आधुनिक भारतइतिहास

नवीन राज्यों का उत्थान कैसे हुआ?

नवीन राज्यों का उत्थान

नवीन राज्यों का उत्थान – मुगल साम्राज्य के शिथिल हो रहे राजनैतिक ढांचे तथा इसके सैन्य बल के कम होने के कारण भारत में एक प्रकार से राजनैतिक शून्य स्थिति उत्पन्न हो गयी जिससे महत्वाकांक्षी सूबेदार तथा प्रादेशिक सरदारों को अर्ध स्वतंत्र अथवा स्वतंत्र राज्य बनाने की, तथा पश्चिमोत्तर सीमा पार के साहसी वीरों को भारत पर पुनः आक्रमण करने की प्रेरणा मिली। भारत के अपने आंतरिक तथा बाहरी शत्रुओं के कारण स्थिति बहुत गंभीर हो गयी जिससे राजनैतिक अव्यवस्था बढ तथा मुगल साम्राज्य का पतन हो गया।

दक्कन के निजाम

हैदराबाद के आसफजाही वंश के प्रवर्तक चिनकिलिच खां थे जिन्हें प्रायः निजामुलमुल्क भी कहा जाता था।

यह जुल्फिकार खां था जिसने पहली बार दक्कन में स्वतंत्र राज्य का स्वप्न देखा 1708 में बहादुरशाह औदार्य के कारण जुल्फिकार खां दक्कन का वाइसराय बना। वह दक्कन का कार्य अपने नायब दाऊद खां द्वारा चलाता रहा। 1713 में जुल्फिकार खां की मृत्यु हो गयी और यह योजना समाप्त हो गयी। तब चिनकिलिच खां सैयद बंधुओं के प्रयास से दक्कन का वाइसराय बना। 1715 में सैयद हुसैन अली को ही दक्कन का वाइसराय नियुक्त किया गया। हुसैन अली के वध के बाद चिनकिलिच खां का भाग्य पुनः चमका और वह दक्कन का सूबेदार नियुक्त हो गया।

1722 में निजाम को दिल्ली में वजीर नियुक्त किया गया। उसने दिल्ली में सुव्यवस्था स्थापित करने का प्रयत्न किया परंतु सम्राट और उसके कामुक मित्रों ने सभी प्रयास विफल कर दिए। उसने सम्राट को कर्त्तव्य पालन का पाठ पढाने का प्रयत्न किया। उसके कठोर अनुशासन से लोगों के मनों में उसके प्रति ईर्ष्या और द्वेष उत्पन्न हो गया। दुःखी होकर निजाम ने दक्कन जाने का विचार कर लिया। वजीर के रूप में उसने मालवा और गुजरात को दक्कन की सूबेदारी में सम्मिलित करवा लिया। 1723 के अंत में उसने शिकार अभियान के बहाने दक्कन की ओर प्रस्थान किया।

सम्राट मुहम्मद शाह को यह बहुत बुरा लगा। उसने मुबारिज खां को पूर्ण रूपेण दक्कन का वाइसराय बना दिया और आज्ञा दी कि निजाम को जीवित अथवा मृत उपस्थित करे। निजाम मुबारिज खां से कहीं अधिक शक्तिशाली था और अक्टूबर 1724 में शकूर खेङा के युद्ध में मुबारिज खां मारा गया और निजाम दक्कन का स्वामी बन गया। सम्राट बेबस था और बाह्य रूपेण अपनी मर्यादा बनाए रखने के लिये उसने किलिच खां को दक्कन का वाइसराय नियुक्त कर दिया और उसे आजफशाह की उपाधि भी दे दी।

निजाम को मराठों के आक्रमणों के कारण कुछ समय तक कठिनाई रही। उसने बाजी राव के विरुद्ध युद्ध किया और हार खाई (दिसंबर 1737)। उसने सम्राट के साथ नादिरशाह के विरुद्ध करनाल के युद्ध में भाग लिया। दिल्ली में लौटने के पूर्व नादिरशाह ने सम्राट को निजाम के विरुद्ध सचेत भी किया कि यह व्यक्ति आवश्यकता से अधिक महत्वाकांक्षी और चालाक है। नादिरशाह के लौटने के बाद निजाम दक्कन चला गया और लौटकर उसने अपनी स्थिति सुदृढ कर ली।

निजाम में वे सभी गुण थे जो स्वतंत्र राज्य बनाने के लिये आवश्यक होते हैं। वह सफल कूटनीतिज्ञ और परोपकारी शासक था। उसने शांति और व्यवस्था स्थापित की। कृषि और उद्योग को बढावा दिया और लोकप्रिय बन गया।

सिडनी ओवन के अनुसार, वह चालाक, कूटनीतिज्ञ तथा अवसरवादी था। उसने मुगल साम्राज्य को अपने पांव पर खङा करने का प्रयत्न किया और जब उसे ऐसा होना असंभव लगा तो वह स्वयं नौका में बैठ, कुछ अन्य व्यक्तियों के साथ डूबती हुई स्थिति से अपने आपको बचा कर ले गया।

अवध

अवध के स्वतंत्र राज्य का संस्थापक सआदत खां अथवा बुरहानमुल्क था। सआदत खां शिया था और निशापुर के सैयदों का वंशज था। 1720 में वह बयाना का फौजदार नियुक्त किया गया। उसने सैयद बंधुओं के विरुद्ध षङयंत्र में भाग लिया और सम्राट की दृष्टि में ऊपर उठ गया। फलस्वरूप पहले उसे पंजहजारी और फिर सप्तहजारी का मनसब मिला और बुरहानमुल्क की उपाधि भी मिली। 1720 से 1722 तक वह आगरे का गवर्नर भी रहा जिसका शासन उसने अपने नायब नीलकंढ नागर के द्वारा चलाया। परंतु शीघ्र ही वह दरबार का कृपापात्र नहीं रहा और उसे राजधानी से बाहर अवध का गवर्नर नियुक्त किया गया। शीघ्र ही उसने अपने लिए अवध का स्वतंत्र मुस्लिम राज्य स्थापित कर लिया। 1739 में सआदत खां को नादिरशाह के विरुद्ध लङने के लिए दिल्ली बुलाया गया। वह वीरता से लङा परंतु बंदी बना लिया गया। उसने नादिरशाह को दिल्ली पर आक्रमण करने के लिये प्रेरित किया परंतु यह दांव उलटा पङा। उसने आक्रमणकारी को 20 करोङ की आशा दिलाई थी और जब उससे यह धन मांगा गया तो सआदत खां ने विष खा कर आत्महत्या कर ली।

उसके पुत्र नहीं था। उसने अपनी पुत्री का विवाह अपने भतीजे सफदर जंग से कर दिया था और इसी कारण यह उसका उत्तराधिकारी बना। सम्राट मुहम्मद शाह ने एक फरमान द्वारा सफदर जंग को अवध का नवाब नियुक्त कर दिया। 1748 में सम्राट मुहम्मदशाह ने सफदरजंग को अपना वजीर नियुक्त कर लिया और उसके उत्तराधिकारी प्रायः नवाब वजीर कहलाने लगे। 1819 में इस वंश के सातवें शासक सआदत खां ने अवध के राजा की उपाधि धारण कर ली।

रुहेले तथा बंगश पठान

गंगा की घाटी में रुहेलों तथा बंगश पठानों ने अपने लिए स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिए। एक अफगान वीर दाऊद तथा उसके पुत्र अली मुहम्मद खां ने बरेली में एक छोटी सी जागीर का विस्तार कर, रुहेलखंड का एक स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया जो उत्तर में कुमाऊं से दक्षिण में गंगा नदी तक फैल गया। इस से कुछ दूर पूर्व में मुहम्मद खां बंगश ने, जो एक अन्य अफगान वीर था, फर्रुखाबाद की जागीर को एक स्वतंत्र राज्य बना लिया। बाद में इसने बुन्देलखंड तथा इलाहाबाद के प्रदेशों पर अपना प्रभुत्व जमा लिया।

बंगाल

बंगाल के स्वतंत्र राज्य के संस्थापक मुर्शिद अली खां थे। औरंगजेब के काल से ही मुर्शिद कुली खां को बंगाल के दीवान तथा नायब गवर्नर का पद मिला हुआ था। पहले राजकुमार अजीमुशान के अधीन और फिर राजकुमार फर्रुखसीयर के अधीन 1713 में मुर्शिल कुली खां को बंगाल का गवर्नर नियुक्त कर दिया गया। 1719 में उङीसा भी उसके अधीन कर दिया गया। मुर्शिल कुली खां एक सफल शासक था और उस के अधीन बंगाल ने व्यापार और वाणिज्य में बहुत उन्नति की।

1727 में मुर्शिद कुली खां की मृत्यु के बाद उसका जामाता शुजाउद्दीन उसका उत्तराधिकारी बना। 1733 में सम्राट मुहम्मद शाह ने बिहार का कार्यभार भी उसी पर डाल दिया। 1739 में शुजाउद्दीन की मृत्यु पर उसका पुत्र सरफराज खां गवर्नर बना। परंतु 1740 में बिहार के नायब सूबेदार अलीवर्दी खां ने विद्रोह कर दिया और अप्रैल में सरफराज खां गवर्नर बना। परंतु 1740 में बिहार अलीवर्दी खां बंगाल, बिहार और उङीसा का गवर्नर बन बैठा। उसने सम्राट को 2 करोङ रुपया नजराने के रूप में देकर सम्राट की अनुमति भी प्राप्त कर ली। 1746 में सम्राट ने अलीवर्दी खां से कुछ और धन मांगा परंतु उसने कोई ध्यान नहीं दिया। इस प्रकार बंगाल, बिहार और उङीसा के प्रांत सम्राट के अधिकार क्षेत्र से लगभग निकल ही गए।

अलीवर्दी खां मराठों के विरुद्ध भी रक्षा के लिए सम्राट पर निर्भर नहीं रहा। परंतु फिर भी उसने निजाम और नवाब वजीरों की नाई मुगल राजसत्ता को झूठमूठ बनाए रखा।

राजपूत

राजपूतों ने जो औरंगजेब की राजनीति से अप्रसन्न थे, 18 वीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य की दुर्बलता से लाभ उठाकर अपनी प्राचीन स्वतंत्रता पुनः स्थापित कर ली तथा चारों दिशाओं में अपने राज्यों का विस्तार कर लिया। राजपूतों तथा मुगलों के आपसी प्रेम-घृणा संबंधों से प्रेरित होकर बहादुरशाह ने 1708 में जोधपुर पर आक्रमण कर दिया। अजीत सिंह ने अधीनता स्वीकार तो कर ली परंतु शीघ्र ही उसने जयसिंह द्वितीय तथा दुर्गादास राठौर के साथ मिल कर मुगलों के विरुद्ध एक गठजोङ बना लिया। 1714 में मुगल सेनापति हुसैन अली ने जोधपुर पर आक्रमण किया तथा अजीत सिंह को अपनी पुत्री का विवाह मुगल सम्राट फर्रुखसीयर से करके शांति मोल लेने पर बाध्य किया।

दिल्ली में हुए फर्रुखसीयर सैयद बंधु झगङे में जयपुर तथा जोधपुर के राजाओं ने अपने हितों की रक्षा हेतु तटस्थता की नीति अपनाई। सैयद बंधुओं ने अजीत सिंह को अपनी ओर मिलाने के लिये उसे अजमेर तथा गुजरात की सूबेदारी प्रदान की, जिस पद पर वह 1721 तक बना रहा। सैयद बंधु विरोधी दल ने जयपुर के महाराजा जयसिंह द्वितीय को 1721 में आगरे का सूबेदार नियुक्त कर दिया तथा सम्राट मुहम्मद शाह के काल में उसे गुजरात की सरकार का क्षेत्र भी दे दिया गया।

इस प्रकार एक समय, दिल्ली के पश्चिम में 100 मील से लेकर भारत के पश्चिमी तट स्थित सूरत तक का समस्त देश राजपूतों के अधीन था। परंतु राजपूतों के आंतरिक झगङों के कारण वे अपनी स्थिति को दृढ नहीं कर पाए तथा मराठों के हस्तक्षेप का शिकार बन गए।

जाट

दिल्ली, मथुरा तथा आगरा के समीपवर्ती क्षेत्रों में कृषि कार्य में लगे जाट लोगों ने औरंगजेब नीति के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। यद्यपि विद्रोह तो दब गया था परंतु वहां अशांति ही बनी रही। चूङामण ने थीम के स्थान पर एक सुदृढ दुर्ग बना लिया तथा इस प्रदेश में मुगलों की शक्ति को चुनौती दी। 1721 में आगरा के सूबेदार जयसिंह द्वितीय के अधीन मुगल सेना ने इसके विरुद्ध अभियान किया तथा दुर्ग जीत लिया। चूङामन ने आत्महत्या कर ली। उसके बाद चूङामन के भतीजे बदन सिंह ने जाटों का नेतृत्व संभाल लिया। उसने अपनी सेना को शक्तिशाली बना लिया तथा दीग, कुम्बेर, वेद तथा भरतपुर में चार दुर्ग बना लिए। नादिरशाह के आक्रमण के बाद हुई अव्यवस्था से लाभ उठा कर उसने आगरा तथा मथुरा पर अधिकार कर लिया तथा भरतपुर राज्य की नींव रखी। अहमदशाह अब्दाली ने इस परिस्थिति को स्वीकार कर लिया तथा बदन सिंह को राजा की उपाधि दे दी जिसमें महेन्द्र शब्द जोङ दिया।

1756 में सूरजमल इस राज्य का उत्तराधिकारी बना। उसने इस जाट राज्य को अपनी चतुराई, सूक्ष्मबुद्धि, तथा स्पष्ट दृष्टि दी। लोग उसकों जाटों का अफलातून के नाम से स्मरण करते हैं। 1763 में सूरजमल की मृत्यु हो गयी तथा उसके बाद जाट राज्य का पतन हो गया।

सिक्ख

सिक्खों के अंतिम गुरु, गोविंद सिंह ने धर्म तथा स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिये सिक्खों को योद्धाओं में परिणत कर दिया। 1708 में इनका नेतृत्व बंदा बहादुर ने ले लिया तथा आने वाले 8 वर्ष तक वह मुगलों से जूझता रहा। युद्ध में अपने ही सहयोगियों द्वारा विश्वासघात किए जाने पर वह बंदी बना लिया गया तथा 1716 में उसकी निर्मम हत्या कर दी गयी। उस समय सिक्खों की अवस्था बहुत कमजोर थी।

नादिरशाह तथा अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों से मुगलों की केन्द्रीय सत्ता लगभग समाप्त हो गयी। इससे सिक्क मिसलों (बराबर के लोगों का संगठन) को स्वर्ण अवसर मिल गया तथा उन्होंने 1760 के बाद पंजाब में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया।

मराठे

संभवतः मुगलों को उत्तरी तथा दक्षिणी भारत में सब से कङी चुनौती मराठों की ओर से मिली। पेशवाओं के योग्य नेतृत्व में मराठों ने मुगलों को मालवा तथा गुजरात से उखाङ फेंका तथा 1730 के बाद राजस्थान में भी अपना प्रभुत्व बना लिया तथा मुगलों के विघटन से उत्पन्न हुए रिक्त स्थान को भरने का पूर्ण प्रयत्न किया।

कुछ समय तक मराठे बहुत चमके तथा 1750 के बाद ऐसा लगा कि वे ही मुगल सत्ता के अधिकारी बनेंगे। परंतु अहमदशाह अब्दाली ने उन्हें चुनौती दी तथा पानीपत के तीसरे युद्ध (1761) में उन्हें परास्त कर दिया। परंतु इस हार के बाद मराठे शीघ्र ही पुनः उठ खङे हुए तथा उन्होंने अंग्रेजों को सबसे कङी चुनौती प्रस्तुत की।

Reference Books :
1. पुस्तक – आधुनिक भारत का इतिहास, लेखक – बी.एल.ग्रोवर, अलका मेहता, यशपाल

  

Related Articles

error: Content is protected !!