त हो गयी। मआसिर-उल-उमरा के अध्ययन से डाक्टर जादू नाथ सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यदि एक सरदार की वीर गाथाओं का वर्णन तीन पृष्ठों में होता है तो उसके पुत्र का प्रायः एक पृष्ठ पर और पौत्र का केवल कुछ पंक्तियों में, जिनमें प्रायः यह कहा जाता है कि कुछ विशेष कहने को नहीं है। इस ऊपरी वर्ग के लोगों में जो जर्जरता आ गयी थी उसके कारण उत्तम शासक वर्ग तथा वीर सैनिक नेताओं का देश में अभाव हो गया था।

दरबार में गुटबंदी

औरंगजेब के अंतिम दिनों में दरबार में उमरा प्रभावशाली गुटों में बंट गए थे। कहने को ये गुट वंश और कबीलों पर आधारित थे परंतु सब से महत्त्वपूर्ण कारण व्यक्तिगत संबंध थे। इन दलों ने देश में शाश्वत राजनैतिक अशांति की स्थिति उत्पन्न कर दी थी। तूरानी अथवा मध्य-एशियाई दल में ऑक्सस नदी के पार के उमरा थे। मुहम्मद शाह के राज्य काल में आसफशाह निजामुल्क, कमरुद्दीन, जकरिया खां इत्यादि इस दल के नेता थे, अमीर खां, इसहाक खां और सआदत खां फारसी दल के। ये दल प्रायः वही सैनिक रखते थे जो इन देशों से आए थे। यह दोनों दल मिलकर अर्थात् विदेशी दल हिन्दुस्तानी दल जिसके नेता सैयद बंधु (अब्दुल्ला खां और हुसैन अली) थे और जिन्हें हिन्दुओं का समर्थन भी प्राप्त था, के विरुद्ध थे। प्रत्येक गुट का प्रयत्न यह था कि वह सम्राट के कान भरे और सम्राट को दूसरे दल के विरुद्ध कर दे। यह दल आपस में छोटे-छोटे युद्ध भी लङते रहते थे और देश का शासन लुप्तप्राय हो गया था। विदेशी आक्रमणों के विरुद्ध भी ये दल एक नहीं हो सकते थे और प्रायः आक्रांताओं से मिल कर षङयंत्र रचते रहते थे। निजामुलमुल्क और बुरहानमुल्क के निजी स्वार्थों के कारण दोनों ने नादिरशाह से मिलकर दिल्ली प्रशासन के विरुद्ध षङयंत्र रचे और अपने स्वार्थ के लिए राष्ट्रीय हितों को न्योछावर कर दिया।

उत्तराधिकार का त्रुटिपूर्ण नियम

मुगलों में ज्येष्ठाधिकार का नियम नहीं था। अतएव उत्तराधिकार के लिए भाइयों में युद्ध होता था, जिसमें प्रमुख सैनिक नेता भाग लेते थे। प्रसिद्ध लेखक अर्स्कीन के शब्दों में तलवार ही अधिकार की निर्णायक थी और प्रत्येक पुत्र अपने भाइयों के विरुद्ध अपना भाग्य आजमाने को उद्यत रहता था।
यद्यपि ऐसी प्रणाली अच्छी तो नहीं थी तो भी इसके फलस्वरूप सम्राट का सब से योग्य पुत्र ही सम्राट बन पाता था। उत्तरकालीन मुगलों के काल में इस प्रणाली के सबसे घिनौने अंग ही सन्मुख आए। सम्राट के पुत्र तो पृष्ठभूमि में चले जाते थे और युद्ध विरोधी दलों के बीच ही रह जाता था। शक्तिशाली शासक निर्माता उमरा केवल अपने निजी स्वार्थों के लिए सम्राटों को सिंहासन पर बैठाते अथवा उतारते। 1712 में बहादुरशाह की मृत्यु के बाद हुए युद्ध में जुलफिकार अली शासक निर्माता के रूप में सामने आया। 1713-20 तक सैयद बंधु (अब्दुल्ला खां और हुसैन अली) इसी रूप में सामने आए और उन्होंने चार राजकुमारों को एक-दूसरे के बाद सम्राट बनाया। अंत में वे स्वयं ही मीर मुहम्मद अमीन और निजामुलमुल्क के गुट से मात खा गए। इस प्रकार उत्तराधिकार के त्रुटि पूर्ण नियम ने देश की राजनीति को शिथिल बना दिया और देश आर्थिक और राजनैतिक रूप से अपंग हो गया।

मराठों का उत्थान

सबसे महत्त्वपूर्ण बाहरी कारण जो इस साम्राज्य को ले डूबा, वह था पेशवाओं के अधीन मराठों का उत्थान। पेशवाओं ने पश्चिमी भारत में मराठा शक्ति को समेकित किया और प्रादेशिक शक्तियों द्वारा मुगलों पर प्रहार किया। उन्होंने वृहत्तर महाराष्ट्र की नीति अपनाई और हिन्दू पद पादशाही का आदर्श अपने सन्मुख रखा। हिन्दू राष्ट्र का उद्देश्य मुस्लिम राज्य के क्षय द्वारा ही पूरा किया जा सकता था। अब परिस्थितियां कुछ बदल चुकी थी। अब मराठे आक्रामक बन गए थे और मुगल सम्राट और उनके सूबेदार रक्षक। मराठा प्रसार का तूफान उठता ही चला गया और शीघ्र ही उसने उत्तरी भारत को भी अपने लपेट में ले लिया। एक समय भारत की राजनीति में मराठे ही सब से शक्तिशाली थे। यही भारत को विदेशी आक्रान्ता अहमदशाही अब्दाली से बचाना चाहते थे और सदाशिवरावभाऊ ने 1759 में और महादजी सिंधिया ने 1772 में शासक-निर्माता की भूमिका निभाई। यद्यपि मराठे भारत में एक स्थाई सरकार बनाने में असफल रहे तो भी उन्होंने मुगल साम्राज्य के विघटन में बहुत योगदान दिया।

सैनिक दुर्बलता

मुगल सैन्य व्यवस्था में कुछ जन्मजात त्रुटियां थी। सेना अधिकतर सामन्तवादी व्यवस्था पर ही गठित थी जिसमें सैनिक मनसबदार के प्रति ही निष्ठा रखते थे, सम्राट के प्रति नहीं। ये मनसबदार को अपना पदाधिकारी नहीं अपितु सर्वेसर्वा समझते थे। इस पद्धति के दोष यद्यपि बैरम खां और महावत खां के विद्रोहों ने स्पष्ट किए परंतु उत्तरकालीन मुगलों के दिनों में इस व्यवस्था के दोष भयंकर रूप से सामने आए। प्रसिद्ध लेखक विलियम अर्विन के अनुसार वीरता के अभाव को छोङ शेष सभी अवगुण-अनुशासनहीनता, संसक्ति का न होना, ऐश्वर्यमय जीवन, निष्क्रियता, संभरण का अभाव, भारी भरकम साजसामान, सभी इनके थे। ऐश्वर्य और आलस्य सेना के प्रत्येक अंग में समा गया था और मुगल सेना का प्रयाण ऐसे लगता था कि जैसे, हाथी, ऊंट गाङियां, बैल इत्यादि, व्यापारी, दुकानदार, नौकर, बावर्ची, और मनोरंजन के लिए मिश्र साधन सभी मिलकर गड्डमड्ड हुए चले जा रहे हों। इनमें सैनिकों और असैनिकों का अनुपात प्रायः 1 और 10 को होता था।
युद्ध-क्षमता में यह सेना एक सशस्त्र कंकङों से अधिक कुछ नहीं थी। बरनियर ने इनकी तुलना उन पशुओं के रेवङ से की है जो पहले झटके पर ही भाग खङे होते थे। मुगल तोपखाना मराठों के विरुद्ध असफल और प्रभाव रहित होता था और वे मराठों के दुर्गों को जीतने में असफल रहते थे यद्यपि यही मराठों के दुर्ग अंग्रेजों ने बहुत सरलता से विजय कर लिए। 1748 में एक फ्रेंच कमाण्डर परदि ने केवल 230 फ्रांसीसी और 700 भारतीय सैनिकों की टुकङी की सहायता से जिसमें तोपें भी नहीं थी कर्नाटक के नवाब के 10,000 सैनिकों को जिनके पास तोपें भी थी और नदी पार जमे हुए थे, आसानी से पराजित कर दिया था। एक बार डूप्ले ने पैरिस में अपने अधिकारियों को लिखा था कि केवल 500 यूरोपीय सैनिक कृष्णा नदी के इधर के सारे दुर्गों और प्रान्तों को जीत सकते हैं।
18 वीं शताब्दी की मुगल सेना की सबसे बङी निर्बलता उसके गठन में थी। सैनिक लोग प्रायः मध्य एशिया से आये लोगों में से कमाण्डरों द्वारा भरती किए जाते थे और वे किसी भी व्यक्ति को जो उनका व्यय देने को उद्यत था, मिल जाते थे। ये लोग भारत में अपना भाग्य बनाने आते थे न कि खोने। इस प्रकार यह कमांडर और उनके सैनिक निस्संकोच विरोधी धङे से मिल जाते थे और सदैव अपने स्वामियों को धोखा देना अथवा बदलने की उधेङबुन में लगे रहते थे। मुगल गवर्नर जो इन सैनिकों को अपनी सेवा में रखते थे, उन्हें इनके भाग जाने का भय सदैव बना रहता था। इस प्रकार के किराए के सैनिक साम्राज्य की रक्षा करने में सर्वथा असमर्थ थे। सुप्रसिद्ध कवि सौदा ने जो सम्राट शाह आलम के काल के विषय में लिखा है कि वह सभी उत्तरकालीन मुगलों के विषय में सत्य है।


विवश होकर ही वह (मुगल मनसबदार) अपने दुर्ग की खाई के पार आता है।
उसकी सेना केवल युद्ध क्षेत्र से भागना ही जानती है
पैदल, वह तो नाई से सिर मुंडवाने से भी डरता है,
घुङसवार सोया-सोया भी चारपाई से गिर जाता है,
यदि उसका घोङा स्वप्न में भी बिदक जाए। (सौदा : वीरानी-ए-शाहजहानाबाद)

आर्थिक दिवाला

जिन तत्वों ने मुगल साम्राज्य को खोखला कर दिया, वे थे आर्थिक और वित्तीय परिस्थितियां जो दिनों दिन बिगङती जा रही थी और जो निश्चय ही औरंगजेब के अंतिम दिनों में और भी बिगङ गई थी। औरंगजेब के दीर्घकालीन दक्षिण के युद्धों ने न केवल कोष ही रिक्त कर दिया अपितु देश के व्यापार और उद्योग का भी नाश कर दिया। सेना के प्रयाणों ने खङी फसलों को रौंद डाला और माल वाहक पशुओं ने सब हरियाली खा डाली। वित्तीय कठिनाइयों के कारण सम्राट शिकायत सुनने को उद्यत नहीं था। जो शेष बचा उसे मराठों ने खा डाला, रौंद डाला अथवा नाश कर दिया। कृषकों ने तंग आ कर कृषि करना छोङ दिया और लूटमार आरंभ कर दी। फलस्वरूप विदेशी कंपनियों को निर्यात करने के लिए माल मिलने में कठिनाई होने लगी।
उत्तरकालीन मुगलों के काल में ये वित्तीय कठिनाइयां और भी बढ गयी। दूरस्थ प्रदेशों ने शनैः शनैः अपनी स्वाधीनता की घोषणा कर दी और केन्द्र को कर देना बंद कर दिया। उत्तराधिकार के युद्धों ने, राजनैतिक उथल-पुथल ने, सम्राटों के आडंबरमय व्यय ने कोष को इतना रिक्त कर दिया कि सेना को नियमित रूप से वेतन मिलना बंद हो गया। सम्राटों ने इन शेष वेतनों के भुगतान के लिए खालसी भूमि और जागीरें देनी आरंभ कर दी। जागीरदारों का संकट तो तब आया जब देश की कुल भूमि जागीरों में दी गयी भूमि से कम पङ गयी। जागीरदारों को अपनी भूमि को अधिकार में लेने के लिये देर तक प्रतीक्षा करनी पङती थी। लोग तो यहां तक कहते थे कि युवक जागीरदार तो अपनी जागीर पर कब्जा लेते-लेते बूढा हो जाता था। जागीरदार स्वयं ग्राहकों के ऋणों से इतने दबे होते थे कि ये अपनी जागीरें साहूकारों को ऋणों के भुगतान के लिये किराये पर दे देते थे। मुगल मनसबदारों की दुर्दशा का वर्णन सौदा ने इन शब्दों में किया है – यदि आप घोङा मोल लेकर किसी की नौकरी कर लेते हैं तो आप अपने वेतन का मुंह स्वर्ग में ही देखेंगे।
आलमगीर दूसरे के काल का चित्रण डाक्टर सर जादू नाथ सरकार ने इस प्रकार किया है कि एक बार सम्राट की ऐसी दुर्दशा हो गयी कि तीन दिन शाही चूल्हे में आग नहीं जली और शाही राजकुमारियां परदा छोह महलों से निकल नगर तक चली गयी।
सरकार महोदय के अनुसार मुस्लिम राज्य का आर्थिक आधार अच्छा नहीं था। मुस्लिम विद्वानों के अनुसार धर्म पुस्तकों की आज्ञा थी कि सच्चे मुसलमान की वृत्ति केवल युद्ध है। भारत में मुस्लिम सरकारें सदैव से बङी-बङी सेनाएं रखती आई थी। शांति काल में उसका आर्थिक ढांचा अस्तव्यस्त हो जाता था। जब औरंगजेब के काल में मुगल राज्य अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया तो इस बङी सेना को बनाए रखना और उसका ठीक-ठीक प्रयोग करना निरर्थक था। 18 वीं शताब्दी में यह अवस्था और भी बिगङ गयी।

मुगल सरकार का स्वरूप

मुगल सरकार वास्तव में पुलिस सरकार थी और इसका मुख्य कार्यक्षेत्र आंतरिक और बाह्य सुरक्षा करना तथा कर एकत्रित करना ही था। मुगल हिन्दुओं और मुसलमानों को मिला कर एक राष्ट्र बनाने में असफल रहे। थोङा बहुत जो प्रयत्न अकबर ने किया, औरंगजेब की कट्टरता तथा उसके निकम्मे उत्तराधिकारियों ने समाप्त कर दिया। हिन्दू उसके समर्थक तो क्या विद्रोही हो गए। अधिकतर भारतीय राजे मुगलों को विदेशी मानते थे और हिन्दू धर्म और भारत के शत्रु। 18 वीं शताब्दी में इस राज्य की शिथिलता से, मराठों, राजपूतों और हिन्दू तत्वों ने लाभ उठाया।

नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण

1739 में नादिरशाह के आक्रमण ने मरणासन्न मुगल राज्य को महान आघात पहुंचाया। कोष रिक्त हो गया और सैनिक दुर्बलता स्पष्ट हो गयी। जो लोग मुगल नाम से भय खाते थे वे अब सिर उठाने और मुगल सत्ता की खुलकर अवहेलना करने लगे। नादिरशाह के उत्तराधिकारी अहमदशाह अब्दाली के अनेक आक्रमणों से पंजाब, सिन्ध और कश्मीर जैसे सीमावर्ती प्रान्त हाथ से निकल गए। 1761 में जब अहमदशाह ने पानीपत का युद्ध लङा तो वह मुगलों के विरुद्ध नहीं अपितु मराठों के विरुद्ध था जो उस समय समस्त उत्तर भारत पर प्रभुसत्ता रखते थे। 1761 से 1772 तक दिल्ली पर नजीबुद्दौला की पठानशाही चलती रही।

यूरोपवासियों का आगमन

मुगल सैनिक दुर्बलता के कारण 18 वीं शताब्दी में भारत में सैनिक सामंतशाही का बोलबाला हो गया। यूरोपीय कंपनियां सैनिक सामंत बन गई और शीघ्र ही भारतीय रजवाङों से व्यापार और सैनिक सत्ता में बाजी ले गयी। वास्तव में समकालीन भारतीय समाज गतिहीन ही नहीं अपितु सङा हुआ था और गतिशील और प्रगतिशील यूरोपीय समाज का विरोध करने में असफल रहा। यह समकालीन मुगल विवेक का दिवाला है कि जहां मुगल सम्राट तथा अभिजात वर्ग करोङों रुपये की ऐश्वर्य की सामग्री विदेश से मंगवाते थे परंतु उन्होंने एक भी मुद्रणालय मंगवाने का प्रयत्न नहीं किया। जिस समय पुनर्जागरण आंदोलन यूरोप में एक नवीन युग का आरंभ कर रहा था, भारतीय समाज परलोकवाद और भक्तिवाद के गहरे सागर में डूबा हुआ था और पलायनवाद में शांति प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहा था। वास्तव में तो भारत सभ्यता की दौङ में बहुत पीछे रह गया था। सर जदुनाथ सरकार ने ठीक ही कहा है, अंग्रेजों की मुगल साम्राज्य पर विजय तो यूरोपीय जातियों की अफ्रीका और एशिया की अपरिहार्य विजय का एक छोटा सा अंग मात्र है जिसे हम दूसरे शब्दों में यूं भी कह सकते हैं कि प्रगतिवादी जातियां रूढिवादी जातियों का स्थान ले रही थी जैसे सदैव समाज के नेतृत्व में उद्यमी परिवार, सुषुप्त और आत्मसंतोषी परिवारों का स्थान लेते रहे हैं।

Reference Books :
1. पुस्तक – आधुनिक भारत का इतिहास, लेखक – बी.एल.ग्रोवर, अलका मेहता, यशपाल

  

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